Monday 10 October 2016

पवन कुमार दीक्षित -जिन्होंने अपनी फीस के लिए कभी हाथ नही फैलाई

डाॅ. अशोक प्रियदर्शी
बात 54 साल पहले की है। साल 1962 में बिहार के नवादा जिले के पार नवादा में सत्येंद्र हाई स्कूल की स्थापना की गई थी। बुंदेलखंड निवासी पवन कुमार दीक्षित इसके संस्थापक सदस्य थे। वह स्कूल के प्रथम टीचर के रूप में योगदान दिया। कई सालों तक प्रिसिंपल रहे। 1969 में राज्य सरकार स्कूल को अधिग्रहण कर लिया। तब स्कूल की जिम्मेवारी अपने सहयोगी को सौंपकर दीक्षित एक नई राह पर चल दिए। वह वकालत शुरू की। पिछले 45 सालों से वह नवादा सिविल कोर्ट में वकालत कर रहे हैं। 82 वर्षीय दीक्षित अपने वकालत पेशे से संतुष्ट हैं। उनकी संतुष्टि की वजह पैसे कमाना नही बल्कि लोगों का प्यार पाना रहा है। 
        स्थानीय अधिवक्ताओं के मुताबिक, वह केस की संख्या पर कभी ध्यान नही दिया, वह मुवकिल की मुश्किलों पर गौर किया। वह ऐसे मामले की पैरवी करने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई, जिन्हंे न्याय की ज्यादा जरूरत थी। दरअसल, दीक्षित वकालत पेशे को रोजगार नही बल्कि सेवा का जरिया माना। लिहाजा, उन्हें रूपए से ज्यादा समाज में प्रतिष्ठा मिली। उन्हें जो दे दिया वह ले लिए। फीस के लिए कभी हाथ नही फैलाई। लिहाजा, उनकी ईमानदार छवि कायम हुई। हालांकि दीक्षित मानते हैं कि ईमानदारी एक लंबी प्रक्रिया है कि कोई अछूता नही रह जाता। वह कहते हैं कि पेशा की अवधारणाएं है जिसका निर्वहन करनी पड़ती है। लेकिन चिंता इस बात कि है कि हमें न्यायाधीश बनकर सोचने के बजाय अपराधी बन गए।
दरअसल, दीक्षित अपने पिता के व्यक्तित्व से काफी प्रभावित थे। उनके पिता पंडित श्रीधर दीक्षित आजादी के समय से सामाजिक जीवन में सक्रिय थे। देश के कई बड़े आंदोलनकारियों से उनका सरोकार रहा। श्रीधर दीक्षित अधिवक्ता थे। उनकी इच्छा थी कि उनका पुत्र भी वकालत करे। पवन दीक्षित कहते हैं कि वह पिता की राह पर चलने की कोशिश की, लेकिन वैसा नही बन पाए। देखें तो, उनके पिता बेहतर फुटबाॅल खिलाड़ी भी थे, तबतक जीवित रहे तबतक उसके कैप्टन रहे। नाटक के एक्टर और डायरेक्टर रहे। वह अच्छे कवि और लेखक भी रहे। अच्छे वक्ता भी रहे।


जब मौका मिला मिसाल प्रस्तुत किया
        पवन दीक्षित को जहां जहां मौका मिला वह मिसाल प्रस्तुत किया। वह चाहते तो सत्येंद्र हाई स्कूल में प्रिसिंपल रह सकते थे। लेकिन अधिग्रहण होते ही रास्ता बदल लिया। राजेंद्र मेमोरियल महिला काॅलेज के संस्थापक सदस्य हैं। वह चाहते तो अंगीभूत होने के समय अपनों को नौकरी दिला सकते थे। लेकिन वह नियत नही बदले। यही कारण है कि जिले में अब भी जब कभी किसी तटस्थ व्यक्ति की याद की जाती है तब पहला नाम दीक्षित का लिया जाता हैं। उन्होंने सामाजिक क्षेत्र में कई उल्लेखनीय काम किया है।
        दीक्षित 1987-91 तक लोक अभियोजक रहे पर वह किसी पक्ष का एक कप चाय तक नही पी। श्रेय इस बात की है कि उस समय किसी भी प्रभावशाली व्यक्ति ने उनपर दबाव नही बनाया। कई प्रभावशाली लोगों से संपर्क रहे, लेकिन उनसबों ने कभी दखल नही दिया। वह कहते हैं कि हर पेशे में परिवर्तन हो रहा है, इससे वकालत भी अछूता नही है। फिर भी वकालत अच्छा पेशा है। संतोष इस बात की है कि अच्छा से निभ गया। वह जिला उपभोक्ता फोरम के भी पांच साल तक सदस्य रहे। वहां भी अपनी अलग छवि बनाई। वह कहते हैं कि चेयरमैन के पद पर रिटायर पर्सन को नही भेजा जाना चाहिए।

सादगी भरी जिंदगी
दीक्षित की सादगी भरी जिंदगी है। खान पान और रहन सहन साधारण है। उम्र और परिस्थितियों की वजह से दिनचर्या सीमित हो गई है। फिर भी वह हर रोज कैंपस की सफाई करते हैं। पूजा पाठ करते हैं। कोर्ट भी जाते हैं। लौटने के बाद घर पर नियमित रूप से मित्रों के साथ बैठकर बातें करते हैं। 

दीक्षित की पारिवारिक पृष्ठभूमि
       दीक्षित मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड के मूलनिवासी हैं। लेकिन सात आठ पीढ़ी पहले नवादा में आकर बसे थे। लिहाजा, यह इलाका बुंदेलखंड के नाम से जाना जाता है। बुंदेलखंड की रहन सहन, भोजन आदि की परंपरा कायम है। दीक्षित के पांच बेटे और तीन बेटियां हैं। सभी की शादियां हो चुकी है। दीक्षित पुस्तैनी मकान में रहते हैं। जीविका का साधन खेती रहा है। लेकिन बेटे अब नौकरी पेशा में हैं। हालांकि नई पीढ़ी में पुष्प पावन दीक्षित वकालत की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। बाकी चार पुत्रों में प्रफुल पंकज बिजनेसमैन, कमल कोमल लेक्चरर, प्रसून्न टीचर जबकि पीयूष डिफेंस मंत्रालय में कार्यरत हैं। 

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