Tuesday 19 April 2016

संस्था नही लेना चाहता था दाखिला, लेकिल ग्रेसी ने राज्य में किया धमाल

अशोक प्रियदर्शी
 बात एक दशक पहले की है। एक निजी स्कूल का वार्षिकोत्सव था। तब ग्रेसी तीन साल की थी। वह कत्थक नृत्य से सबकों चकित कर दिया था तब ग्रेसी के मम्मी पापा की खूब तारीफ हुई थी। फिर जिला प्रशासन के एक कार्यक्रम में भी धूम मचा दी थी। इससे उत्साहित उससे माता पिता ग्रेसी को कत्थक डांस की शिक्षा दिलाने का निर्णय लिया। लेकिन वहां ग्रेसी की प्रतिभा आड़े आ गई। 
       

अनिता कुमारी बताती हैं कि सांस्कृतिक संस्था उनकी बेटी का दाखिला नही लेना चाहता था। चूकि ग्रेसी के कारण उस संस्था के एक बड़े कलाकार का कद छोटा हो गया था। लिहाजा, संस्था नेक ग्रेसी के दाखिला के पहले कई तरह की शर्तें लगा दी। बावजदू ग्रेसी का दाखिला कराया। ग्रेसी कत्थक नृत्य में रम गई थी। लेकिन पक्षपातपूर्ण बर्ताव के कारण एक साल बाद संस्था को छोड़ना पड़ा।
         ताज्जुब कि ग्रेसी जिद नही छोड़ी। लिहाजा, उसके माता पिता ने ग्रेसी के लिए अलग से टीचर की व्यवस्था की। गया के एक संगीत टीचर माह में चार दिन नवादा आते थे। इसके लिए गाड़ी किराया के अलावा 1100 रूपए अदा करना पड़ता था। फिर बिरजू महाराज के शिष्यों का भी मार्गदर्शन ले रही है। संजीव परिहस्त माह में दो बार पटना आकर ग्रेसी को सिखाते हैं। वहीं महाराज की शिष्या सरस्वती दीदी से दिल्ली में ग्रेसी मार्गदर्शन लेती हैं।

13 साल की उम्र में बड़ी पहचान
जिद का नतीजा कि 13 साल की उम्र में ग्रेसी को बड़ी पहचान मिली है। राजगीर महोत्सव में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ग्रेसी को तारीफ कर चुके हैं। ग्रेसी 22 मार्च को पटना में आयोजित बिहार दिवस के कार्यक्रम में कत्थक नृत्य प्रस्तुत की। इसमें बड़े कलाकारों के बीच प्रस्तुति दी। यही नहीं, बोधगया महोत्सव में ग्रेसी अंतरराष्ट्रीय कलाकारों के बीच अपनी छाप छोड़ी। कला संस्कृति और युवा विभाग द्वारा आयोजित शुक्रगुलजार में दमदार प्रस्तुति दी।
        बिहार सरकार के पर्यटन विभाग से आयोजित होनेवाले राजगीर महोत्सव में 2009 से 2014 तक ग्रेसी सम्मानित होती रही। 2013 में सोनपुर तथा 2011 और 2013 में कुण्डलपुर में सम्मानित हुई। 2013 में किलकारी पटना ने बालश्री सम्मान से सम्मानित किया। कृषि विभाग के बिहार वाटरशेड डेवलपमेंट सोसायटी पटना में आयोजित कार्यक्रम में मुख्य कलाकार के रूप में सम्मानित। नवादा जिला प्रशासन द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में लगातार आठ साल सम्मानित।
सानिध्य- तीजन बाई, शोभना नारायण, मालिनी अवस्थी, प्रीतम चक्रवर्ती, शान, तृप्ति शाकिया, अलका यागनिक, देवी जैसी कलाकारों के बीच ग्रेसी मंच साझा कर चुकी है। 

ग्रेसी का परिचय
नवादा न्यू एरिया निवासी ग्रेसी के पिता संगीत कुमार इंजीनियर हैं। मां अनिता गृहणी हैं। ग्रेसी नौवीं कक्षा की स्टुडेंट है। वह कत्थक डांस और वोकल क्लासेज में प्रथम श्रेणी से तृतीय वर्ष उतीर्ण है। अनिता कहती हैं कि उन्हें बचपन से संगीत से लगाव रहा है। लेकिन घरेलू जिम्मेवारियों के कारण बहुत नही कर पाई। ग्रेसी को छोटे उम्र से सिखाने लगी। ग्रेसी में जब यह ललक दिखी तब उसे पूरा करने में मेरी खुशी शामिल हो गई है। ग्रेसी कहती है कि राष्ट्रीय स्तर पर अपना नाम स्थापित करना है।

Sunday 17 April 2016

रजरप्पा मंदिर होकर जाता है शराब का रास्ता

 अशोक प्रियदर्शी
            सड़क दुर्घटनाओं के कारण देवौर खूनी घाटी के रूप में जाना जाता रहा है। लेकिन बिहार में शराबबंदी के बाद देवौर का इलाका शराब मंडी का स्वरूप अख्तियार कर रहा है। बिहार की सीमा से करीब 500 गज की दूरी पर झारखंड के कालीमंडा में शराब की नई दुकान खुल रही है। इसकी तैयारी कर ली गई है। माल आवंटित होने का इंतजार है। लेकिन अवैध रूप से देसी-विदेशी की शराब की आपूर्ति हो रही है। गौरतलब हो कि देवौर घाटी झारखंड और बिहार को जोड़ती है। इसका करीब 20 किलोमीटर की परिधि है। इसका आधा हिस्सा बिहार और आधा हिस्सा झारखंड में है। 
            झारखंड से बिहार के जंगल और पठारी इलाका के जरिए बड़े पैमाने पर शराब की आपूर्ति हो रही है। टैंकलोरी, कोयला, गिटटी ढोनेवाले वाले वाहनों के जरिए शराब की आपूर्ति हो रही है। तीन दिन पहले यात्री बस से बैग में शराब लेकर आ रहे फतेहपुर निवासी पिंटू और गौतम को गिरफ्तार किया गया। बताया जाता है कि शराब कारोबारी जंगली इलाका के नक्सली से संपर्क में आ गए हैं। जिनके जरिए शराब मंगा रहे हैं। यह शराब खेतों में गाड़कर रखा जा रहा है। 
          यही नहीं, शराबबंदी के बाद शराबियों का एक वर्ग रजरप्पा मंदिर का रूख कर दिया है। नवादा नगर के एक शख्स बताते हैं कि एक पखवारा में दो बार रजरप्पा मंदिर हो आए हैं, जहां शराब पीने पर कोई पाबंदी नही है। रजरप्पा मंदिर में बकरे की बली होती है। जहां मांस के साथ शराब पीते हैं। देवघर, गिरिडीह और कोडरमा जानेवालों की तादाद बढ़ गई है। बासोडीह से भी नवादा में शराब की आपूर्ति हो जा रही है। झारखंड का इलाका शराबियों के लिए ‘तीर्थस्थल’ बनकर उभर रहा है।
         दरअसल, नवादा जिले का इलाका झारखंड से बेहद करीब है। जंगल और पठारी होने के चलते पुलिस भी लचर साबित होती है। रजौली से 25 किलोमीटर की दूरी पर कोडरमा और 33 किलोमीटर की दूरी पर झुमरी तिलैया है। कोडरमा से दो किलोमीटर पहले बागीटांड है। इन स्थानों पर लोग सहजता से शराब पी ले रहे हैं। उसके बाद वापस बिहार आ जा रहे हैं। जिले में महुआ शराब की खपत भी बढ़ गई है। 
         नशा के नये नये प्रयोग कर रहे हैं। रजौली के पसरैला में स्प्रिट से शराब बनाया गया था। इसे ग्रामीण मनोज राम को टेस्ट के लिए दिया गया था। लेकिन उसके आंख की रोशनी चली गई। उसके बाद उसकी मौत हो गई। इस सिलसिले में शराब निर्माता रंजीत सिन्हा के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई गई है।
 
जंगली इलाका महुआ शराब निर्माण का सुरक्षित ठिकाना
नवादा जिले के रजौली, सिरदला, गोविंदपुर और कौआकोल के जंगली और पठारी इलाका अवैध शराब निर्माण के लिए ख्यात रहा है। बताया जाता है कि स्थल बदल गया है। लेकिन शराब निर्माण का धंधा बंद नही हुआ है। फुलवरिया जलाशय के उसपार का इलाका काफी ख्यात है। चुनाव के समय में भी पुलिस इस इलाका में नही जाते। यही कारण है कि इन इलाकों में सरकारी दुकान भी कम आवंटित होती थी। 134 दुकानें स्वीकृत थी, लेकिन 80 दुकानें ही चलती थी। 


क्या कहते हैं उत्पाद अधीक्षक 
 उत्पाद अधीक्षक प्रेम कुमार कहते हैं कि झारखंड के सीमावर्ती नवादा जिले में निगरानी पर विशेष नजर रखी जा रही है। पुलिस वाहनों की जांच कर रही है। इसमें पकड़े जानेवालों के खिलाफ कार्रवाई की जा रही है। शराबबंदी अभियान को सफल बनाना विभाग की प्राथमिकता है।
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Wednesday 13 April 2016

हमारे बुजुर्ग-मुश्किलें आईं, पर धीरज रखा और जिंदगी हो गई खुशहाल


डाॅ अशोक प्रियदर्शी
दयमन्ती देवी और प्रीति प्रीतम 
चौदह  साल पहले की कहानी है। पश्चिम चंपारण के सुदामा नगर निवासी सत्यनारायण भगत सिचाई विभाग से रिटायर हुए थे। रिटायरमेंट के दो साल बाद भगत की आकस्मिक मौत हो गई। भगत के निधन के बाद दयमंति देवी अकेली पड़ गई थी। दयमंति टूट चुकी थी। उन्हें बाकी जीवन अंधकारमय दिख रहा था। उनपर तीन बेटियांे नीतू, प्रिया और प्रीति प्रितम की जिम्मेवारी थी। बेटियां छोटी थी। सभी पढ़ाई कर रही थी।
दयमंति बताती है कि अकेलापन काफी कष्टकर था। मुश्किल की समाज के सामने इसका इजहार भी नही कर सकती थी। क्योंकि इसका इजहार से उपहास ही उड़ाया जाता। ऐसे में खुद को काबू में की। थोड़ी साहस बटोरी। फिर बच्चों की खुशियों में अकेलापन का निदान ढूढ़ने लगी। बेटियों ने भी साथ दिया। लिहाजा, तीनों बेटियां जाॅब कर रही है। दो बेटियों की शादी भी कर दी हूं।
     खासबात कि अब जब कभी अकेला महसूस करती हूं बेटियां उसे दूर करने की हर मुमकीन कोशिश करती हैं। फिर भी परेशानियां जब महसूस करती हूं, पति का अभाव खटकता है। चूंिक पति और पत्नी के बीच हर तरह की बातें होती है, जिसमें निदान भी छिपा होता है। ऐसे में धैर्य और साहस से उस कमी को दूर करने की कोशिश करता हूं।
दयमंति अकेली ऐसी महिला नही हैं। बिहार के नवादा जिले के नवीन नगर की 65 वर्षीय गीता कुमारी भी ऐसा ही मिसाल हैं। वह भी अकेलापन से तालमेल बिठाकर जिंदगी की राह आसान की है। 1997 में गीता देवी के पति शशि मोहन प्रसाद सिन्हा की हत्या कर दी गई थी। वह सिनेमा हाॅल में एकाउंटेंट थे। तब से गीता देवी अकेली हो गई थीं। हालांकि वह स्कूल टीचर थीं। तब वेतन भी कम थी। जमीन जायदाद नही थी। लेकिन जवाबदेही बड़ी थी। 
       गीता देवी की तीन बेटियां अंजू, अर्चना और अमिता और एक पुत्र अजय था। सभी छोटे थे। अकेलापन से उबरने के लिए साहस जुटाई। वह कहतीं हैं कि पति की कमी को भुलाया नही जा सकता, लेकिन बच्चों के साथ भागीदारी बढ़ाकर अकेलेपन के गैप को पाटने की कोशिश करती रहीं। लिहाजा, तीनों बेटियां बैंक में बड़े अधिकारी है। बेटा भी कंपीटिशन की तैयारी कर रहा है। बच्चों की सफलता से काफी सुकुन मिलता है।

बच्चों से लगाया दिल, मिट गया अकेलापन
       अकेलापन में अवसाद की जिंदगी जी रहे बुजुर्गों के लिए गया जिले के धौकल विगहा (अतरी) निवासी मंगर यादव मिसाल है। वह सौ साल पूरे कर चुके हैं। लेकिन उनकी पत्नी पारो देवी की मौत 35 साल पहले हो चुकी है। वह किसान हैं। गौपालन करते हैं। पढ़े लिखे नही हैं। फिर भी अकेलापन से बेहतर तालमेल बिठाए हैं। इस उम्र में भी घरेलू कामों में हाथ बंटाते हैं। बाकी समय बच्चों के साथ बिताते हैं।
         मंगर यादव कहते हैं कि ऐसा नही कि पारो की याद नही आती। उसे भूला नही जा सकता। नही उसकी कमी पूरा हो सकता है। 15 साल की आयु से उसका साथ मिला था। लेकिन दर्द भूलने में भलाई है। दिल की बात को जुबां पर लाने से परेशानियां बढ़ेगी और जीवनशैली प्रभावित होगी। इसलिए बच्चों क साथ अकेलापन मिटाने की कोशिश करता हूं। यही वजह है कि वह अपने तीन पीढ़ियों को एक साथ देख पा रहे हैं।

रेडियो और अखबार को बनाया अकेलापन का साथी
अकबरपुर प्रखंड के पहाड़पुर निवासी 85 वर्षीय रामस्वरूप सिंह अकेलापन को पाटने के लिए रेडियो और अखबार को जरिया बना रखे हैं। वह नियमित रूप से अखबार और रेडियो सुनते हैं। इसके जरिए देश व समाज की घटनाओं की जानकारी रखते हैं। बाकी समय बच्चों के साथ बिताते हैं। डेढ़ दशक पहले उनकी पत्नी कौशल्या देवी की मौत हो चुकी है।
          रामस्वरूप सिंह का दापंत्य जीवन खुशहाल माना जाता था। उन्हें चार बेटे और तीन बेटियां है। उनका मानना है कि परिस्थितियों के साथ समझौता कर चलना ही मनुष्य की बुद्धिमानी है। मिथिलेश सिंह कहते हैं कि मां के श्राद्धकर्म जब हो गया था तब पिताजी बोले थे कि अब मुश्किल होगा दुख सुख की बातें करना। लेकिन उसके बाद वह कभी जुबां पर दर्द को छलकने नही दिए।

एकल बुजुर्ग का जीवन वागवान के पात्रों से भी प्रतिकूल 
एकल बुजुर्गों के समक्ष वागवान फिल्म के पात्रों से भी प्रतिकूल परिस्थितियां है। फिल्म में अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी बेटों के गलत निर्णय से अलग-अलग रहने को बाध्य हो गए थे। हालांकि अमिताभ दंपति के बीच फोन पर बातें होती थी। मिलने की उम्मीद भी बची थी। लेकिन अलगाव के दर्द से दोनों दुखी रहते हैं। स्टोरी के क्लाइमेक्स में दोनों साथ रहने लगते हैं। लेकिन एकल बुजुर्ग के पास स्थिति उससे भी विषम है। फिर भी कई ऐसे बुजुर्ग हैं जो बेहतर जीवन जीने का संदेश दे रहे हैं।

क्या कहते हैं मनोवैज्ञानिक -
डाॅ.निधि श्रीवास्तव 
           मनोवैज्ञानिक डाॅ.निधि श्रीवास्तव कहती हैं कि बुढ़ापे में पति या पत्नी के बिछुड़ जाने से लोग अवसाद में चले जाते हैं। निराश हो जाते हैं। क्योंकि बच्चे भी खुद के घर गृहस्थी में उलझ जाते हैं। बुजुर्गों का हालचाल नही ले पाते। ऐसे में बुजुर्गों को सकारात्मक बदलाव लाने की जरूरत है। एकल बुजुर्ग को अपने रूटीन में रूचिकर कार्याें को शामिल कर लेना चाहिए। बच्चों से लगाव काफी मददगार साबित होता है। वह कहती हैं कि बुजुर्ग के जीवनसाथी के असमय बिछुड़ जाने से सर्वाधिक परेशानी पुरूषों को होती है। महिलाएं को आर्थिक परेशानियां होती है। लेकिन वह घरेलू कार्यों और बच्चों से लगाव से कम कर लेती हैं। लेकिन पुरूष को तालमेल बिठाने में काफी समय लग जाता है।


Monday 11 April 2016

बिहार-पूर्ण शराबबंदी ऐतिहासिक लेकिन कठिन फैसला

 अशोक प्रियदर्शी
  बिहार में पूर्ण शराबबंदी की घोषणा एक ऐतिहासिक फैसला है। विगत 5 अप्रैल को बिहार सरकार के निर्णय के बाद से बिहार के शहरी और देहाती इलाका में सभी तरह के शराबों की बिक्री पर पाबंदी लग गई है। पांच दिनों के अंतराल में यह दूसरा निर्णय है। पहली अप्रैल से देसी शराब की बिक्री पर पाबंदी लगाई गई थी। लेकिन सिर्फ देसी शराब की बिक्री पर पाबंदी से शराब बंदी के औचित्य पर सवाल उठाए जा रहे थे। लिहाजा, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने साहसिक कदम उठाते हुए पांच अप्रैल से विदेशी शराबों की बिक्री पर भी प्रतिबंध लगा दी है।
         नीतीश कुमार के इस कदम की काफी सराहना की जा रही है। जाहिर तौर पर सराहना की वजह है। शराब के चलते सैकड़ों परिवार बर्बाद हो गए हैं। महिलाएं को ज्यादा परेशानियां थी। शराबियों के आतंक से महिलाएं घर और बाहर आतंकित रहती थी। गरीब परिवार आर्थिक परेशानियों से जूझ रहे थे। लिहाजा, सरकार के इस फैसले का सबसे ज्यादा तारीफ महिलाएं कर रही है।
          वह इसलिए कि महिलाओं की मांग पर ही राज्य में शराबबंदी लागू की गई है। विगत 9 जुलाई 2015 को पटना में आयोजित ग्रामवार्ता में जीविका से जुड़ी महिलाओं ने शराबबंदी का मुददा उठाई थी। तब नीतीश कुमार महिलाओं को आश्वस्त किया था कि नई सरकार गठन के बाद शराबबंदी लागू कर दी जाएगी। ताज्जुब कि सरकार गठन के कुछ दिन बाद से ही शराबबंदी की प्रक्रिया शुरू कर दी गई। चार माह बाद इसे लागू कर दी गई।
         हालांकि राज्य सरकार पहले चरण में देसी और दूसरे चरण में विदेशी शराब पर पाबंदी का फैसला ली थी। लेकिन विपक्षी दल इसे सस्ती लोकप्रियता करार दे रहे थे। आश्चर्यजनक रूप से चार दिनों बाद पूर्ण शराबबंदी की घोषणा कर दी गई। इसे विपक्षी दलों ने भी स्वागत किया। भाजपा के वरिष्ठ नेता सुशील कुमार मोदी ने कहा कि भाजपा के दवाब में ऐसा निर्णय लिया गया है। पार्टी राज्य सरकार के इस निर्णय में पूरा सहयोग करेगी।
        बहरहाल, असल सवाल सरकारी फैसले पर अमल करने को लेकर है। देखें तो, शराबबंदी पर बिहार का पिछला रिकाॅर्ड अच्छा नही रहा है। 1977 में जननायक कर्पूरी ठाकुर ने शराब पर पाबंदी लगाई थी। लेकिन शराब की कालाबाजारी और कई अन्य परेशानियों की वजह से यह पाबंदी ज्यादा दिनों तक नही रही। लिहाजा, खुलेआम शराब की बिक्री जारी है।
        बिहार अकेला ऐसा राज्य नही है जहां शराबबंदी में निराशा हाथ लगी है। हरियाणा, आंध्रप्रदेश और मिजोरम में शराबबंदी हुई थी। लेकिन यहां भी शराबबंदी कारगर नही हो पाई। अब इन राज्यों में शराब की बिक्री होती है। हालांकि गुजरात, नागालैंड, लक्ष्यद्वीप के अलावा मणिपुर के कुछ हिस्सों में शराब बिक्री पर पाबंदी है। यही नहीं, केरल में 30 मई 2014 के बाद से शराब दुकानों को लाइसेंस मिलना बंद हो गया है। इसका उदेश्य है कि पांच सालों में पूर्ण पाबंदी लागू कर दी जाएगी।
         शराबबंदी में गुजरात की खूब चर्चा होती है। हालांकि यहां भी शराब की कालाबाजारी की शिकायतें मिलती रही है। सरकारी स्तर पर 61 हजार 535 शराब के आदी है। लेकिन इसके अलावा भी बड़ी आबादी है जो शराब का सेवन करते हैं। बताया जाता है कि गुजरात में प्रत्येक साल शराब का करीब 400 करोड़ रूपए का अवैध कारोबार होता है। फिर भी बाकी राज्यों से बेहतर है। बता दें कि गुजरात में 1960 से शराबबंदी है। इसके लिए केन्द्र सरकार हरेक साल 100 करोड़ रूपए मदद भी करती है।
         बात बिहार की करें तो दक्षिण में झारखंड जबकि उतर में भारत का पड़ोसी देश नेपाल में शराब की छूट है। इसके अलावा उतर प्रदेश, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों का सीधा संपर्क बिहार से है। इन राज्यों में शराब की पाबंदी नही है। ऐसे में शराब के कालाबाजारी का खतरा यहां भी कम नही है। उत्पाद विभाग के पास पुलिस बल की भी कमी रही है। वैसे, उत्पाद विभाग ने राज्य के गृह विभाग से करीब 2000 सैप जवान की मांग की है। फिलहाल, 470 सैप और 4000 होमगार्ड उपलब्ध कराए गए हैं। 
         दूसरी तरफ, एक हालिया सर्वे के मुताबिक, राज्य में करीब 29 फीसदी लोग शराब का सेवन करते हैं। इसमें 0.2 फीसदी महिलाएं भी शामिल है। आकड़े के हिसाब से देखें तो राज्य में करीब साढ़े तीन करोड़ लोग शराब का सेवन करते हैं। इसमें 40 लाख लोग ऐसे हैं जो आदतन शराबी हैं। आकड़े के मुताबिक, बिहार में सलाना 990.30 लाख लीटर शराब की खपत होती रही है। 
        दरअसल, बिहार में नई उत्पाद नीति से शराब कारोबार व्यापक आकार लिया है। जुलाई 2006 में मिलावटी शराब से हानि, बीमारी और मौतों को रोकने के उदेश्य से नई उत्पाद नीति बनी थी। 2005-06 में 295 करोड़ आमदनी थी, जो 2014-15 में 3220 करोड़ रूपए पहुंच गई। यही आमदनी 2015-16 में करीब 4000 करोड़ पहुंच गया। राज्य में 5967 दुकानें स्वीकृत थी। लेकिन देसी शराब की बंदी के बाद 650 विदेशी शराब की दुकानें खुलनी थी। चार दिनों में 132 विदेशी शराब की दुकानें खुल गई थी। लेकिन सरकारी घोषणा के बाद इसे भी बंद कर दिया गया है।
        हालांकि राज्य में ताड़ी की बिक्री पाबंदी से अलग है। वैसे 1991 से सार्वजनिक स्थल पर ताड़ी बिक्री पर पाबंदी थी। इसे और भी प्रभावी बनाने की बात कही गई है। ताड़ी की दुकानें सार्वजनिक स्थानों, हाट बाजार के प्रवेश द्वार, फैक्ट्री, पेट्रोल पंप, श्रमिक बस्ती, अस्पतालों, स्टेशन, बस पड़ाव और शहरी आबादी से 50 मीटर के दायरे में नही रहेगी। एससी/एसटी तथा झुग्गी बस्ती और सघन आबादी वाले इलाका में ताड़ी बिक्री नही होगी। 
        गौर करें तो, ताड़ी पीने के मामले में आंध्रप्रदेश पहले पायदान पर है। जबकि असम, झारखंड के बाद बिहार के लोग सर्वाधिक ताड़ी पीते हैं। आंध्रप्रदेश में प्रति माह 12.10 रूपए जबकि बिहार 3.54 रूपए प्रति व्यक्ति ताड़ी में खर्च करते हैं। ऐसे में शराब और ताड़ी में फर्क कर पाना प्रशासन के लिए चुनौती है। बहरहाल, शराब की पूर्ण पाबंदी स्वागत योग्य है। ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि सरकार इसमें कितना सफल हो पाती है।

शराबियों के प्रतिकार में यमुना पर हुआ 60 मुकदमा, लेकिन नही माने हार


अशोक प्रियदर्शी
बात पिछले साल की है। नवादा के ककोलत जलप्रपात में स्नान करने के लिए पटना से चार-पांच लोग आए थे। उनसबों ने शराब पी ली। उसके बाद अश्लील हरकत करने लगे। तब एक महिला के परिवार ने प्रतिकार किया। इसपर उलझ गए। यमुना बीच बचाव करने पहुंचा। बुरी तरह उलझ गए।  शराबियों ने पिस्टल निकालरक फायरिंग कर दिया। यमुना ने पुलिस को सूचना दे दी। लिहाजा, पुलिस उनसबों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। लेकिन उनसबों ने यमुना पर भी मुकदमा कर दिया। 
  शराबियों का प्रतिकार के कारण यमुना के खिलाफ यह पहला मुकदमा नही है। 38 वर्षीय यमुना कहते हैं कि शराबियों के प्रतिकार के कारण पिछले 20 साल की अवधि में पांच दर्जन से अधिक मुकदमा दर्ज हुआ। हालांकि कोर्ट और पुलिस उन्हें जान गई है इसलिए उनके खिलाफ दर्ज ज्यादातर मुकदमा खत्म हो गए। अब तीन मुकदमा शेष रह गए हैं। सभी मुकदमा शराब पीकर हंगामा करनेवालों के प्रतिकार के कारण दर्ज हुआ था। हर साल औसतन तीन-चार मुकदमा दर्ज होते रहे हैं। लेकिन शराब बंदी से राहत दिख रही है।
         मुश्किल कि ज्यादातर मुकाबला जनप्रतिनिधि, अधिकारी और उधोगपतियों के पुत्रों और सागिर्दाें से होती रही है। यमुना कहते हैं कि झूठा आरोप से मन विचलित होने लगता था। लेकिन प्रकृति की ताकत थी कि उन्हें हौसला नही खोने दिया। वह कहते हैं कि ककोलत की प्रकृति से लगाव है। वह चाहते हैं कि ककोलत की प्रतिष्ठा के खातिर ककोलत की सेवा कर रहे हैं।


शराबियों के प्रतिकार में गंवानी पड़ी थी नौकरी
        यमुना को शराबियों के प्रतिकार में चैकीदार की नौकरी भी गंवानी पड़ी। 1998 में एक जज के पुत्र को शराब पीकर अश्लील हरकत करने का विरोध किया। प्रतिक्रिया में यमुना को जेल भेज दिया गया। 113 दिन जेल काटनी पड़ी थी। नौकरी भी खत्म कर दी गई थी। हालांकि यमुुना अब आरोप से बरी हो गया है।

पुरस्कार में मिली थी नौकरी
        ककोलत में डूबे लोगों को बचाने के पुरस्कार के तौर पर तत्कालीन डीएम केके महतो और एसपी वसीर अहमद ने यमुना को चैकीदार की नौकरी दी थी। यमुना ककोलत में डूबे 96 सैलानियों को मरने से बचा चुका है। बहरहाल, यमुना को नवादा जिला प्रशासन ने एसपीओ के रूप में बहाल किया है। दरअसल, ककोलत पठारी और जंगली इलाका में है। नक्सल इलाका के कारण प्रशासन दूरी रखता है। लेकिन गरमी में काफी सैलानी पहुंचते हैं। लिहाजा, यमुना बतौर केयर टेकर सैलानियों की मदद करता है।

ककोलत से यमुना का अटूट नाता
 ककोलत से यमुना का अटूट नाता रहा है। यमुना जब 12 साल का था। तब ककोलत में स्नान करने के दौरान एक युवक डूब गया था। तब यमुना 80 फीट खाई से युवक को जिंदा निकाला था। उसके बाद से यमुना का नाम ट्रबल सूटर के रूप में लिया जाने लगा। दरअसल, ककोलत में बड़ी खाई थी। उसमें खोह था। इसमें लोग फंस जाते थे। लेकिन यमुना निकालने में कामयाब हो जाता था। हालांकि वह खडड अब भराया जा चुका है।

कौन है यमुना पासवान
यमुना पासवान नवादा जिले के गोविंदपुर थाना के एकतारा का निवासी है। उसके पिता रामू पासवान जब जीवित थे तभी इंदिरा आवास और भूदान में एक एकड़ जमीन मिली थी। उसी जमीन से यमुना के परिवार का परवरिश होता है। यमुना की तीन बेटे और दो बेटियां है। बहरहाल, यमुना 40 सदस्यीय कमेटी बनाया है। यह कमेटी स्थानीय स्तर पर सुविधा उपलब्ध कराता है। 

Thursday 7 April 2016

बिहार में पूर्ण शराबबंदी: ऐतिहासिक लेकिन कठिन फैसला


समाज

  |  5-मिनट में पढ़ें |   07-04-2016

पूर्ण शराबबंदी के नीतीश कुमार के इस कदम की काफी सराहना की जा रही है, महिलाएं बेहद खुश हैं. हालांकि शराबबंदी पर बिहार के पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए ये कहना मुश्किल है कि ये पाबंदी कितने दिनों तक रह पाएगी.

बिहार में पूर्ण शराबबंदी की घोषणा एक ऐतिहासिक फैसला है. विगत 5 अप्रैल को बिहार सरकार के निर्णय के बाद से बिहार के शहरी और देहाती इलाके में सभी तरह के शराबों की बिक्री पर पाबंदी लग गई है. पहली अप्रैल से देसी शराब की बिक्री पर पाबंदी लगाई गई थी, लेकिन सिर्फ देसी शराब की बिक्री पर पाबंदी से शराब बंदी के औचित्य पर सवाल उठाए जा रहे थे. लिहाजा, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने साहसिक कदम उठाते हुए पांच अप्रैल से विदेशी शराबों की बिक्री पर भी प्रतिबंध लगा दिया है.
नीतीश कुमार के इस कदम की काफी सराहना की जा रही है. जाहिर तौर पर सराहना की वजह भी है. शराब के चलते सैकड़ों परिवार बर्बाद हो गए हैं. महिलाओं को ज्यादा परेशानियां थीं. शराबियों के आतंक से महिलाएं घर और बाहर आतंकित रहती थीं. गरीब परिवार आर्थिक परेशानियों से जूझ रहे थे. लिहाजा, सरकार के इस फैसले का सबसे ज्यादा तारीफ महिलाएं ही कर रही हैं. गौरतलब है कि महिलाओं की मांग पर ही राज्य में शराबबंदी लागू की गई है. विगत 9 जुलाई 2015 को पटना में आयोजित ग्रामवार्ता में जीविका से जुड़ी महिलाओं ने शराबबंदी का मुददा उठाया था. तब नीतीश कुमार महिलाओं को आश्वस्त किया था कि नई सरकार गठन के बाद शराबबंदी लागू कर दी जाएगी. सरकार गठन के कुछ दिन बाद से ही शराबबंदी की प्रक्रिया शुरू कर दी गई और चार महीने बाद इसे लागू कर दिया गया.
हालांकि राज्य सरकार ने पहले चरण में देसी और दूसरे चरण में विदेशी शराब पर पाबंदी का फैसला लिया था. लेकिन विपक्षी दल इसे सस्ती लोकप्रियता करार दे रहे थे. आश्चर्यजनक रूप से चार दिनों बाद पूर्ण शराबबंदी की घोषणा कर दी गई. इसका विपक्षी दलों ने भी स्वागत किया.
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पूर्ण शराबबंदी के फैसले से महिलाएं बोहद खुश है. राष्ट्रीय महिला ब्रिगेड के सदस्य खुशियां मनाते हुए
बहरहाल, असल सवाल सरकारी फैसले पर अमल करने को लेकर है. देखें तो, शराबबंदी पर बिहार का पिछला रिकॉर्ड अच्छा नहीं रहा है. 1977 में जननायक कर्पूरी ठाकुर ने शराब पर पाबंदी लगाई थी. लेकिन शराब की कालाबाजारी और कई अन्य परेशानियों की वजह से यह पाबंदी ज्यादा दिनों तक नहीं रही. लिहाजा, खुलेआम शराब की बिक्री जारी रही.
बिहार अकेला ऐसा राज्य नही है जहां शराबबंदी में निराशा हाथ लगी थी. हरियाणा, आंध्रप्रदेश और मिजोरम में शराबबंदी हुई थी. लेकिन यहां भी शराबबंदी कारगर नहीं हो पाई. अब इन राज्यों में शराब की बिक्री होती है. हालांकि गुजरात, नागालैंड, लक्ष्यद्वीप के अलावा मणिपुर के कुछ हिस्सों में शराब बिक्री पर पाबंदी है. यही नहीं, केरल में 30 मई 2014 के बाद से शराब दुकानों को लाइसेंस मिलना बंद हो गया है. इसका उदेश्य है कि पांच सालों में पूर्ण पाबंदी लागू कर दी जाएगी.
शराबबंदी में गुजरात की खूब चर्चा होती है. हालांकि यहां भी शराब की कालाबाजारी की शिकायतें मिलती रही हैं. एक बड़ी आबादी शराब का सेवन करती है. बताया जाता है कि गुजरात में प्रत्येक साल शराब का करीब 400 करोड़ रूपए का अवैध कारोबार होता है. फिर भी बाकी राज्यों से बेहतर है. बता दें कि गुजरात में 1960 से शराबबंदी है. इसके लिए केन्द्र सरकार हरेक साल 100 करोड़ रूपए मदद भी करती है.
बात बिहार की करें तो दक्षिण में झारखंड जबकि उतर में भारत का पड़ोसी देश नेपाल में शराब की छूट है. इसके अलावा उतर प्रदेश, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों का सीधा संपर्क बिहार से है. इन राज्यों में शराब की पाबंदी नहीं है. ऐसे में शराब के कालाबाजारी का खतरा यहां भी कम नहीं है. उत्पाद विभाग के पास पुलिस बल की भी कमी रही है. वैसे, उत्पाद विभाग ने राज्य के गृह विभाग से करीब 2000 सैप जवान की मांग की है. फिलहाल, 470 सैप और 4000 होमगार्ड उपलब्ध कराए गए हैं. दूसरी तरफ, एक हालिया सर्वे के मुताबिक, राज्य में करीब 29 फीसदी लोग शराब का सेवन करते हैं. इसमें 0.2 फीसदी महिलाएं भी शामिल हैं. आंकड़े के हिसाब से देखें तो राज्य में करीब साढ़े तीन करोड़ लोग शराब का सेवन करते हैं. इसमें 40 लाख लोग ऐसे हैं जो आदतन शराबी हैं. आंकड़ों के मुताबिक, बिहार में सलाना 990.30 लाख लीटर शराब की खपत होती रही है.
दरअसल, बिहार में नई उत्पाद नीति से शराब कारोबार ने व्यापक आकार लिया है. जुलाई 2006 में मिलावटी शराब से हानि, बीमारी और मौतों को रोकने के उदेश्य से नई उत्पाद नीति बनी थी. 2005-06 में 295 करोड़ आमदनी थी, जो 2014-15 में 3220 करोड़ रूपए पहुंच गई. यही आमदनी 2015-16 में करीब 4000 करोड़ पहुंच गई. राज्य में 5967 दुकानें स्वीकृत थीं. लेकिन देसी शराब की बंदी के बाद 650 विदेशी शराब की दुकानें खुलनी थी. चार दिनों में 132 विदेशी शराब की दुकानें खुल गई थीं. लेकिन सरकारी घोषणा के बाद इसे भी बंद कर दिया गया है.
हालांकि राज्य में ताड़ी की बिक्री पाबंदी से अलग है. वैसे 1991 से सार्वजनिक स्थल पर ताड़ी बिक्री पर पाबंदी थी. इसे और भी प्रभावी बनाने की बात कही गई है. ताड़ी की दुकानें सार्वजनिक स्थानों, हाट बाजार के प्रवेश द्वार, फैक्ट्री, पेट्रोल पंप, श्रमिक बस्ती, अस्पतालों, स्टेशन, बस पड़ाव और शहरी आबादी से 50 मीटर के दायरे में नही रहेगी. एससी/एसटी तथा झुग्गी बस्ती और सघन आबादी वाले इलाका में ताड़ी बिक्री नहीं होगी. गौर करें तो, ताड़ी पीने के मामले में आंध्रप्रदेश पहले पायदान पर है. जबकि असम, झारखंड के बाद बिहार के लोग सर्वाधिक ताड़ी पीते हैं. आंध्रप्रदेश में प्रति माह 12.10 रूपए जबकि बिहार 3.54 रूपए प्रति व्यक्ति ताड़ी में खर्च करते हैं. ऐसे में शराब और ताड़ी में फर्क कर पाना प्रशासन के लिए चुनौती है. बहरहाल, शराब की पूर्ण पाबंदी स्वागत योग्य है. ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि सरकार इसमें कितना सफल हो पाती है.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.कॉम या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

लेखक

अशोक प्रियदर्शीअशोक प्रियदर्शी @ashok.priyadarshi.921
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

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बिहार में बारात लौटाती लड़कियां

बिहार: बेटियों ने दिखा दिया अपना दम

Monday 4 April 2016

जिस कुष्ठ अस्पताल में रोगी बनकर आये थे रामप्रवेश, अब उसी के भरोसे कुष्ठ अस्पताल की जिम्मेवारी


अशोक प्रियदर्शी
बात 40 साल पहले की है। बिहार के नालंदा जिले के कंचनपुर निवासी रामप्रवेश प्रसाद कुष्ठ रोगी था। कई जगह इलाज के बाद हार गए थे। उनसे गांव समाज के लोग छुआछूत करते थे। तभी एक परिचित ने उन्हें बताया था कि नवादा जिले के कौआकोल प्रखंड के कपसिया कुष्ठ अस्पताल में कुष्ठ रोगियों का इलाज किया जाता है। तब रामप्रवेश 16 साल के थे। कपसिया कुष्ठ अस्पताल में भर्ती हुए। तीन साल तक इलाज के बाद रामप्रवेश को काफी राहत मिल गई थी। अस्पताल में मुफ्त आवासीय इलाज की व्यवस्था थी। 
         अस्पताल उन्हें मुक्त कर दिया था। लेकिन रामप्रवेश गांव लौटने को राजी नही थे। वह कुष्ठ रोगियों की सेवा करना चाहते थे। लिहाजा, वह चिकित्सक के कामों में हाथ बंटाने लगे। उसने भभुआ गांधी कुष्ठ निवारण प्रतिष्ठान में डेढ़ साल तक ट्रेनिंग भी लिया। तब से वह लगातार कपसिया कुष्ठ अस्पताल में रोगियों की सेवा में जुटे हैं। चिकित्सक चन्द्रशेखर मिश्र की आकस्मिक निधन हो गया। उसके बाद से रामप्रवेश ही बतौर चिकित्सक रोगियों का इलाज करने लगे। यही नहीं, 2003 में जब भारत सरकार ने देश में कुष्ठ उन्मूलन की घोषणा कर दी तब से से इस अस्पताल को अनुदान मिलना भी बंद हो गया।
ताज्जुब कि उसके बाद भी रामप्रवेश ने अस्पताल से नाता नही तोड़ा। रामप्रवेश के अलावा जमुई के विष्णुदेव यादव और कौआकोल के नवल मांझी आज भी अस्पताल से जुड़े हैं। रामप्रवेश कहते हैं कि उनके साथ जैसा व्यवहार हुआ, वैसा व्यवहार दूसरे के साथ नही हो। इसलिए कुष्ठ प्रभावितों को सेवा करने में सकून मिलता है।

कुष्ठ रोगी से किया शादी, बच्चे को दिया अच्छा परवरिश
रामप्रवेश ने अस्पताल की एक कुष्ठ रोगी राजो देवी से शादी कर सामाजिक जीवन में भी मिसाल प्रस्तुत किया। परिवार के लोग इस शादी के खिलाफ थे। लेकिन रामप्रवेश ने इसका परवाह नही किया। रामप्रवेश तीन भाइयों में छोटे थे। लेकिन शादी के बाद से परिवार के लोग भी उनसे भेदभाव करने लगे हैं। हालांकि चार साल पहले पत्नी की मौत हो गई। रामप्रवेश को एक पुत्र भी है। उसका स्वस्थ्य लड़की से शादी हुई। पुत्रवधू शिक्षिका हैं। एक पौत्र भी है।

कब खुला था कुष्ठ अस्पताल
  आजादी के समय नवादा, गया, जमुई, लखीसराय, नालंदा, गिरिडीह के सुदूरवर्ती इलाका में कुष्ठ रोगियों की काफी तादाद थी। इसी को ध्यान में रखकर 1955 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने कपसिया में 40 बेड का अस्पताल स्थापित किया था। इसका  तत्कालीन राष्ट्रपति डाॅ राजेन्द्र प्रसाद ने उद्घाटन किया था। कुष्ठ रोगियों के इलाज और जागरूकता के लिए भारत सरकार अनुदान दिया करती थी। लेकिन 2003 से अनुदान बंद कर दिया गया है। 
         उसके बाद जेपी की सामाजिक संस्था ग्राम निर्माण मंडल के सहयोग से यह अस्पताल संचालित किया जा रहा है। संस्था के प्रधान मंत्री अरविंद शर्मा कहते हैं कि आसपास के ग्रामीण इलाका में अब भी कुष्ठ रोग का प्रभाव दिखता है। वेलोग सार्वजनिक तौर पर इलाज नही कराना चाहते। लिहाजा, प्रत्येक साल गुपचुप तरीके से तकरीबन 50 मरीज दाखिल होते हैं। उनका इलाज किया जाता है। यही नहीं, रोगियों को पीएचसी और सदर अस्पताल में इलाज के लिए प्रेरित किया जाता है।
 

ग्वालियर सम्मेलन- डाॅ प्रियदर्शी ने किया बिहार के युवा इतिहासकारों का नेतृत्व, मिला सम्मान




 ग्वालियर में आयोजित युवा इतिहासकारों के राष्ट्रीय सम्मेलन में पत्रकार और एसकेएम काॅलेज नवादा के हिस्ट्री के लेक्चरर डाॅ अशोक कुमार प्रियदर्शी ने दमदार उपस्थिति दर्ज कराई है। इस मौके पर जीवाजी यूनिवर्सिटी के रजिस्टार प्रो आनंद मिश्र और अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के अध्यक्ष व वरिष्ठ इतिहासकार प्रो सतीश चन्द्र मिततल ने डाॅ अशोक प्रियदर्शी को प्रमाणपत्र देकर सम्मानित किया है। गौरतलब हो कि 19-20 मार्च को मध्य प्रदेश के ग्वालियर स्थित जीवाजी यूनिवर्सिटी में युवा इतिहासकारों का दो दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया। इसका आयोजन जीवाजी यूनिवर्सिटी और अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के संयुक्त तत्वावधान में किया गया।


      इसमें बिहार से पांच युवा इतिहासकार शामिल हुए थे, जिसका प्रतिनिधित्व डाॅ प्रियदर्शी ने किया। सम्मेलन में डाॅ प्रियदर्शी के अलावा नालंदा से डाॅ हेगोयल, मुजफ्फरपुर से अनामिका ब्रजवंशी, हाजीपुर से वेदवती और वैशाली से डाॅ मनीष सिंह शामिल हुए। बता दें कि दिसंबर 2015 में मैसूर में आयोजित इतिहास पुनर्लेखन सेमिनार में डाॅ प्रियदर्शी ने रेवरा आंदोलन में महिलाओं की भूमिका को रेखांकित किया था। तब डाॅ प्रियदर्शी को बिहार का प्रतिनिधित्व करने का दायित्व दिया गया था।


क्या उठाए सवाल
राष्ट्रीय सम्मेलन में डाॅ प्रियदर्शी ने इतिहास पुनर्लेखन की विसंगतियों पर सवाल उठाया। उन्होंने सवाल किया कि युवा इतिहासकार इन विसंगतियों से उबरकर कैसे जनपथ का इतिहास लेखन कर सकता है। काफी समय बीत चुका है। साक्ष्य भी गुम पड़ रहे हैं। ऐसे में तर्कपूर्ण और प्रमाणिक इतिहास लेखन बढ़ाने के तरीके क्या होंगे। डाॅ प्रियदर्शी ने 1857 के स्वातंत्रता संग्राम में मगध के जवाहिर रजवार और एतवा रजवार की ब्रिट्रिश अधिकारियों की गलत व्याख्या पर सवाल उठाया। डाॅ प्रियदर्शी ने कहा कि जो हमारे नायक थे, उन्हें ब्रिट्रिश अधिकारी डकैत का नाम दे रखा था। लिहाजा, अब भी जवाहिर और एतवा की भूमिका गुमनाम है।









वरिष्ठ इतिहासकार डाॅ मितल का जवाब
डाॅ मितल ने कहा कि स्थानीय स्तर पर जवाहिर और एतवा के बारे में जानकारी हासिल कर बेहतर इतिहास लेखन संभव है। पत्रों और दस्तावेजों के जरिए भी उनके योगदानों के बारे में जानकारी हासिल किया जा सकता है। डाॅ मितल का मानना है कि भारतीय इतिहास लेखन पक्षपातपूर्ण रहा है। ब्रिट्रिश लेखकों ने लेखन में भी भारतीय को नीचा दिखाने की कोशिश की है। जबकि मुगलकालीन लेखकों ने शासकों का पसंदीदा इतिहास लेखन किया। बाद में भारतीय इतिहास लेखन शुरू हुआ लेकिन उसमें राष्ट्रीय चेतना का अभाव है।



कौन है जवाहिर और एतवा
जवाहिर नवादा जिले के नारदीगंज थाना के पसई गांव का रहने वाला था। जबकि एतवा रोह थाना के कर्णपुर गांव का रहनेवाला था। 1857 में जवाहिर और एतवा ने अंग्रेज अधिकारियों और जमींदारों के खिलाफ विद्रोह किया था। अंग्रेजों ने इसे डकैत का नाम दे रखा था, ताकि जवाहिर और एतवा के पक्ष में सामुहिक धु्रवीकरण नही हो।

नारदः संग्रहालयः पूर्वी कला शैली का अद्भूत संगम

डाॅ अशोक कुमार प्रियदर्शी
पत्रकार, संयोजक, विरासत बचाओ अभियान. बिहार 

        दुर्लभ कलाकृतियों और मूर्तियांे के संग्रह को लेकर बिहार के नवादा जिले का नारदः संग्रहालय देश और दुनिया के लिए ख्यातिप्राप्त है। इस संग्रहालय में पुरातत्व कला, मुद्रा, प्राकृतिक इतिहास, अस्त्र-शस्त्र, पांडुलिपियां, भूतत्व और पत्थरकटट्ी की आधुनिक कला की पांच हजार से अधिक कला वस्तुएं संग्रहित है। इसमें मगध बंग शैली की सैकडों मूर्तियां हैं। लिहाजा, इस संग्रहालय को इस्टर्न स्कूल आॅफ आर्ट यानि पूर्वी कला शैली के अध्ययन का प्रमुख केन्द्र माना जाता है। यह संग्रहालय देश विदेश के शोधकर्ताओं की पहली पसंद है।
      छठी शताब्दी से दसवीं शताब्दी तक बिहार और बंगाल में मगघ बंग शैली विकसित हुई थी जिसे पाल सेन कला भी कहा जाता है। मगघ बंग शैली के विकसित रूप के लिए ही इस्टर्न आॅफ आर्ट यानि पूर्वी कला शैली का नाम आया हैं। इस शैली के स्वतंत्र अस्तित्व का विवरण तारानाथ के वृतांत में मिलता हैं। तारानाथ के अनुसार, देवपाल और धर्मपाल नामक पालवंशीय शासकों के समय में धीमान और उसके पुत्र वितपाल ने अनेक मूर्तियां बनाई थी। सलिमपुर अभिलेख में मगघ के एक प्रसिद्ध शिल्पी सोमेश्वर का नाम आया हैं जो इस क्षेत्र की समृद्ध कला परम्परा को इंगित करता हैं ।  
        नवादा नगर के मध्य में अवस्थित नारदः संग्रहालय इसी मगघ बंग शैली का प्रतिनिधित्व करता हैं। यहां इस शैली की सैकड़ों मूर्तियां संग्रहित हैं। जिले के सोनूबिगहा से प्राप्त वासुकी की प्रतिमा, मड़रा से प्राप्त नरसिहं अवतार, मरूई से प्राप्त नटराज और बोधिसत्व की मूतियां कलात्मक और मूर्ति विज्ञान की दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं। जिले के समाय, सिसवां, कोसला, पटवासराय, मरूई, महरावां, बेरमी और नरहट से प्राप्त विष्णु की  मूर्तियां और मकनपुर से प्राप्त जांभल की मूर्ति अति दुलर्भ है। 
       गया जिले के हड़ाही से प्राप्त हिन्दू देवी कंकाली महिषामर्दिनि की प्रतिमा, कुर्किहार से प्राप्त पदमपाणि अवलोकितेष्वर तथा धुरियावां से प्राप्त बौद्विस्ट देवी हारीति की प्रतिमा अदभूत है। हिन्दू साइट से प्राप्त होने पर हिन्दू देवी मंजु़श्री और बौद्धिस्ट साइट से प्राप्त होने पर बोधिसत्व की पुष्टि करता है। संग्रहालय के दीर्घाकक्ष में प्रदर्शित अधिकांश बौद्ध मूर्तियां अभिलेखयुक्त है। इसके कारण मूर्तियों का विशेष महत्व है। यह संग्रहालय पूर्वी कला शैली पर अध्ययन करने वालों के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है जितना की पढाई शुरू करने वालों को अक्षर ज्ञान की जरूरत होती है। वरना इस संग्रहालय के मूर्तियां के अध्ययन के बिना पूर्वी कला शैली पर किए गए शोध को अधूरा माना जाएगा।
         नवादा के समाय से प्राप्त हरिहर की प्रतिमा शैव और वैणव धर्म की एकता का प्रतिनिधित्व करता हैं। अतौआ, छतिहर और बेरमी से प्राप्त सूर्य की प्रतिमा पुरातत्व की दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। सूर्य की प्रतिमा की खासियत है की उनके पैर में जूते हैं। हिन्दू धर्म में सूर्य के पैर में जूते के बारे में धार्मिक मान्यता है कि भगवान सूर्य के खाली पैर देखने से अनिष्ट होता हैं। लिहाजा, पैर में जूता पहनाया गया है। 
      पालकाल में गया, नवादा और नांलदा का इलाका मूर्तियों के विकास का स्वर्णिम काल था। इस क्षेत्र में मगध बंग शैली की मूर्तियां काफी संख्या में मिलती रही है। कुर्किहार में काफी संख्या में इस शैली की मूर्तियां मिली है, जो नवादा, पटना और कोलकाता समेत अनेक संग्रहालय में संरक्षित है। संभव है  कुर्किहार और इसके आसपास के क्षेत्र में कई शिल्पकार मूर्तियों का निर्माण करते थे। लिहाजा, इस क्षेत्र से बडी संख्या में वैष्णव, शैव, बौद्ध और जैन धर्म से जुड़ी मूर्तियां मिलती है।
        बता दें कि दुर्लभ कलावस्तुओं के संग्रह के लिए ख्यात नारदः संग्रहालय की स्थापना नवादा जिले के पहले जिलाधिकारी नरेन्द्र पाल सिंह के प्रयास से संभव हुआ था. उन्होंने बिखरी पड़ी मूर्तियों, पाण्डुलिपियों और कलाकृतियों को 1973 में एक टीन के सेड में संग्रह करने का काम शुरू किया था। जन सहयोग से शुरू किए गए संग्रह अभियान से यह संग्रहालय देश के महत्वपूर्ण संग्रहालयों में से एक बन गया है । इसका उदघाटन 2 मई 1974 को बिहार के तत्कालीन राज्यपाल आर डी भंडारी ने किया था।



‘देवता’ को नहीं मिलेगी दारू तो नीतीश को होगी परेशानी

सियासत

  |  3-मिनट में पढ़ें |   01-04-2016
बिहार के कई गांवों में परंपरा रही है कि देवताओं पर प्रसाद के रूप में दारू चढ़ाई जाती है. सदियों से डाकबाबा, गोरैयाबाबा, डीहवाल और मसानबाबा पर देसी दारू चढ़ाने की परंपरा है. लेकिन बिहार में पहली अप्रैल से देसी शराब पर पाबंदी लगा दी गई है. अब अगर देसी शराब उपलब्ध नहीं होगी तो देवताओं पर विदेशी शराब चढ़ा पाना गांववालों के लिए मुश्किल होगा. गांववालों का मानना है कि देवताओं पर दारू नहीं चढ़ पाएगी तो देवता नाराज हो जाएंगे और इसका खामियाजा ग्रामीणों को भुगतना पड़ सकता है.
देवता की नाराजगी और प्रसन्नता का असर तो गांव तक ही सीमित रहेगा, लेकिन अगर देसी शराब की पाबंदी में लापरवाही साबित हुई तो इसका सीधा असर राज्य सरकार पर पड़ेगा. जाहिर तौर पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बड़े उदेश्य को लेकर पहले चरण में देसी शराब की बिक्री पर पाबंदी लगाई है. लेकिन इसे सख्ती से लागू नहीं किया गया तो इसका सीधा असर गांव के गरीबों पर पड़ेगा. देसी दारू का सेवन गांव के गरीब लोग करते थे. इनमें वे लोग भी शामिल हैं जो डीहवाल, डाकबाबा, गौरयाबाबा और मसानबाबा पर दारू चढ़ाने में आस्था रखते हैं.
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 पटना के डीएम संजय अग्रवाल देसी शराब की बोतलें नष्ट करते हुए
लेकिन सरकारी घोषणा के बावजूद अवैध तरीके से शराब की बिक्री होगी तो इसका खामियाजा गरीबों को भुगतना पड़ेगा. पहले जो व्यक्ति 30 रूपए की दारू से काम चला लेते थे उन्हें कालाबाजार में कई गुना अधिक राशि खर्च करनी पड़ेगी. यही नहीं, अवैध तरीके से महुआ शराब के निर्माण पर अंकुश नहीं लगाए जाने का असर भी उन सबों पर ही दिखेगा. अवैध शराब से मौत का खतरा विद्यमान रहता है. सरकारी स्तर पर जो कानून बनाए गए हैं, सरकार की लचर कार्यप्रणाली रही तो इसका खामियाजा भी गरीबों को भुगतना पड़ेगा. जेल जाएंगे, सजा होगी. ऐसी स्थिति में दारू बंद करने का श्रेय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को जब मिलेगा तब व्यवस्था की लचर कार्यप्रणाली की जवाबदेही भी नीतीश के जिम्मे होगी.
बता दें कि राज्य में हर माह करीब 8232394 लीटर देशी शराब की खपत होती थी. जबकि 3677816 लीटर विदेशी और 3658646 लीटर बियर की खपत होती थी. लेकिन अब देसी शराब पर पाबंदी लगा दी गई है. सरकार ऐसा मान रही है कि देसी दारू पर प्रतिबंध लगाए जाने से ग्रामीणों को काफी राहत मिलेगी. जो गरीब अपनी मजदूरी का आधा हिस्सा दारू में खर्च कर देते थे. उनकी वह राशि बचेगी. महिलाओं पर अत्याचार की घटनाएं थमेंगी. बच्चों की पढ़ाई में मदद मिलेगी. लेकिन जब विफलता होगी तो गरीबों का गुस्सा भी सरकार पर होगा. क्योंकि विफलता की कीमत गरीबों को चुकानी पड़ेगी. जाहिर तौर पर यह गुस्सा नीतीश पर भारी पड़नेवाला है. क्योंकि इनकी आबादी बड़ी है.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.कॉम या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

लेखक

अशोक प्रियदर्शीअशोक प्रियदर्शी @ashok.priyadarshi.921
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

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