Tuesday 12 January 2016

जवाहिर और एतवा को दिए गए अंग्रेजों के दाग नही धुल पाए, जिन्होंने अंग्रेजों को पिलाया था पानी, उन्हें लोग याद भी नही करते

अशोक प्रियदर्शी
      भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन में नवादा जिलेे के पसई निवासी जवाहिर रजवार और कर्णपुर निवासी एतवा रजवार की उल्लेखनीय भूमिका रही है। नवादा और नालंदा के इलाका में होनेवाले विद्रोह की घटनाओं में जवाहिर और एतवा ने अंगे्रजों को पानी पिला दिया था। लेकिन इन दोनों नायकों को लोग स्मरण भी नही करते। दुर्भाग्य कि आजादी के छह दशक बाद भी अंग्रेजों के दिए नाम का दाग भी नही धुल पाया है।
      इतिहास गवाह है कि जवाहिर और एतवा ने अंग्रेजों और जमींदारों को विद्रोही आंदोलन से परेशान कर दिया था। जवाहिर और एतवा के पक्ष में लोग गोलबंद हो रहे थे। ब्रिटिश हुकुमत के लिए यह मुसीबत साबित होने लगा था। ऐसे में अंग्रेजों ने जवाहिर और एतवा के अभियान को लूट पाट का नाम दे दिया था। लिहाजा, गांव के लोग धीरे धीरे अलग होने लगे थे। ग्रामीणों के बीच में चोर के रूप में प्रचारित किया गया। दुर्भाग्य कि ग्रामीण अब भी इस नाम से जानते हैं। यह स्वतंत्रता आंदोलन के बाद गुलामी की याद कराता है।
       विद्रोह के दौरान जवाहिर और एतवा ने अंग्रेंजों को नाकोदम कर दिया था। सरकारी कचहरी, बंगले, जमींदार और उसके कारिंदे की सम्पति विद्रोहियों के निशाने पर था। विद्रोहियों को जब मौका मिलता घटना को अंजाम देने से नही चूकते थे। कई जमींदारों ने भी विद्रोहियों को समर्थन करना शुरू कर दिया था। तब अंग्रेज अधिकारियों ने विद्रोह पर काबू पाने के लिए विद्रोहियों को चोर और डकैत जैसा नाम देने लगे थे, ताकि विद्रोहियों से लगाव के बजाय लोगों में नफरत पैदा हो। अंग्रेज अपनी इस कुटनीति में काफी हद तक सफल भी रहे।

जवाहिर और एतवा का  अतीत 
       27 सितंबर 1857 को जवाहिर करीब 300 आदमियों के साथ विद्रोह की रणनीति बना रहे थे। तभी अंग्रेज सैनिकों ने घेर लिया और गोलियां बरसानी शुरू कर दी थी। इस घटना में जवाहिर के चाचा फागू रजवार की मौत हो गई थी। कई जख्मी हो गए थे। फिर जवाहिर की मौत हो गई थी। लेकिन 29 सितंबर को तत्कालीन डिप्टी मजिस्ट्रेट वर्सली ने लिखा कि जवाहिर डकैती में मारा गया।
       इसके पूर्व 12 सितंबर को एतवा की गिरफ्तारी के लिए अंग्रंेज और जमींदारों की सेना एतवा के गांव कर्णपूर जा रहे थे, तभी सकरी नदी के किनारे भिड़ंत हो गई। इस घटना में एतवा बच निकले, लेकिन 10-12 साथी शहीद हो गए। तब एतवा की गिरफ्तारी के लिए 200 रूपए का इनाम घोषित किया था। कई साल बाद 8 अप्रैल 1863 को करीब दस हजार पुलिस, मिलिट्ी और जमींदार की फौज का अभियान चला, लेकिन एतवा बच निकला था।

मौजूदा हालात
      दस्तावेज बताते हैं कि एतवा के नेतृत्व में 10 सालों तक छिटपुट विद्रोह चला था। बाद में विद्रोही नेताओं का क्या हुआ कुछ पता नही। लेकिन दुख कि ग्रामीणों के बीच जब एतवा और जवाहिर की चर्चा होती है तब उनकी जुबां से अंग्रेजों का दिया नाम निकलता है। उनकी अदद मूर्ति भी नही स्थापित किया जा सका है। इन दिनों कुछ लोग जातीय आधार पर उन्हें याद करते हैं। यह एतवा और जवाहिर के योगदान के लिए काफी नही है।  सरकार और प्रशासन को इस दिशा में पहल करनी चाहिए।

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