Thursday 24 March 2016

मगध में बुढ़वा होली का अलग रंग

डॉ अशोक प्रियदर्शी 
        मणिपुर में तीन दिनों तक अध्यात्मिक तरीके से होली मनाई जाती है। इसे याओसंग उत्सव के रूप में लोग जानते हैं। ठीक इसी तरह ब्रज, गोकुल, मथुरा, बरसाने, अवध, मिथिला और मुंबइया होली मनाई जाती है। इसके बारे में भी देश और दुनिया के लोग परिचित हैं। लेकिन बिहार के मगध इलाका में भी एक होली मनाई जाती है। इसके रंग से बहुत कम लोग वाकिफ हैं। मगध में यह बुढ़वा होली के नाम से प्रचलित है। बुढ़वा होली का त्योहार होली के अगले दिन मनाया जाता है। 
         मगध के गया, जहानाबाद, औरंगाबाद, नवादा, शेखपुरा, नालंदा और जमुई इलाका में बुढ़वा होली का काफी प्रचलन है। धीरे धीरे यह व्यापक स्वरूप लेता जा रहा है। खास कि बुढ़वा होली के दिन सरकारी स्तर पर छुटट्ी नही रहती। लेकिन इस क्षेत्र में अघोषित तौर पर छुटट्ी जैसी स्थिति रहती है। सरकारी और गैर सरकारी संस्थान बंद रहते हैं। सड़क, मुहल्ले और गलियों में होली की गूंज होती है। लोग होली के जश्न में डूबे होते हैं।
        बुजुर्ग डाॅ एसएन शर्मा कहते हैं कि जो लोग चैत माह के पहले दिन होली के रंग से नही भींगते। वह दूसरे दिन मनाए जानेवाले होली के रंग से बेसक रंग जाते हैं। लोग इसलिए भी रंग जाते हैं क्योंकि होली के दिन लोग आधे दिन मिटट्ी व धूल से खेलते हैं। दोपहर बाद रंग-गुलाल लगाते हैं। समय की आपाधापी में दिनभर में लोग सभी के साथ होली नही खेल पाते हैं। लेकिन बुढ़वा होली के दिन सबेरे से रंग की शुरूआत होती है, जो रात तक चलती है।
        गांव और शहर दोनों जगह बुढ़वा होली परवान पर होता है। बुढ़वा होली के दिन होली गानेवालों (होलवइया) की टोली-जिसे झुमटा कहते हैं- अराध्य स्थलों से निकलकर कस्बे-टोले और मुहल्ले में होली गाते हुए गुजरता है। गाने की शुरूआत ढोलक, झाल, करताल, के धुनों के बीच अराध्य देव की सुमिरन (प्रार्थना) से होती हैं। फिर बुजुर्गों पर केन्द्रित गाने और फक्कर गीत के साथ बुढ़वा होली चरम पर पहुंचता है। बुजुर्ग पर केन्द्रित- भर फागुन बुढ़वा देवर लागे.... बहुत ही लोकप्रिय गीत है। यही नहीं, बुजुर्गों पर केन्द्रित कई ऐसे गीत हैं जो बसंत में मंद पड़ी उत्साह को जागृत करने के लिए गाते हैं।
        भंग का रस होलवइया के उत्साह को दोगुना कर देता है। खास कि बुढ़वा होली के कपड़े भी बुढ़ापे की अवस्था जैसी होती है। होली के दिन रंगों से सरावोर कपड़े ही लोगों के शरीर पर चढ़े होते हैं। ताज्जुब कि मगधवासियों में रंग का उत्साह पहले दिन से कुछ ज्यादा ही गहरा और यादगार होता है। मगध में बुढ़वा होली के संबंध में कई लोक कथाएं हैं। इसे आदिकाल और आधुनिक काल की परिस्थितियों और वृतांतों से भी जोड़कर देखते हैं। यह धीरे धीरे व्यापक स्वरूप अख्तियार लिया है।
       किवदंति है कि मगध के एक राजा होली के दिन बीमार पड़ गए थे। लिहाजा, वह होली के दिन होली नही खेल पाए थे। उसके अगले दिन सबों के साथ होली खेले थे। तबसे यह परंपरा माना जा रहा है। लेकिन कुछ लोग इसे आदिकाल का बदला स्वरूप मानते हैं। होली के गाने से इसकी प्राचीनता को जोड़ते हैं। बुढ़वा दानी होके बैठअल जंगलवा में...।’  
      वरिष्ठ साहित्यकार रामरतन प्रसाद रत्नाकर कहते हैं कि बुढ़वा होली की प्रासंगिकता शिव पुराण से भी मेल खाता है। रत्नाकर के मुताबिक, आदिकाल में होली के दिन भगवान विष्णु-महालक्ष्मी होली खेल रहे थे। तब नारद मुनि ने इसकी चर्चा भगवान शिव से की थी। तब शिव ने नारद को यह कहकर टाल गए थे कि जब कोई अराध्यदेव श्रृंगार रस में लीन हों तो उसकी चर्चा दूसरों से नही करनी चाहिए। 
      लेकिन भगवान शिव ने अपने प्रमुख गण वीरभद्र को बताया था कि मंगल का दिन हो और अभिजीत नक्षत्र हो, उस दिन वह होली खेलते हैं। आज भी पंचागांें में ‘बुढ़वा मंगल’ का जिक्र मिलता है। बदलते समय के साथ लोग मंगल दिन का इंतजार करने के बजाय होली के दूसरे दिन होली खेलने लगे। यही मगध में बुढ़वा होली के रूप में प्रचारित हुआ है।
       विष्णुदेव पांडे कहते हैं कि शीत ऋृतु में मानव का शरीर सुसुप्तता अवस्था में होता है। लेकिन बसंत पंचमी से मौसम में बदलाव का असर मनुष्यों के अंतःसंबंध, वेशभूषा और खानपान पर पड़ता है। जाहिर तौर पर मौसम, प्रकृति, व्यंजन यह सब एक दूसरे से जुड़े होते हैं। इस उत्साह की चरम उत्कर्ष होली के बाद भी कई दिनों तक होती है। बतानेवाली बात यह है कि बुढ़वा होली सिर्फ बुजुर्ग ही नही मनाते। यह हर उम्र के लोगों को मदमस्त बनाता है। लिहाजा, मगध में लोक संस्कृति का अहम हिस्सा बन गया है।
-लेखक एक पत्रकार हैं .

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