Tuesday 3 May 2016

बिहार: खाक में मिलते नन्हों के ख्वाब


अशोक कुमार प्रियदर्शी | सौजन्‍य: इंडिया टुडे | पटना, 1 मई 2012 | अपडेटेड: 19:57 IST

जमुई में ध्‍वस्‍त चननवर मिडल स्‍कूल में चलती क्‍लास
जमुई जिले के चननवर गांव की रीता सोशल वर्कर बनकर शिक्षा के क्षेत्र में लोगों की मदद करना चाहती है. लेकिन उसके इस अरमान के परवान चढ़ने से पहले ही 17 दिसंबर, 2011 की रात भाकपा माओवादियों (नक्सलियों) ने गांव के मिडल स्कूल को ध्वस्त कर उसके ख्वाबों में खलल डाल दिया. इससे उसकी पढ़ाई तो प्रभावित हुई ही, उसे भी अपने भाई-बहनों जैसा हश्र होने का डर सताने लगा है. उसकी दो बड़ी बहनों को इसलिए कम उम्र में ब्याह दिया गया क्योंकि वे निरक्षर थीं. उसके भाई ने पांचवीं के बाद इसलिए पढ़ाई छोड़ दी क्योंकि आगे की शिक्षा के लिए कोई संस्थान नहीं था.
अब रीता इस उम्मीद के साथ उस टूटी-फूटी इमारत में पढ़ाई कर रही है कि शायद हालात सुधर जाएं. वह सवालिया लहजे में कहती है, ''हमने किसी का क्या बिगाड़ा था जो हमारे अरमानों को मिट्टी में मिला दिया गया.''
रीता अकेली नहीं है, जिसके ख्वाब टूटे हैं. चननवर मिडल स्कूल में नेपाली, बबलू, छोटू और रेणु समेत 235 छात्र हैं, जिनके सामने कमोबेश ऐसे ही हालात हैं. छठी जमात की इंद्रा को ही लें. वह पढ़कर स्कूल टीचर बनना चाहती है मगर स्कूल की हालत ने उसे बेचैन कर दिया है.
ताज्‍जुब यह कि झारखंड के गिरिडीह और बिहार के नवादा जिले की सीमा पर जमुई जिले के इस गांव के बच्चों में शिक्षा हासिल करने की भूख कूट-कूट कर भरी हुई है. आठवीं की छात्रा रेणु कहती है, ''मेरी बड़ी बहन और भाई पढ़ाई नहीं कर सके. मैं इस कमी को टीचर बनकर पूरा करना चाहती हूं.'' गांव में लोग शिक्षा को लेकर जागरूक हुए हैं. मगर नक्सलियों की करतूतों से उनकी उम्मीदों को पलीता लगता नजर आ रहा है.
शिक्षक स्कूल जाने से कतराते नजर आते हैं. ऐसे ही एक शिक्षक विजय कुमार डेपुटेशन पर ब्लॉक में काम कर रहे हैं. खास बात यह है कि नक्सलियों ने ज्‍यादातर उन स्कूलों को उड़ा दिया है, जिनका इस्तेमाल पुलिस कैंप और मतदान केंद्र के रूप में किया गया. जैसा कि चननवर घटना के प्रत्यक्षदर्शी टीचर सुदामा भक्त बताते हैं, ''माओवादियों का आक्रोश स्कूल में पुलिस कैंप को लेकर था. उन लोगों ने गांववालों को यह चेतावनी देकर स्कूल को उड़ा दिया कि यहां दोबारा कैंप न लगे.'' यही नहीं, सुरक्षा कारणों से भी नक्सली दो-मंजिला स्कूल इमारतों को उड़ाते रहे हैं. आर्थिक संसाधनों पर हमले के इरादे से भी स्कूल उनके निशाने पर रहते हैं.
स्थानीय लोग अजीब कशमकश में फंसे हैं. उन्हें नक्सलियों के स्कूल इमारतों को नष्ट करने का विरोध करने पर जान का खतरा है तो पुलिस कैंप का विरोध करने पर नक्सली समर्थक होने का आरोप लगने का डर. इसके चलते वे मूकदर्शक बन सब कुछ होता देखने के लिए विवश हैं. दोनों ही हालात में असर बच्चों की शिक्षा पर पड़ रहा है. स्कूलों की टूटी-फूटी इमारतों के पुनर्निमाण में प्रशासनिक लाचारगी साफ झलकती है. इसी वजह से ध्वस्त हुई ज्‍यादातर इमारतें ज्‍यों की त्यों पड़ी हैं.
हालांकि सरकार ने स्कूलों में पुलिस कैंप स्थापित न करने का आदेश दे रखा है. मगर स्थानीय लोगों का कहना है कि जब भी नक्सलियों के खिलाफ अभियान चलाए जाते हैं तब व्यवहार में उस निर्देश का पालन नहीं हो पाता. बिहार के पुलिस महानिदेशक अभयानंद ने इंडिया टुडे को बताया, ''अब राज्‍य में कोई भी ऐसा स्कूल नहीं है, जहां पुलिस कैंप है. स्कूलों से पुलिस शिविरों को क्वार्टरों में शिफ्ट कर दिया गया है.''
वहीं वरिष्ठ नागरिक संघ स्कूलों पर हमले का अलग कारण मानता है. संघ के पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्रीनंदन शर्मा कहते हैं, ''अशिक्षा और गरीबी ही नक्सलियों का आधार रहे हैं. उन्हें डर है कि जब लोग पढ़-लिख जाएंगे तब क्षेत्र में उनकी पकड़ ढीली पड़ जाएगी. लिहाजा, यह पुलिस से रंजिश के नाम पर बच्चों को शिक्षा से वंचित रखने का कुचक्र है.'' जमीनी हकीकत यह है कि नक्सली हमलों में ज्‍यादा नुकसान उन लोगों का हो रहा है, जिनके वे हितैषी होने का दंभ भरते हैं. पिछले हफ्ते पटना में केंद्रीय गृह सचिव आर.के. सिंह ने भी यही बात कही, ''गरीबों और आदिवासियों की सुरक्षा के नाम पर नक्सलियों ने अब तक सबसे ज्‍यादा उन्हीं की हत्या की है और उन्हें हर तरह से क्षति पहुंचाई है.''
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने भी इस समस्या से निजात के लिए नक्सल प्रभावित नौ राज्‍यों में 400 एंटी नक्सल पुलिस स्टेशनों की मंजूरी दे दी है. इनमें 85 बिहार के लिए हैं जो दूसरे किसी भी राज्‍य की तुलना में सर्वाधिक है. हर थाने के निर्माण में दो करोड़ रु. खर्च होंगे.
चननवर जमुई का इकलौता ऐसा स्कूल नहीं है. जिले के खैरा ब्लॉक के गढ़ी, सोनो ब्लॉक के भलसुधियां, महेसरी, सरकंडा, चरका पत्थर, बरहट ब्लॉक के चोरमारा और गुरमाहा स्कूल नक्सलियों के हमले का शिकार हो रहे हैं. चननवर के हालात ध्वस्त स्कूलों के बच्चों की मुश्किलों को समझने की बानगी भर हैं. बिहार में पिछले छह साल में जमुई के अलावा बांका, मुंगेर, औरंगाबाद, गया, कैमूर, जहानाबाद, मुजफ्फरपुर, पश्चिमी चंपारण और पूर्वी चंपारण जैसे नक्सल प्रभावित जिलों के 46 स्कूल निशाना बने हैं.
देखा जाए तो औसतन डेढ़ महीने के अंतराल पर एक सरकारी स्कूल को ध्वस्त किया गया है. केंद्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक, 2006 से नवंबर 2011 तक देश के 258 स्कूलों को उड़ा दिया गया, जिसमें बिहार के 46 स्कूल शामिल हैं. नक्सलियों ने इस अवधि में सबसे ज्‍यादा छतीसगढ़ में 131, जबकि झारखंड में 63 और बिहार में 46 स्कूल ध्वस्त कर दिए, बिहार के स्कूलों की संख्या थोड़ी कम जरूर है. लेकिन खास यह कि राज्‍य देश के उन चार नक्सल प्रभावित राज्‍यों छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिसा की कतार में आ गया है, जिनमें इस तरह की घटनाओं में इजाफा हुआ है. ऐसी घटनाओं से उपजी परिस्थितियों से निपटने के लिए उपाय किए जा रहे हैं.
केंद्रीय जनजाति कल्याण कार्य मंत्रालय ने नक्सल प्रभावित और अति पिछड़ा क्षेत्र के अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के बच्चों की शिक्षा के लिए आश्रम स्कूल खोलने का फैसला किया है. इसके तहत राज्‍य के जमुई, रोहतास, भभुआ, मुंगेर, बांका, नवादा और गया में आवासीय सुविधायुक्त स्कूल खोले जाएंगे. लेकिन इसे एक लंबी प्रक्रिया माना जा रहा है, जिसमें समय लगेगा. बिहार पुलिस ने स्कूल से महरूम बच्चों को जोड़ने के लिए फिर से अभियान शुरू किया है, लेकिन उन्हें इमारत विहीन स्कूलों से जोड़ पाना अहम सवाल है.
बहरहाल, कारण जो भी हो, स्कूलों पर नक्सली हमलों की घटना, और उसके बाद की परिस्थितियां यह सोचने को मजबूर करती हैं कि क्या नन्हीं आंखों का सुनहरे ख्वाब देखना गुनाह है.
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Web Title : Bihar dream drown of children 
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Sunday 1 May 2016

जो है हमारी पहचान, वह बनी है वीरान

अशोक प्रियदर्शी
नवादा जब जिला बना था। तब जन सहयोग से कलाकृतियां एकत्रित की गई थी। कुछ ही दिनों के अंतराल में नारद संग्रहालय में पांच हजार से ज्यादा कलाकृतियां एकत्रित हो गई थी। दुर्लभ कलाकृतियों के लिहाज से यह संग्रहालय महत्वपूर्ण हो गया है। इसका श्रेय नवादा के पहले जिलाधिकारी नरेंद्रपाल ंिसह को जाता है। ऐसा नही कि नवादा में इसके बाद विरासत खत्म हो गई। नवादा के गांव गांव में विरासत बिखरी पड़ी है। लेकिन सरकार और प्रशासन इस दिशा में दिलचस्पी नही दिखा रही। इसके चलते नवादा के विरासत वीरान हो गए हैं।
देखें तो, अपसढ़ गांव अपने आप में विरासत का अनुपम खजाना है। अपसढ़ में धार्मिक विश्वविधालय का अवशेष मिल चुका है। इसे नालंदा से भी प्राचीन यूनिवर्सिटी का अवशेष माना जाता है। गांव में सैकड़ों मूर्तियां बिखरी पड़ी है। यही नहीं, सपीमवर्ती पार्वती गांव भी ऐतिहासिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। यह बौद्ध दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पार्वती को बौद्ध सर्किट में जोड़ने की बात कह चुके हैं। लेकिन बैरिकेटिंग के सिवा कुछ भी नही हो पाया है।
कौआकोल का देवनगढ़ में पाषाणकाल से मध्यकाल तक के अवशेष मिले हैं। यहां 85 एकड़ का गढ़ है। यहां कृष्णलोहित मृदभांड और उतरी कृष्णमार्जित भांड के टुकड़े प्राप्त हुए हैं। यहां से इसवीं सन की प्रथम शताब्दी की बनी बलराम, वासुदेव और एकांशा की मूर्ति प्राप्त हुई है। यही नहीं, कौआकोल प्रखंड का देवनगढ़, बोलता पहाड़, चामुण्डा मंदिर, जेपी आश्रम, हिसुआ का सोनसा, सीतामढ़ी का सीतामढ़ी मंदिर, नारदीगंज का हड़िया सूर्यमंदिर जैसे कई स्थल है जो नवादा की ऐतिहासिकता को दर्शाता है।
यही नहीं, बावन कोठी तिरपन द्वार, कामदार खां का मकबरा, महरथ, ओड़ो, मकनपुर, ठेरा, घनियावां, आंती, समाय, घोसतावां, डुमरावां, मड़ही, पांडेयगंगोट, महरावां, मड़रा, रानीगदर, अरण्डी, गोविन्दपुर, वैजनाथपुर, सप्तऋषि पहाड़ी, हरनारायणपुर, ओढ़नपुर, कहुआरा, मधुवन, छपरकोल, नावाडीह, नेमदारगंज, पहाड़ी बाबा का मजार, नवादा संकट मोचन मंदिर, सूर्यनारायण मंदिर, जैन मंदिर जैसे दर्जनों ऐतिहासिक और पौराणिक विरासत हैं। लेकिन उपेक्षा के कारण वीरान है।
       विरासत बचाओ अभियान, बिहार के संयोजक और युवा इतिहासकार डाॅ अशोक कुमार प्रियदर्शी के मुताबिक, विरासत हमारी पहचान है। लेकिन इस पहचान को लेकर समाज सजग नही है। सरकार की नीतियों में भी नवादा उपेक्षित रहा है। अपसढ़ और पार्वती को लेकर प्रयास भी हुए। लेकिन इसकी गति काफी मंद रही है। जनप्रतिनिधि भी विरासत को बचाने के लिए गंभीरता नही दिखाए। बिहार सरकार के पहल पर एक सर्वेक्षण किया गया है। इस सर्वेक्षण में करीब आठ हजार पुरातात्विक स्थल चिंहित किए गए हैं। बिहार में करीब 6000 पंचायत है। इस लिहाज से हर पंचायत में कोई न कोई विरासत है। लेकिन अभी यह बदहाल स्थिति में गुमनाम पड़ा है।

मगही/अरझी परझी-सेल्फी वाला नयका समाजसेवक

डाॅ अशोक कुमार प्रियदर्शी
मगही लेखक 
  सेल्फी अंगरेजी शब्द हय। एकर मतलब अप्पना से होवो हय। सेल्फी के सेल्फिश से जोड़ो हका। सेल्फिश के मतलब स्वारथी होवो हय। लेकिन जहिया से स्मार्टफोन आउ ओटोमेटिक कैमरा हाथ में आ गेला ह। तहिया से सेल्फी के प्रचलन बढ़ गेला ह। अब जिनखरा देखा उ सेल्फी लेवे में मस्त हका। सवाल उ नय हका।
  सवाल इ हका कि सेल्फी अब नयका समाज सेवक के हथियार बन गेला ह। नयका समाजसेवक समाज से ज्यादा सेलफिये में दिखो हथीन। जे कहियो समाज से सरोकार नय रखलथीन। उहो गरीब आउ लाचार के साथ सेल्फी खिंचाके समाजसेवक नियन अप्पन चेहरा चमका रहलथीन ह। सोशल साइट पर लाइक आउ कमेंट पाके नयका समाजसेवक गदगद हो रहलथीन ह।
      सवाल फोटो खिंचावे के नय हका। सवाल उनखर नीयत पर हय। तोहरा पंचायत चुनाव के उदाहरण देहियो। जे कहियो गांव आउ गरीब से नाता नय रखलथीन। उहो आदमी गांववाला के साथ सेल्फी खिंचाके अप्पन चेहरा चमका रहलथीन।कोय अपराधी हका। कोय माफिया हका। कोय भ्रष्ट्राचारी हका। जे कहियो मानवता से लगाव नय रखलथीन। लेकिन पंचायत चुनाव में अप्पन पत्नी आउ परिवार के जितावे ले गरीब के साथ सेल्फी खिंचा रहला ह। 
      सेल्फी के बाद उ गांववाला कैसे रहो हथीन। इ चिंता उ नय करो हथीन। एतने नय। जे कहियो अप्पन माय बाप के आगे भी हाथ नय जोड़लथीन हल, उ जनता के बीच में हाथ जोड़के सेल्फी खिंचवा रहला ह। एकरा सोशल साइट पर डाल के सेल्फीवाला समाजसेवक बनल हथीन। अइसनका समाजसेवक पंचायत चुनावे तक सीमित नय हथीन। एकर पहिले विधानसभा आउ लोकसभा चुनाव में भी अइसनका सेल्फीवाला समाजसेवक खूब देखल गेला हल।
      चुनाव के पहिले झाड़ू लगाके सेल्फी खिंचैलका। कंबल बांटलका। चिकित्सा शिविर लगइलका। पानी के प्याउं लगइलका। दलित बस्ती में सेल्फी खिंचाके हमदर्दी जतैलका। पइसवावाला अदमिया उहे सेल्फिया के मीडिया में भी भुनैलका। मतलब कि सेल्फी से जनता के दिल में उतरे के बडी कोशिश कइलका। 
      राजनीतिये तक इ बीमारी सिमटल नय हका। सेल्फी खिंचावेवाला समाजसेवक के आउ भी केतना अवतार हका। जे अप्पन व्यापार से जिंदगी भर गाहक आउ करमचारी के खून चूसलका। उनखरों पर सेल्फीवाला समाजसेवक बने के भूत सवार हो गेला ह। मिलावटी समान बेचके पइसा कमा लेलका उहो सेल्फीवाला समाजसेवक बनल हथीन।
       इहे नय। अभिभावक के खून चूसके बड़का बिल्ंिडग बना लेलका। बुतरूयन के किताब में कमीशन खा के मोटा गेला। उ भी दु चार गो कंबल आउ गमछा बांट के सेल्फीवाला समाजसेवक बनल हथीन। इ सब्भ चाहता हल तउ अप्पन व्यापार आउ संस्थान से जनता के मदद करता हल। ओकरा ठीक ठाक मजदूरी देता हल। कम मुनाफा पर समान बेचता हल। एकरा से हजारों लोग के फायदा पहुंचता हल।
       एगो सेल्फी के प्रचलन आउ हो। उ राज्य आउ देश में सम्मान पावे वाला पर नजर टिकैले रहो हका। उनखरा उ सब के बनावे में कोय योगदान नय रहो हका। लेकिन उ जब सम्मान लेके आवो हका तउ उनखा साथे सेल्फी खिंचावे में आगे रहो हका। इ सब्भे पांच छह गेंदा फूल के माला ले ले हका। अधिकारी आउ व्यापारी के बीच जाके एक माला सम्मानित प्रतिभा के पहनावो हका। बाकी माला खुद आउ व्यापारी आउ अधिकारी पहन ले हका। फिर सेल्फी खिंचाके समाजसेवी बन जा हका।
        सेल्फीवाला बीमारी से कोय अछूता नय हका। लेकिन अप्पन सेल्फी तो अप्पन अधिकार हका। काहे कि अप्पने लिए जिंदगिये जीला। लेकिन इ सेल्फी में जब समाज के शामिल करो हका तो समाज से सरोकार भी रखा। ऐकर बाद बतावे के जरूरत नय पड़तो। काहे कि समाज चुप रहो हका। लेकिन वह सब देखो हका। उ सेल्फियनवाला समाजसेवक के पहचानों हका।