Tuesday 12 January 2016

तीसरे विकल्प की कवायद

अशोक प्रियदर्शी
     बात 48 साल पहले की है. 1967 में भाकपा 24 सीटें जीती थी. कांग्रेस से अलग हुए लोकतांत्रिक कांग्रेस को बिहार में सरकार बनाने के लिए संख्या कम थी. तब भाकपा के सहयोग से महामाया प्रसाद सिन्हा की अगुआई में संविद सरकार बनी थी. चंद्रशेखर सिंह, इंद्रदीप समेत चार भाकपा विधायक कैबिनेट का हिस्सा थे. नौ माह बाद यह सरकार गिर गयी. 
      1969 के मध्यावधि चुनाव में किसी दल को बहुमत नही मिला. भाकपा 25 और भारतीय जनसंघ 34 सीटें जीती थी. इनमें किसी एक दल के बिना कांग्रेस की सरकार बनना संभव नही था. तब भाकपा ने कांग्रेस का समर्थन किया. दारोगा प्रसाद राय के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार गठित हुयी. तब से भाकपा कांग्रेस का सहयोगी बन गयी. 
      1975 में आपातकाल के समय भी भाकपा कांग्रेस का साथ नही छोड़ी. 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी की लहर में भाकपा का सुपड़ा साफ हो गया.हालांकि विधानसभा चुनाव में भाकपा 21 सीटें जीती. 1980 के चुनाव में भाकपा की स्थिति सुधरी. भाकपा 31 सीटें जीती. परंतु 1985 में 12 सीटें पर आ गयी.
      1990 में भाकपा जनता दल का समर्थन दिया। तब 23 सीटें जीती. 1995 में 26 सीटें जीती. भाकपा की यह आखिरी उभार था. उसके बाद भाकपा तीन से अधिक नही गयी. 2010 के चुनाव में एक सीटें मिली. फिलहाल जदयू सरकार का समर्थन कर रही है. यह उस भाकपा की स्थिति है जिसकी जड़े बिहार में गहरी रही है. 1972 में भाकपा विपक्षी पार्टी के रूप में थी.
      लेकिन अदूरदर्शी नीति, पिछल्लगू राजनीति, जातीय आधार पर उभरे क्षेत्रीय दलों का साथ और वामदल की जमीन पर ही गैर संसदीय संघर्ष पर यकीन रखनेवालों के विस्तार से भाकपा की स्थिति कमजोर हुयी. भाकपा के वरिष्ठ नेता यूएन मिश्रा मानते हैं कि यह पार्टी की बड़ी भूल थी. हम जिन मुददों का चैम्पियन हुआ करते थे, उन मुददों को सहयोगी दलों ने उड़ा लिया. 
      यूएन मिश्रा कहते हैं कि जातीय आधार पर क्षेत्रीय दलों के उदय से जातीय राजनीति हाॅवी हो गयी. जनता के सवाल गौण होते गये. जातीय राजनीति का ही परिणाम है कि जिन्हें मुश्किल परिस्थिति में पार्टी संबल प्रदान करती है, वह भी मतदान के समय जातीय दलों के हिमायती बन जाते हैं.
       ऐसी स्थिति भाकपा तक सीमित नही है. माकपा की स्थिति भी कुछ ऐसी ही रही है. हालांकि माकपा कभी कांग्रेस के साथ गठबंधन नही किया. लेकिन 1990 में जनता दल के साथ सीटों के तालमेल कर माकपा चुनाव लड़ी. 1990 और 1995 में छह-छह सीटें जीती. लेकिन इसके बार माकपा का भी क्षरण होने लगी. 2000 में दो जबकि फरवरी 05 और अक्तूबर 05 में एक-एक सीट जीती. 2010 में माकपा का सुपड़ा साफ हो गया.
      दूसरी तरफ, भाकपा माले ने संघर्ष का रास्ता अख्तियार किया. इसका परिणाम रहा कि भाकपा माले की स्थिति सुदृढ़ हुयी. 1990 में सात, 1995 में 6, 2000 में 5, फरवरी 05 में सात, अक्तूबर 2005 में 5 सीटें जीती. जबकि 2000 से भाकपा और माकपा की सीटें घटती गयी. 
आश्चर्य कि भाकपा और माकपा सता का साथ देकर कमजोर हुयी जबकि भाकपा माले संघर्ष के रास्ते पर चलने के बावजूद हाशिये पर पहंुच गयी।
      2010 में माले का सुपड़ा भी साफ हो गया. भाकपा माले के राज्य सचिव कुणाल कहते हैं कि जातिवाद और मंडलवाद की राजनीति का असर से माले भी अछूता नही रहा. इससे गरीबों में फूट हुयी. इसका लाभ सताधारी लाभ उठाते रहे. इस राजनीति को सरकार का संरक्षण मिलता रहा. लेकिन यह गरीबों के साथ धोखा हुआ.
       देखें तो, भूमिगत तरीके से काम करनेवाली भाकपा माले (लिबरेशन) ने एक नया मोर्चा इंडियन पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ) बनाया. 1985 में 85 सीटों पर चुनाव लड़ी. हालांकि कोई सीट नही जीती. 1989 के लोकसभा चुनाव में आइपीएफ आरा संसदीय सीट पर रामेश्वर प्रसाद निर्वाचित हुये.
      1990 में आइपीएफ सात सीटें जीती थी. तब भाकपा, माकपा के अलावा आइपीएफ ने तब राजद प्रमुख लालू प्रसाद को बाहर से समर्थन दिया था.बाद में लालू प्रसाद ने आइपीएफ के चार विधायकों को तोड़ लिया था. फिर आइपीएफ ने दूरी बना लिया। उसके बाद आइपीएफ (अब भाकपा माले) संघर्ष का रास्ता अपनाया. 1995 में समता पार्टी और माले साथ चुनाव लड़ी. माले छह सीटें जीती. लेकिन विचारधारा में फर्क के कारण माले अलग रास्ता अपना लिया.
       देखें तों, बिहार में हाशिये पर हैं. लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव में वामदलों ने एनडीए और महागठबंधन से अलग तीसरे विकल्प की रणनीति बना रही है। ‘न मोदी न नीतीश कुमार, वामपंथ की है दरकार.’ के नारे के साथ वामदल तीसरा कोना बनाने की रणनीति बना रही है. इसके लिए नयी दिल्ली में छह वाम दलों-माकपा, भाकपा, माले, आरएसपी, फाॅरवर्ड ब्लाॅक और एसयूसीआई एक मंच पर आने का फैसला लिया है. सात सितंबर को वामदलों के राष्ट्रीय महासचिव बिहार में साझा चुनाव अभियान की शुरूआत करेेंगे.

        माकपा के राज्य सचिव अवधेश कुमार कहते हैं कि वामदलों ने अपनी गलतियों को पहचान लिया है. पिछली गलतियों से सबक लिया है. वामदल अपनी उपलब्धि संसदीय प्रतिनिधि से नही आंकती. वामदल संघर्ष का रास्ता अख्तियार करेगी। जनता के बीच वैकल्पिक नीति लेकर जाएंगे. भूमि सुधार, खाद्य सुरक्षा, राशन, समान काम का समान वेतन, शिक्षा, रोजगार के अलावा केन्द्र और राज्य की नीतियों जैसे अहम सवाल हैं. नव उदारवादी नीतियों को रोकना है.
       हालांकि यह पहला अवसर नही है जब वामदल एक मंच पर आने की बाते कर रही है. 2014 और 2009 लोकसभा चुनाव में भी वामदल एक मंच पर आये थे। 2014 में माले अलग थी. अच्छा परिणाम नही रहा। 2010 के विधानसभा चुनाव में 173 सीटों पर माकपा, भाकपा और माले सीटों का तालमेल कर चुनाव लड़ी थी. इसमें भाकपा एक सीट जीती. मौजूदा समय में एक मंच पर आए छह दलों में आरएसपी के सिवा बाकी सभी दल 2010 के विधानसभा चुनाव में शामिल थे.
अवधेश कुमार कहते हैं कि वामदलों की अपनी अपनी नीतियां और विचारधारायें हैं. एकता की कमी, दृष्टिकोण का अभाव के कारण वामदल बेहतर प्रदर्शन नही कर सकी. वामदल इन अनुभवों से सबक ली है. दूसरी तरफ, यूएन मिश्रा कहते हैं कि पहले झोपड़ी में रहनेवाले लोग भी निर्वाचित हो जाते थे. लेकिन अब चुनाव में बाहुबल और धनबल का प्रभाव बढ़ा है. इसके चलते वामदल बेहतर प्रदर्शन नही कर पाती. 
       इनसबों से अलग वामदलों के खराब प्रदर्शन की एक बड़ी वजह नयी पीढ़ियांे का अभाव है. वामदलों में नेताओं की नयी पीढ़ी नही जुड़ पा रहे हैं. देखें तो, वामदलों खासकर भाकपा और माकपा के राज्य कमेटी में ज्यादातर पचास उम्र पार लोग हैं. नयी पीढ़ियों के अभाव में पार्टी की विचारधारा व्यापक आकार नही ले पा रहा. बाकी दल नयी पीढ़ियों को जोड़ने के लिए हर कदम उठा रही है. वामदलों के नेता भी नयी पीढ़ियों की कमी को स्वीकारते हैं. हालांकि नेता दावा करते हैं कि नयी पीढ़ियों के जोड़ने के प्रयास तेज किये गये हैं.
      अवधेश कुमार कहते हैं कि नवउदारवादी नीतियों का असर है कि युवा वामदलों से दूर हैं. महंगाई और भ्रष्ट्राचार के कारण नयी पीढ़ी संघर्ष के रास्ते से अलग हैं. लेकिन उन युवाओं की आखिरी मदद वामदलों के जरिये ही संभव है. देखें तो, बिहार में वामदल की स्थिति संघर्षपूर्ण रही है. वामदल के कमजोर होने की शुरूआत पांच दशक पहले से हो गयी.
       20 अक्तूबर 1939 को मुंगेर में भाकपा की स्थापना हुयी थी. सुनील मुखर्जी इसके पहले राज्य सचिव थे. 1964 में भाकपा से अलग माकपा का गठन हुआ. 1967 में सीपीएम से एक गुट अलग होकर भाकपा माले बना. बाद में माले भी कई टुकड़े में बंट गये.
       मौजूदा विधानसभा चुनाव में वामदल अपनी गलतियों से सबक लेकर एक मंच पर आने की बात कर रही है. माले के राष्ट्रीय महासचिव दीपंकर भटट्ाचार्य ने कहा कि राज्य के सभी 243 सीटों पर सभी सीटों पर तालमेल कर चुनाव में जायेंगे. वामदलों में आपस में कहीं भी फ्रेंडली फाइट नही होगी. बहरहाल, वामदल की ताजा एकता क्या रंग लायेगी देखनेवाली बात होगी.


वामदलों का प्रदर्शन
साल     भाकपा        माकपा        भाकपा माले
1951 0      ........            ....
1957 7       .........           .......
1962 12       .........           .......
1967 24        4            .......
1969 25        3            ........
1972 35        0            ........
1977 21        4            ........
1980 31        6            .......
1985 12        1             0
1990 23        6           7 (आइपीएफ)
1995 26        6           6
2000 2        2            5
फरवरी 2005- 3 1            7
अक्तूबर 2005- 3 1            5
2010       - 1 0            0

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