Monday 10 October 2016

रेवरा आंदोलन की सफलता की कहानी, बुजुर्गों की जुबानी

डाॅ. अशोक प्रियदर्शी
         बिहार के नवादा जिले के काशीचक प्रखंड में एक गांव है रेवरा। रेवरा किसान आंदोलन का तीर्थस्थल रहा है। लेकिन इसकी खूबियों से बहुत कम लोग वाकिफ रहे हैं। समय के साथ रेवरा सत्याग्रह की कहानी गुम पड़ती जा रही है। उस दौर के ज्यादातर लोग गुजर गए। लेकिन अब भी कुछ लोग जीवित हैं, जिनकी जुबां पर रेवरा की कहानियां जीवंत है। आज भी रेवरा सत्याग्रह कई मायने में महत्वपूर्ण है। प्रतिकूल परिस्थिति में ग्रामीणों की एकजुटता समाज को प्रेरणा देता है। महिलाओं के हौसले समाज को झकझोरता है। आइए जानते हैं रेवरा आंदोलन की सफलता की कहानी रेवरा के बुजुर्गों की जुबानी।




    
प्रतिकूल परिस्थिति में ग्रामीणों ने संयम नही खोया
बच्चू नारायण शर्मा, उम्र- 80 साल
    जमींदार के अत्याचार के कारण रेवरा के ग्रामीणों के समक्ष भूखों मरने की नौबत थी। गांव के कुछ लोग जीविका के लिए पलायन कर गए थे। बाकी बचे लोग बैलगाड़ी चलाकर गुजारा करते थे। 80 वर्षीय बच्चू नारायण शर्मा कहते हैं कि उसी दौर में उनका जन्म हुआ था। लेकिन होश संभालने के बाद जमींदारों का अत्याचार खत्म हो चुका था। लेकिन बुजुर्ग बताया करते थे कि छप्पड़ पर दो कददू फलता था उसमें एक कददू जमींदार का, दो बकरे में एक जमींदार का हो जाता था। 
     ईख की खेती होती थी। कोलसार में ईख की पेराई होती थी। लेकिन जमींदार के कारिंदे रातभर उसकी निगरानी करते थे। ऐसी कई प्रतिकूल परिस्थितियां थी। ताज्जुब कि अत्याचार के उस दौर में ग्रामीणों ने संयम नही खोया। कोई चोर और डाकू नही बना। संघर्ष का रास्ता अख्तियार किया। यही वजह है कि जमींदार के अत्याचार से मुक्ति मिली और रेवरा एक मिसाल बना।


रेवरा का कोई किसान मजदूर नही बचा था भूमिहीन

काशी पंडित, उम्र-100 साल
    रेवरा निवासी काशी पंडित मजदूर परिवार से हैं। उनके परिवार में करीब एक एकड़ जमीन है। करीब 100 वर्षीय काशी पंडित कहते हैं कि वह रेवरा आंदोलन के समय स्वामी सहजानंद सरस्वती के अनुयायी थे। वह जूल्मी जमींदार के खिलाफ गीत गाते थे। झंडा लेकर स्वामीजी के साथ घुमते थे। इस आंदोलन की खासियत कि मजदूर और किसान सभी भागीदार थे। 
    खेतों के बंटवारे में भी किसान और मजदूरों की भागीदारी रही। काशी पंडित के मुताबिक, रामधन सिंह और लखपत सिंह परिवार में सवा-सवा सौ विगहा जमीन थी। लेकिन उन परिवारों ने करीब 50-50 विगहा जमीन किसान और मजदूरों को दे दिय था। करीब 300 विगहा जमीन किसान और मजदूरों को बांटा गया था। रेवरा का कोई भी किसान और मजदूर भूमिहीन नही था। रेवरा सत्याग्रह सामाजिक न्याय का भी अनूठा उदाहरण रहा है। 

    
एकजुटता लाई थी रंग, आठ माह के आंदोलन में मिली सफलता
रामचंद्र सिंह, रेवरा, नवादा, उम्र-90
      वैसे तो, रेवरावासियों के संघर्ष की कहानी लंबी है। पर असल आंदोलन आठ माह की है। 90 वर्षीय रामचंद्र सिंह बताते हैं कि 1938-39 के आठ माह के किसान आंदोलन के आगे जमींदार को झुकना पड़ा था। स्वामीजी की अगुआई में रेवरा में सत्याग्रह हुआ था। देशभर से करीब 25 हजार किसान जुटे थे। खास कि आंदोलन के लिए भोजन की व्यवस्था भी आंदोलनकारी खुद जुटाते थे। इस आंदोलन में गांव का एक एक व्यक्ति साझीदार था।
       रामचंद्र सिंह कहते हैं कि महिलाएं भी रेवरा आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाईं। पुरूष जब कमजोर पड़ने लगते थे तब महिलाएं आगे आने के लिए उन्हें प्रेरित करती थी। यही नहीं, जमींदार के कारिंदे और ब्रिट्शि अधिकारियों का अत्याचार जब बढ़ गया, पुरूष भागने को मजबूर हो गए तब महिलाएं लड़ाई में कूद गईं। आखिर में ब्रिट्रिश अधिकारियों और जमींदार के कारिंदे पीछे लौटने पर मजबूर हो गए थे।

क्या है रेवरा आंदोलन,
          रेवरा के ग्रामीण जमींदार और उनके कारिंदे के अत्याचार से त्रस्त थे। स्वामी सहजानन्द ने ‘अपनी जीवन संघर्ष’ और ‘किसान कैसे लड़ते हैं’ नामक पुस्तक में जमींदारों के अत्याचार की कहानियों का जिक्र किया है। गांव के करीब 1500 विगहा जमीन को साम्बे के स्थानीय जमींदार रामेश्वर प्रसाद सिंह बगैरह ने नीलाम करवा ली थी। लिहाजा, गांव के पांच छः सौ व्यक्ति चिथरा पहने भूखो मरते थे। जमींदार मनमाना लगान वसूल रहे थे। लिहाजा, किसानांे की जमीन नीलाम हो गई थी। 
          जमींदारों के जुल्मांे सितम से परेशान रेवरावासी जमींदार, मजिस्ट्रेट, मंत्रियों और लीडरो के पास दौड़ लगाते थक गए थे। किसी ने मदद नही की। तब किसानों ने पंडित यदुनन्दन शर्मा का हाथ पकड़ा। फिर स्वामीजी का साथ मिला। उसके बाद आंदोलन व्यापक आकार ले लिया था। इसमें राहुल सांकृतायन, ब्रह्मचारी बेनीपुरी ने किसानों का पूरा साथ दिया था। आखिर में तत्कालीन कलक्टर हिटेकर को समझौता करना पड़ा था। करीब डेढ़ सौ विगहा छोड़कर बाकी जमीन किसानों और मजदूरों में बांट दी गई थी। किसानों के सत्याग्रह के कारण रेवरा देश के अन्य किसानों का प्रमुख तीर्थ बना था।

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