Monday 11 January 2016

सांसद आदर्श ग्राम योजना का हाल: सांसदों ने गांवों को गोद तो लिया मगर पालना भूल गए

मधुरेश, 
साथ में नवादा से अशोक प्रियदर्शी 
     अपने महान भारत में बेहतरी से जुड़ी कोई चीज कितनी ज्यादा प्रचारित होती है और फिर कैसे उसे सबके सामने, सबके द्वारा मिलकर मार दिया जाता है, ‘सांसद आदर्श ग्राम योजना’, सिस्टम के इस विरोधाभास की खुली गवाही है। दैनिक भास्करने गांवों की सूरत बदलने वाली इस बहुप्रचारित योजना को खंगाला; उन गांवों को देखा, जिसे सांसदों ने गोद लिए थे। सभी पहले की तरह अनाथ से नजर आए। आप भी देखिए और तय कीजिए कि आखिर जिम्मेदार कौन है? चिंतन की प्रक्रिया यह बताने की हैसियत में होगी कि सबकुछ क्यों, कहां और कैसे ठहर जाता है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 11 अक्टूबर 2014 को सांसद आदर्श ग्राम योजना शुरू की। इसके बारे में जो कहा गया, यह जैसे प्रचारित हुआ, लगा कि सबकुछ बदल जाएगा। गांवों के देश भारत का हर गांव बारी-बारी से आदर्श हो जाएगा। मगर नौबत भ्रूण हत्या जैसी है। गांव, गोद तो ले लिए गए। बड़ी-बड़ी बातें हुईं। ग्रामीण विकास मंत्रालय की 40 पृष्ठों वाली पुस्तिका …, अहा, कितनी सुंदर है! लेकिन गोद लिए गए गांव? साल भर से ज्यादा हो गए। गांवों में शायद ही कुछ बदला। असल में माननीयों ने गांव, गोद तो ले लिए लेकिन उसे पालना भूल गए।

यही होता है। यही सिस्टम का दुर्भाग्य है। और यही चरित्र 21 वीं सदी में भी यहां की बहुत बड़ी आबादी को रोजमर्रा की बुनियादी जरूरतों को लगातार तड़पा रहा है। जो फीडबैक है, गांवों की सूरत क्या बदलेगी, गोद लेने वाले ज्यादातर माननीय तो इन गांवों में जाते भी नहीं हैं। इस आदर्श व्यवस्था में भी राजनीति की भरपूर गुंजाइश तलाश ली गई है। बड़ा सवाल यह भी है कि पहले से चल रही प्रधानमंत्री आदर्श ग्राम योजना को किनारा देने की क्या जरूरत थी? योजना पर योजना, लेकिन काम…?

सांसद आदर्श ग्राम योजना यह भी बताता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पार्टी यानी भाजपा के सांसद भी अपने को प्रधानमंत्री के अरमानों का वाहक साबित नहीं कर पा रहे हैं। कई केंद्रीय मंत्रियों ने सांसद के रूप में गांवों को गोद लिया हुआ है। यहां भी कुछ नहीं हुआ है। हद है। हां, कुछ नहीं हो सकने की तहकीकात के दौरान कई व्यावहारिक दिक्कतें सामने आईं हैं। योजना को मुकाम देना है, तो इनका समाधान करना ही होगा। इस योजना का मकसद था, गोद लिए गए गांव के लोगों में उन मूल्यों को स्थापित करना, जिससे वे स्वयं के जीवन में सुधार कर दूसरों के लिए एक आदर्श गांव बने। दूसरे गांवों के लोग उनका अनुकरण उन बदलावों को स्वयं पर भी लागू करें। योजना की लंबी-चौड़ी मान्यताएं हैं, उद्देश्य हैं-बुनियादी सुविधाओं में सुधार, उच्च उत्पादकता, मानव विकास में वृद्धि करना, आजीविका के बेहतर अवसर, असमानताओं को कम करना, अधिकारों और हक की प्राप्ति से लेकर व्यापक सामाजिक गतिशीलता तक। दिखा कि कई सांसद तो इसे समझ भी नहीं पाए हैं। वे सीधे फंड की बात करने लगते हैं।
इन्होंने नहीं चुना गांव
पवन कुमार वर्मा, के सी त्यागी
रामचंद्र प्रसाद सिंह (तीनों जदयू के हैं)
योजना की मान्यताएं
> लोगों की भागीदारी से समस्याओं का समाधान
> समाज के सभी वर्गों का ग्रामीण जीवन से संबंधित सभी पहलुओं से लेकर शासन से संबंधित सभी पहलुओं में भाग लेने की गारंटी
> गांव के सबसे गरीब और सबसे कमजोर व्यक्ति को जीवन जीने के लिए सक्षम बनाना
> लैंगिक समानता व महिलाओं के लिए सम्मान
> सामाजिक न्याय की गारंटी 
> श्रम की गरिमा व सामुदायिक सेवा को स्थापित करना
> सफाई की संस्कृति को बढ़ाना
> पर्यावरण संरक्षण
> स्थानीय सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण, प्रोत्साहन
> आपसी सहयोग, स्वयं सहायता और आत्मनिर्भरता का निरंतर अभ्यास करना 
> शांति और सद्भाव को बढ़ाना
> सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता
> स्थानीय स्वशासन की भावना विकसित करना।


गोद में रहते हुए भी अनाथ है जीरादेई
सीवान का जीरादेई भारत के पहले राष्ट्रपति देशरत्न डा.राजेन्द्र प्रसाद का पैतृक गांव है। सीवान के भाजपा सांसद ओमप्रकाश यादव ने इसे गोद लिया है। ग्रामीण महात्मा भाई कहते हैं-हमने भी अखबार में पढ़ा था कि हमारा गांव गोद लिया गया है। मगर काम कहां कुछ हुआ? लोग बताते हैं-सांसद यहां तीन बार आए। साथ में डीएम साहेब भी। मीटिंग हुई। बात इससे आगे नहीं बढ़ी। एक पीसीसी सड़क बनी है। जलनिकासी ठप है। सिंचाई व्यवस्था चौपट। बिजली का पोल नहीं लगा। छठ घाट का शिलान्यास होकर रह गया। तालाब को सुंदर बनाने के काम में घटिया सामग्री का इस्तेमाल हो रहा है। आयुर्वेदिक औषधालय का भवन जर्जर। श्मशान घाट पर शेड तक नहीं। पीने लायक पानी नहीं।
राष्ट्रकवि के गांव के सपने तब परवान चढ़े थे, अब ...
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का गांव है सिमरिया। जब इसे गोद लिया गया, तब लोगों के सपने परवान चढ़े थे। लेकिन अभी तक यह गांव आदर्श बनने की दिशा में एक कदम भी नहीं बढ़ा है। लोग निराश हैं। सांसद ने ग्रामीणों के साथ दो बार बैठक की। लोगों ने 45 सूत्री पत्र सांसद को सौंपा लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। 1983 में भी तत्कालीन मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे ने इस गांव को आदर्श ग्रमा घोषित किया था। 2008 में इसे निर्मल ग्राम का पुरस्कार भी मिला। अभी चौतरफा गंदगी दिखती है। अस्पताल है। कई मुहल्लों में बिजली के खंभे नहीं हैं। रामधारी सिंह दिनकर स्मारक उच्च विद्यालय को उत्क्रमित कर प्लस टू का दर्जा दे दिया गया। दो साल से नामांकन भी हो रहा है। लेकिन शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हुई।
श्रीबाबू की जन्मस्थली पर बस 100 सोलर चरखा 
केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने नवादा के खनवां गांव को गोद लिया हुआ है। साल भर बाद भी गांव के विकास के लिए नया कदम नही उठाया गया। हां, मंत्री जी के प्रयास से सोलर चरखा और मशरूम की खेती जरूर शुरू हुई है। वैसे मशरूम की खेती में हुए नुकसान से किसान इससे किनारा भी करने लगे हैं। गांव में 100 सोलर चरखा लगाए गए हैं। महिलाएं सूत काटने का काम सीख रही है। खनवां, बिहार के पहले मुख्यमंत्री डॉ.श्रीकृष्ण सिंह की जन्मस्थली है। ग्रामीण संजय बिहारी बताते हैं-मंत्री जी चार दफा आए। खनवां पंचायत के पैक्स अध्यक्ष सतीश कुमार कहते हैं-मंत्री जी, खनवां को गोद लेने के बाद इसे भूल गए। खबर है कि गांव में सोलर चरखा का शेड के लिए एक एकड़ जमीन राज्य सरकार से मांगी गई है। राज्य सरकार के अधिकारी दिलचस्पी नही दिखा रहे।
लोकनायक के गांव में बहुत कुछ की दरकार

लोकनायक जयप्रकाश नारायण का गांव है। इसे छपरा के सांसद व केंद्रीय मंत्री राजीव प्रताप रूडी ने गोद लिया हुआ है। आदर्श ग्राम योजना घोषित होने के बाद यहां सांसद की ओर से हर घर में नल लगाने के लिए पैसा स्वीकृत किया गया है। श्री रूडी ने लाला टोला में चौपाल लगाकर तमाम व्यवस्थाओं को क्रमश: ठीक करने के लिए कहा। पठन-पाठन, वृद्धा, विधवा, विकलांग पेंशन, स्वास्थ्य व्यवस्था, साफ-सफाई, घाघरा नदी का कटाव के मसले से लेकर बिजली, सड़क तक की बातें। अफसर भी थे। इस चौपाल में काम का जो लक्ष्य निर्धारित था, यह पूरा नहीं हो पाया है। बेशक, कुछ काम हुए हैं लेकिन अब भी बहुत कुछ की दरकार है। सड़कें नहीं बदलीं। साफ-सफाई का कार्य उसी दिन चलता है जिस दिन कोई अधिकारी यह अभियान चलाते है। सिताबदियारा पंचायत को ई-पंचायत बनाने की योजना है। मुख्यालय के लिए सीधी बस सेवा चाहिए। किसानों की अधिकांश जमीन घाघरा नदीं निगल चुकी है। इंदिरा आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली …, जरूरत के बड़े मोर्चे हैं





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