अशोक प्रियदर्शी
बिहार में नीतीश कुमार की अगुआई में महागठबंधन
की सरकार छह माह पूरी कर ली है। इस दौरान नीतीश सरकार बिहार में पूर्ण शराबबंदी का
ऐतिहासिक फैसला लेकर देश और दुनिया में दृढ़ संकल्प का संदेश देने की कोशिश किया
है। महिलाओं को सरकारी नौकरियों में 35 फीसदी आरक्षण
का प्रावधान किया गया हैं। महागठबंधन की सरकार चुनाव के पहले किए गए सात निश्चय के
वादे को पूरा करने के लिए कैबिनेट से मंजूरी प्रदान कर दी है। युवा पीढ़ी को शिक्षा,
कौशल विकास, सभी गांवों में बिजली कनेक्शन, हर
घर को नल से पानी और सड़क जैसे काम शामिल है।
लेकिन महागठबंधन की यह सरकार उस अवधारणा को दूर
कर पाने में विफल रही है, जिसे लेकर विरोधी सवाल उठाते रहे हैं। 20
नवंबर 2015 को बिहार में जब कांग्रेस के समर्थन से जदयू प्रमुख नीतीश कुमार और
राजद प्रमुख लालू प्रसाद के महागठबंधन की सरकार बन रही थी तब विरोधी सवाल उठा रहे
थे कि यह सरकार चलनेवाली नही है। यह अवसरवादियों की सरकार है। दरअसल, बिहार
सरकार के दो बड़े साझेदार आपस में चूहा और बिल्ली का खेल खेल रहे हैं। यह आपको तय
करना है कि कौन चूहा है और कौन बिल्ली!
वैसे दोनों बड़े नेता चट्टानी एकता के दावे करते रहे हैं। लेकिन शायद ही कोई अवसर
रहा हो जब एक दूसरे को मात देने से चूक रहे हों।
देखे
तों, 20 नवंबर को सरकार की उपलब्धियों को गिनाने का दिन था। लेकिन सरकार
सबसे बड़े सहयोगी राजद के दिग्गज नेताओं ने नीतीश कुमार की कार्यशैली पर सवाल उठा
रहे थे। सता पक्ष के लोग ही विपक्षी की भाषा बोल रहे थे। राजद नेता तसलीमुददीन ने
कहा कि बिहार में जंगलराज नही महाजंगलराज है। नीतीश मुखिया बनने लायक नही हैं। डाॅ
रघुवंश प्रसाद सिंह और प्रभुनाथ सिंह ने भी नीतीश कुमार की कार्यशैली पर सवाल
उठाये। जदयू भी पीछे नही रही। जदयू नेता श्याम रजक, संजय
सिंह ने भी प्रतिवाद किया। हालांकि लालू प्रसाद के दखल के बाद यह मामला शांत हो
गया है। लेकिन संशय खत्म नही हुआ है।
दरअसल,
2014 के लोकसभा चुनाव के बाद जब लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के एक मंच पर
आने की बात हो रही थी। तब लोगों को भरोसा नही हो रहा था कि पुराने दुश्मनी को
भूलाकर दोनों साथ आ पाएंगे। तब दोनों नेताओं ने एक मंच पर आकर संदेश दिया कि
सियासत में कोई स्थायी दोस्त और स्थायी दुश्मन नही होता। नीतीश भाजपा से 17
साल पुरानी दोस्ती तोड़ लिया और लालू से 20 साल पुराने
सियासी दुश्मनी को भूलाकर उनके साथ आ गए।
अजीबोगरीब
स्थिति है कि दोनों नेताओं के दलों की सरकार है। लेकिन अपवाद को छोड़ दें तो दोनों
नेता मंच साझा करने से परहेज करते रहे हैं। जबकि दोनों दल विलय की बात करते रहे
हैं। लेकिन यूपी चुनाव को लेकर दोनों दलों की अलग अलग रणनीति है। यही नहीं,
बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद लालू प्रसाद की पहली
प्रतिक्रिया थी कि नीतीश कुमार बिहार संभालेंगे, जबकि वे
(लालू प्रसाद) देश में सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ लड़ाई लड़ेंगे। लेकिन अब
परस्पर विरोधी हालात हैं। नीतीश कुमार संघमुक्त भारत अभियान की शुरूआत की है।
नीतीश कुमार अपनी ब्रांडिंग के लिए प्रशांत किशोर की मदद ले रहे हैं।
दूसरी तरफ, लालू प्रसाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के
करीबियों से मेलजोल दिखा रहे हैं। नरेंद्र मोदी के भरोसेमंद बाबा रामदेव से लालू
प्रसाद चेहरे चमका रहे हैं। यही नहीं, लालू प्रसाद
उपमुख्यमंत्री पुत्र तेजस्वी यादव के साथ केन्द्रीय परिवहन मंत्री नीतिन गडकरी और
रेल मंत्री सुरेश प्रभु के साथ मुलाकात की सरकारी स्तर पर प्रकाशित विज्ञापनों से
भी संशय की स्थिति उत्पन्न हो रही है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री
तेजस्वी यादव के अलग अलग विज्ञापन प्रकाशित होते रहे हैं। हालांकि दोनों दलों के
नेता इसे सुप्रीम कोर्ट का हवाला दे रहे हैं कि सरकारी विज्ञापन पर एक बार में एक
ही चेहरे हो सकते हैं। लेकिन सवाल यह उठाए जा रहे हैं कि ऐसी क्या परिस्थितियां है
कि दोनों को बारी बारी से अलग अलग तस्वीर छापनी पड़ रही है।
दरअसल, 15 साल तक लालू प्रसाद और उनकी पत्नी राबड़ी देवी
सता में रही हैं। तब नीतीश कुमार विरोध की राजनीति करते थे। उसके बाद जब नीतीश दस
साल सता में रहे तब लालू प्रसाद विरोध की राजनीति करते रहे। विगत 25
सालों के अंतराल में दोनों नेताओं के बारे में समाज में सता और विपक्ष के रूप में
अवधारणा बनी है। 2015 के चुनाव में उस अवधारणा से अलग दोनों सता में
आ गए हैं। लेकिन चूहा और बिल्ली के इस खेल से समाज में व्याप्त पुराने अवधारणा से
लोगों को मुक्त नही कर पाएं हैं।
यही नहीं, पिछले छह
माह में बिहार सरकार कथित तौर पर उस जंगलराज की अवधारणा को नही खत्म कर पाई है,
जिसे लेकर विरोधी सवाल खड़ा करते रहे हैं। अपराध की बड़ी घटनाओं में
बढ़ोतरी हुई है। मुश्किल कि सतापक्ष के दर्जनभर जनप्रतिनिधि और उनके परिजनों ने कई
ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया। इससे बिहार की कानून व्यवस्था पर सवाल उठने लगे हैं। गैंगवार
की घटनाएं शुरू हो गई है। चिकित्सक और व्यवसायी पर हमला बढ़ गए हैं। लेकिन कठोर कदम
उठाने मंे पुलिस और प्रशासन की फूंक फूंक कर कदम रख रही है। इसकी वजह महागठबंधन
दलों के बीच चूहे और बिल्ली का खेल रहा है।
यही वजह है कि अपराध नियंत्रण पर ठोस कार्रवाई करने के बाद भी सरकार के हाथ
खाली रह जा रहे हैं। इसका श्रेय मीडिया और विरोधी उठा रहे हैं। गया रोडरेज प्रकरण
में सरकारी पहल के बाद गया की जदयू एमएलसी मनोरमा देवी को सरेंडर करना पड़ा। उसके
पुत्र राॅकी और पति बिंदी यादव को जेल भेज दिया गया। देखें तो, एमएलसी
परिवार पर एफआईआर करने में 26 घंटे का समय लग गया। इसके पहले नवादा
के राजद विधायक के प्रकरण में भी ऐसा ही दिखा। वह एक माह बाद अपनी मर्जी से सरेंडर
किया। लेकिन विधायक के खिलाफ तीन दिन बाद रेप की प्राथमिकी दर्ज हुई। राजबल्लभ एक
माह तक आंखमिचैनी खेलते रहा, लेकिन पुलिस गिरफ्तार करने की साहस नही
दिखा पाई। पुलिस औपचारिकताएं पूरी करती रही।
दरअसल,
नीतीश कुमार की यह कार्यशैली 2005 की छवि
से अलग करता है। नीतीश जब मुख्यमंत्री बने थे तब उनके दल के एक विधायक ने होटल में
हंगामा किया था। तत्काल जेल भेज दिया गया था। लेकिन अब गंभीर अपराधों के आरोपी
प्रतिनिधियों और उनके परिजनों पर कार्रवाई में भी काफी वक्त लग रहे हैं। संभव हो
सियासत का हिस्सा रहा हो। लेकिन ऐसी सियासत से नागरिकों का भरोसा टूट रहा है,
जिन्होंने आप पर भरोसा किया है। दरअसल, एक पक्ष
को लगता है कि बदनामी वाला पार्ट उन्हें नही दागदार बना पाएगा। जबकि दूसरे पक्ष को
लगता है कि जब श्रेय आपको मिलेगी तब बदनामी से कैसे पीछा छूड़ाएंगें।
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