Monday 10 October 2016

डाॅ. दिवाकर-बचपन में दिनकर का ऐसा चढ़ा फीवर की जो बुढ़ापे में भी नही उतरा

डाॅ.अशोक प्रियदर्शी      
बात 1957 की है। दिवाकर आठवीं कक्षा में थे। तभी दिवाकर के पैतृक गांव बेगूसराय के शोकहरा ग्राम पुस्तकालय में कवि सम्मेलन आयोजित हुआ था। तब विष्णुदेव आर्क ने उस सम्मेलन में रामधारी सिंह दिनकर को आमंत्रित किया था। दिनकर करीब तीन घंटे तक कवि सम्मेलन का हिस्सा रहे। दिनकर ने राष्ट्र, समाज और राजनीति पर केन्द्रित कई कविताएं सुनाई। दिनकर की कविताएं श्रोता के रूप में मौजूद दिवाकर के जीवन पर अमिट छाप छोड़ दिया। डाॅ. दिवाकर कहते हैं कि उसने तभी तय कर लिया था कि वह हिंदी साहित्य का अध्ययन करेंगे।
        दिवाकर साइंस के अच्छे स्टूडेंट थे। लेकिन जब मैट्रिक पास किए तब आर्ट्स से पढ़ाई करने का निर्णय लिया। इसपर परिवार वाले नाराज हो गए। परिजनों ने फटकार लगाई कि हिंदी साहित्य पढ़कर भूखे मरेंगे। लेकिन दिवाकर ने फैसला नही बदला। वह जीडी काॅलेज बेगूसराय से हिंदी में ग्रेजुएशन और पटना यूनिवर्सिटी से पीजी किया। यही नहीं, हिन्दी नाट्य उद्भव और विकास विषय पर पीएच.डी किया। इसके बाद वह अस्थाई तौर पर बरौनी के एपीएसएम काॅलेज में ज्वाइन किया।
       फिर वह 1973 में मगध यूनिवर्सिटी के अंगीभूत इकाई केएलएस काॅलेज नवादा में हिंदी लेक्चरर के रूप में ज्वाइन किया। 2002 में रिटायर किया। इस दौरान वह हिंदी साहित्य से जुड़े गतिविधियां चलाते रहे। वह दृष्टि नामक एक पत्रिका का प्रकाशन किया। पत्रिका में दिनकर, नेपाली, बेनीपुरी, महादेवी, द्विज, निराला, राहुल सांस्कृताय जैसे महान विभूतियों का विशेषांक प्रकाशित किया।
  लेकिन इतना से हिंदी साहित्य का फीवर उतरा नही। वह दिनकर का कर्जदार मानते हैं। लिहाजा, दिनकर के लिए कुछ खास करना चाह रहे थे। लेकिन अध्यापन काल में समय की आपाधापी में उसे पूरा नही कर पाए। लिहाजा, रिटायरमेंट के बाद दिनकर पर काम शुरू कर दिया। इसके तीन चार माह बाद सितंबर 2002 में 640 पेज की पुस्तक प्रकाशित कराया। यह दिनकरनामा, भाग-एक के नाम से आया। इसे प्रकाशित करने का तरीका भी खास था। जनसहयोग से किताब का प्रकाशन किया। इसके बदले में सहयोगकर्ता को पुस्तक उपलब्ध कराया। सहयोग करनेवालों का नाम भी किताब में जिक्र किया।
   डाॅ. दिवाकर यही नहीं रूके। अगस्त 2007 तक दिनकरनामा का पांच भाग प्रकाशित कर दिया। यह दिनकर के जीवन पर केन्द्रित है। 2008 में छठा खंड प्रकाशित हुआ, जो दिनकर के काव्य पाठ पर केन्द्रित है। डाॅ.दिवाकर का मानना है कि उनके जीवन और कविता का अंत नही है। उनपर दस खंड भी कम पड़ेगा। वह कहते हैं कि उनमें इतनी ताकत नही कि वह दिनकर के बारे में इतना लिख सके। दरअसल, दिनकर जी का भूत था जिसका वह माध्यम बने। इसके लिए वह दिन और रात में फर्क नही महसूस किया। भूख मिट गया। इसके लिए पत्नी की डांट भी सुननी पड़ती है।
         अब भी दिनकर के प्रति लगाव कम नही हुआ है। नियमित रूप से नवादा रेलवे स्टेशन के समीप एक चाय दुकान में बैठते हैं, जहां उनके परिचित साहित्यप्रेमी जुटते हैं। ज्यादातर लोगों की चाय फीकी बनती है, लेकिन दिनकर की कविताओं और उनके संधर्षों की कहानियों से स्वाद मिठी लगती है।

किताब लिखने के पहले दिनकर की जाति नही देखी
डाॅ दिवाकर कहते हैं कि जब मैंने पद्मभूषण राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की किताब लिखनी शुरू की थी तब उनकी जाति नही देखी थी। लेकिन ताज्जुब कि जब जब दिनकर की किताब प्रकाशित हुई तब तब उनके कई प्रिय साथियों ने दिनकर की जाति बताई। अहसास कराया कि आप वैश्य यानि तेली समाज से हैं। दिनकर भूमिहार (ब्राहम्ण) समाज से थे। वैश्य समाज के भी कई ख्याति प्राप्त साहित्यकार थे। उनपर किताबें लिखते।
डाॅ. दिवाकर कहते हैं कि इस सवाल का जवाब समझाने में विफल रहा। दिवाकर कहते हैं कि मैं अपने शुभचिंतकों को कैसे समझाउं कि दिनकर जब कविता कह रहे थे तब श्रोताओं की जाति नही पूछी थी। मैं जब सुन रहा था तब उनकी जाति नही देखी थी। तब वक्ता और श्रोता का संबंध था। उसी रूप में उनका अनुयायी बनने का फैसला किया। वह मेरे लिए आदर्श रहे। प्रेरणा स्त्रोत रहे।

परिवारिक पृष्ठभूमि
नवादा नगर के मिरजापुर निवासी डाॅ. दिवाकर बेगूसराय जिले के बरौनी के शोकहरा गांव के रहनेवाले हैं। फिलहाल, नवादा नगर के मिरजापुर में रहते हैं। उनके दो पुत्र बचनेन्द्र कुमार दीपम और पियूष शुभम है। दो पुत्रियां  यामिनी प्रीतम और मंगलम इत्यलम हैं। पत्नी गायत्री कुमारी आरएमडब्लू काॅलेज में समाजशास्त्र की प्रोफेसर थी। लेकिन उनका देहांत हो गया है।

डाॅ. दिवाकर पर शोध
        डाॅ. दिवाकर के जीवन और साहित्य पर शोध किया गया है। काॅलेज आॅफ काॅमर्स, पटना के हिन्दी विभाग के डाॅ. विनोद कुमार मंगलम के निर्देशन में नरेश प्रसाद ने यह शोध किया है। नरेश ने शोध के विषय प्रवेश में लिखा है कि डाॅ. दिवाकर पर शोध के बहाने उनके साहित्यिक क्रिया कलापों और कृतियों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है। ताकि लोग उनके कठिन साहित्यिक श्रम साधना और त्याग के मूल्य को समझ सके।

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