Sunday 19 April 2015

हमें नही चाहिए अपमान का सम्मान

डॉ अशोक कुमार प्रियदर्शी
         बात पिछले हफ्ते की है। बिहार सरकार की ओर से मुजफफ्रपुर के मुसहरी प्रखंड के मनिका गांव स्थित चमेला कुटीर में सच्चिदानंद सिन्हा के नाम एक चिटठी पहुंची। उस चिटठ्ी में सच्चिदानंद सिन्हा को राजभाषा विभाग की ओर से दी जाने वाली 50 हजार रूपए के डॉ फादर कामिल बुल्के पुरस्कार की सूचना थी। लेकिन 87 वर्षीय सिन्हा इस सूचना से खुश होने के बजाय दुखी हुए। लिहाजा, उन्होंने चिटठी का जवाब भी नही दिया। उन्होंने कहा कि- मैं उस पुरस्कार के लायक नही हूं। मेरे लिए यह पुरस्कार अपमानजक है। किसी साहित्यकार को मिलना चाहिए था। मैं शौकिया तौर पर लिखता हूं। साहित्यकार कब हो गया।
         सरकार उन्हें पुरस्कार ही देना चाहती थी तो किसी अन्य क्षेत्र में सम्मानित कर सकती थी। पुरस्कार की प्रक्रिया पर भी सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि जबतक नौकरशाह साहित्यकारों के भाग्यविधाता रहेंगे तब तक इस प्रकार की पुरस्कार की सूची स्वीकृत होती रहेगी। पुरस्कार पानेवाले के साथ नौकरशाह चपरासी और बाबू जैसा सलूक करते हैं। सरकार का काम नौकरशाह करता है। और सरकार नौकरशाहों का शाह है। 
         वैसे सिन्हा पुरस्कार को कभी महत्व नही दिया। केन्द्रीय हिंदी संस्थान से एक लाख रूपए के पुरस्कार की घोषणा हुई थी, तब भी इंकार कर दिया था। देखें तो, पुरस्कार का पैमाना यदि राशि है तो पुरस्कारों की सूची में सिन्हा का नाम अपमानजनक है। आखिरी केटेगरी में उनको रखा गया है। उन्हें मुजफफ्रपुर के प्रो नंदकिशोर नंदन से कम और प्रो रश्मि रेखा की केटेगरी में रखा गया है। प्रो नंदन को दो लाख रूपए का बीपी मंडल और प्रो रश्मि को 50 हजार रूपए का महादेवी वर्मा पुरस्कार के लिए चुना गया है।
          पुरस्कार के लिए सिन्हा की ओर से कोई आवेदन भी नही दिया गया था। देखें तो, मुख्यमंत्री के अधीन मंत्रिमंडल सचिवालय (राजभाषा विभाग) द्वारा विज्ञापन प्रकाशित किया गया था। इसमें 15 जुलाई 2014 तक पुरस्कारों की प्रकृति के अनुरूप पुरस्कारवार सुयोग्य साहित्यकारों और संस्थाओं के जरिए व्यक्तित्व और उनके कृतित्व के संबंध में प्रमाणिक दस्तावेज के साथ अनुशंसाएं आमंत्रित किया गया था। बताया जाता है कि अनुशंसा की प्रक्रिया भी ज्यादातर प्रायोजित होते हैं। एक साहित्यकार के मुताबिक, निजी फैसलों को अमलीजामा पहुंचाने के लिए कुछ बड़े नामों को शामिल कर लेते हैं।        
         राजभाषा द्वारा 19.50 लाख के कुल 14 साहित्यकारों और संगठनों के नाम पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी सहमति दे चुके हैं। सबसे बड़ा सम्मान गया के डॉ रामनिरंजन परिमेंदू को तीन लाख रूपए का डॉ राजेन्द्र प्रसाद शिखर सम्मान दिया गया है। अतीत को देखें तो यह शिखर सम्मान से उपन्यासकार अमृतलाल नागर, धर्मवीर भारती, बाबा नागार्जुन और जानकीवल्लभ शास्त्री सरीखे लोग सम्मानित किए गए हैं। ऐसे में परिमेंदू सरीखे कथित कम चर्चित व्यक्ति को यह पुरस्कार दिए जाने पर सवाल उठाए जा रहे हैं। कई और नाम पर विवाद है।
         हालांकि निर्णायक मंडल के अध्यक्ष नामवर सिंह ने कहा है कि साहित्यिक उपलब्धियों के आधार पर पुरस्कार के लिए नामांें का चयन किया गया है। चयन में किसी तरह का पक्षपात नही किया गया है। लेकिन सिन्हा अकेला ऐसा शख्स नही हैं, जिन्होंने पुरस्कार को ठुकरा दिया है। प्रो. कर्मेंदु शिशिर को 50 हजार रूपए का भिखारी ठाकुर पुरस्कार के लिए चुना गया। उन्होंने भी यह सम्मान लेने से इंकार कर दिया। उन्होंने सरकार से भाषा, साहित्य और संस्थाओं को लेकर एक नीति बनाए जाने की मांग है। हिन्दी भवन, राष्ट्रभाषा परिषद और तमाम साहित्यिक कार्यों को नौकरशाही से मुक्त कर योग्य साहित्यकारों को सीमिति सौंपने की मांग की है। जबतक सरकार ऐसा नही करती तबतक पुरस्कार बंद करे।
विधानपरिषद के पूर्व सभापति प्रो जाबिर हुसैन के लिए भी यह सम्मान अपमानजनक है। वह 50000 रूपए का गंगा शरण सिंह पुरस्कार की सूची में हैं। प्रो जाबिर राष्ट्रीय स्तर के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हैं। दूसरी तरफ, राजभाषा निदेशक रामविलास पासवान की टिप्पणी सरकार की मुश्किलें बढ़ा दी। पासवान ने कह दिया कि हमलोग पत्र भेजेंगे। जिनको पुरस्कार लेना है वे लेंगे, और जो नही लेंगे तब पैसा बचेगा। वह पैसा जनहित के काम में आएगा। इसपर विधान परिषद में भाकपा के केदारनाथ पांडेय ने आपति जताया। बीजेपी के हरेंद्र प्रताप और किरण घई ने कहा कि हैरतवाली बात है कि निर्णायक मंडल के लोगों को भी नही पता कि किसे पुरस्कार दिया जा रहा है। उपसभापति सलीम परवेज ने सरकार को जवाब देने को कहा है। 
          निर्णायक मंडल के कई सदस्यों के पुरस्कार के निर्णय से अनभिज्ञता जाहिर करने से विवाद और गहरा गया। पद्मश्री साहित्यकार उषा किरण खान ने कहा कि मापदंड का पालन नही किया गया। पुरस्कार के लिए दिल्ली में बैठक आयोजित की गई। तब पटना में भारतीय कविता समारोह चल रहा था। मैंने तारीख बढ़ाने के लिए आग्रह किया था लेकिन नही तारीख बढ़ाई गई और नही निर्णय की सूचना दी गई। वैसे सदस्य रवींद्र राजहंस ने कहा है कि 21 नवंबर 2014 को नामवर सिंह की अध्यक्षता में बैठक हुई थी। पुरस्कार देने के लिए एक-एक सदस्यों ने अपनी राय रखी थी। लेकिन अंतिम सूची तैयार कर सदस्यों और अध्यक्ष के हस्ताक्षर नही लिए गए थे। उम्मीद थी कि बाद में फाइनल सूची सदस्यों को दिखाई जाएगी लेकिन ऐसा कुछ नही हुआ।
           विवाद की एक बड़ी वजह राशि भी है। रंगकर्मी अनीश अंकुर कहते हैं कि पुरस्कार की नीतियों में संशोधन की जरूरत है। राशि के आधार पर पुरस्कारों की केटेगरी तय की गई है। इस राशि में काफी असमानता है। यह राशि साहित्यकारों के बीच बड़ा अंतर दर्शाता है। मसलन, नागार्जुन के लिए दो लाख और भिखारी ठाकुर के लिए 50 हजार रूपए का पुरस्कार है। वैसे 2010 में 7 लाख 69 हजार रूपए पुरस्कार की राशि बांटी गई थी, जिसे बढ़ाकर 19.50 लाख किया गया है। लेकिन बीच का अंतर डेढ़ लाख का है।
         श्रषिकेश सुलभ का मानना है कि बिहार सरकार के पास साहित्य, संस्कति और भाषा को लेकर कोई दृष्टि नही है। यही वजह है कि पुरस्कार पर विवाद होते रहे हैं। यह पहला अवसर नही है। 2010 में नामवर सिंह के छोटे भाई काशीनाथ सिंह को बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर पुरस्कार दिए जाने को लेकर काफी विवाद हुआ था। तब भी नामवर सिंह अध्यक्ष थे। गिरिराज किशोर, देवेंद्र चौबे, डॉ कुमार विमल और जियालाल आर्य सदस्य थे। नामवर सिंह की अध्यक्षतावाली कमेटी से भाई को पुरस्कार दिए जाने से सवाल उठे थे। 
          वैसे विभागीय सचिव ने निर्णायक मंडल से जवाब मांगा था कि पुरस्कार के लिए नामित व्यक्तियों से मेरा कोई रिश्ता नही है। बताया जाता है कि नामवर सिंह को छोड़ तमाम सदस्यों ने जवाब दे दिया था। लंबे समय तक पुरस्कार नही बंटा। चेक के जरिए राशि उपलब्ध करा दी गई। उस फजीहत के बाद पुरस्कार की घोषणा की गई तो विवाद साथ नही छोड़ा। संयोग कि इस बार भी नामवर सिंह निर्णायक मंडल के अध्यक्ष हैं। जबकि मैनेजर पांडेय, देवेन्द्र चौबे, अशोक वाजपेयी, उषाकिरण खान और रवींद्र राजहंस सदस्य हैं। 
  एक वरिष्ठ साहित्यकार बताते हैं कि पुरस्कार के फैसले में निर्णायक मंडल के कुछ सदस्य सुनियोजित प्रणाली अपनाते हैं। पिछली दफा नामवर सिंह ने नंदकिशोर नवल का नाम शिखर सम्मान के लिए रखा। उसके बाद के सम्मान के लिए नामवर सिंह को कुछ देर के लिए कमरे से बाहर जाने को कहा गया। तब एक सदस्य ने उनके भाई काशीनाथ का नाम बाबा साहब भीमराव आंबेडकर पुरस्कार के लिए पेश किया गया। उसके बाद अध्यक्ष की मौजूदगी में कुछ सदस्य अपनों को पुरस्कार दिलाने का काम आसान कर लिया। तब मैनेजर पांडेय, जो अब निर्णायक मंडल में है के अलावा महेश कटारे, बद्री नारायण, अनामिका, गौरीनाथ, रामनिरंजन परिमलेंदु, लखनपाल सिंह आरोही, जगदीश पांडेय और रंजन सूरीदेव को नामित किया गया था। उस समय रामधारी सिंह दिवाकर समेत कई के नाम अनुशंसित था।
           फिलहाल नामांे के चयन के सवाल पर जितनी मुंह उतनी बातें की जा रही है। आरोप है कि निर्णायक मंडल के कुछ सदस्यों ने अपनों को पुरस्कार देने के लिए बाकी साहित्यकारों की प्रतिष्ठा का ख्याल नही रखा गया। साहित्यकारों का एक तबका मान रहे हैं कि एक दो बड़े नामों को शामिल कर अपने फैसले लागू कराने में कामयाब हो गए। नामवर सिंह के शुरूआती बयान में अनभिज्ञता जाहिर करने की बात को उसी कड़ी से जोड़कर देखा जा रहा है। अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष डॉ खगेन्द्र ठाकुर कहते हैं कि सरकार परस्त बनाने के लिए पुरस्कार दिए जाते हैं। निर्णायक मंडल सरकार परस्त होते हैं और निर्णायक मंडल साहित्यकारों को अपना परस्त बनाना चाहते हैं।
         बिहार मगही मंडप के अध्यक्ष राम रतन प्रसाद सिंह रत्नाकर कहते हैं कि वेतन और पेंशन पानेवालों को अतिरिक्त आर्थिक लाभ देने के लिए यह पुरस्कार दिया गया है। पटना दूरदर्शन के समाचार संपादक संजय कुमार ने कस्बाई और योग्य लेखकों को वंचित किए जाने का आरोप लगाया है। ज्यादातर सम्मान गिने चुने लोगों तक सीमित होकर रह गया है। दलित चिंतक डॉ. मुसाफिर बैठा की शिकायत है कि अपवाद को छोड़ दे ंतो बिहार के दलित समुदाय ऐसे पुरस्कार से अभिताज्य है। इस दफा यूपी के दलित लेखक प्रो तुलसी राम को यह सम्मान दिया गया है, लेकिन मरणोपरांत। बैठा के मुताबिक, पांच दफा अपनी पांडूलिपियां विभाग को दिया, लेकिन कभी स्वीकृत नही हुआ।  
          विवाद की कहानी यहीं खत्म नही होती। राजभाषा विभाग ने शिखर सम्मान के लिए भीष्म साहनी और प्रो जाबिर हुसैन का नाम संयुक्त रूप से किया था। तब भी जाबिर हुसैन ने आपति दर्ज कराई थी। साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता साहित्यकार अरूण कमल कहते हैं कि साहित्यकारों का असली पुरस्कार संस्थान और सरकार से नही मिलता बल्कि पाठकों से मिलती है। बहरहाल, नामवर सिंह ने पुरस्कार को लेकर उत्पन्न विवाद को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है। उन्होंने इस बात का भी खंडन किया कि उन्होंने सूची नही देखी। छह माह पहले बैठक हुई थी। निर्णय में किस स्तर पर गड़बड़ी हुई। यह अध्यक्ष जानें। लेकिन ऐसे फैसले से आलोचक नामवर सिंह खुद आलोचना के पात्र बन गए हैं।