Thursday 12 February 2015

जिन्होंने अंग्रेजों को छक्का छुड़ाया, अंग्रेजों ने उन्हें डकैत का नाम देकर चला गया

डाॅ. अशोक कुमार प्रियदर्शी
जवाहिर और एतवा राजवंशी ने  अंग्रेजों को  पसीना छुड़ाया था।  लेकिन अंग्रेजों ने  उन्हें दिया था डकैत का नाम। ब्रिटिश नीति के कारण गुमनाम रहे नायकों के नाम

         
          भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन में नवादा जिलेे के पसई निवासी जवाहिर रजवार और कर्णपुर निवासी एतवा रजवार की उल्लेखनीय भूमिका रही है। नवादा-नालंदा इलाका मंे होनेवाले विद्रोह की हर घटनाओं में दोनों के नाम आ रहे थे। जैसा कि 1857ः भारत की स्वातंत्रता आंदोलन में बिहार झारखण्ड किताब, बिहार सरकार की पत्रिका और जिला प्रशासन के स्मारिका में उल्लेख मिलता है। लेकिन अंग्रेजों की फूट डालों और शासन करो की नीति का खामियाजाना कि गणतंत्र के ये दोनों आजादी के छह दशक बाद भी गुमनाम रहे हैं।
         दरअसल, विद्रोह के दौरान जवाहिर और एतवा ने अंग्रेंजों को नाकोदम कर दिया था। सरकारी कचहरी, बंगले, जमींदार और उसके कारिंदे की सम्पति विद्रोहियों के निशाने पर था। विद्रोहियों को जब मौका मिलता घटना को अंजाम देने से नही चूकते थे। कई जमींदारों ने भी विद्रोहियों को समर्थन देना शुरू कर दिया था। तब अंग्रेज अधिकारियों ने विद्रोह पर काबू पाने के लिए विद्रोहियों को चोर और डकैत जैसा नाम देने लगे थे, ताकि विद्रोहियों से लगाव के बजाय नफरत पैदा हो।
अंग्रेज अपनी इस कुटनीति में काफी हद तक सफल भी रहे। 27 सितंबर 1857 को जवाहिर करीब 300 आदमियों के साथ विद्रोह की रणनीति बना रहे थे। तभी अंग्रेज सैनिकों ने घेर लिया और गोलियां बरसानी शुरू कर दी थी। इस घटना में जवाहिर के चाचा फागू रजवार की मौत हो गई थी। कई जख्मी हो गए थे। फिर जवाहिर की भी मौत हो गई थी। लेकिन 29 सितंबर को तत्कालीन डिप्टी मजिस्ट्रेट वर्सली ने लिखा कि जवाहिर डकैती में मारा गया।
इसके पूर्व 12 सितंबर को एतवा की गिरफ्तारी के लिए अंग्रंेज और जमींदारों की सेना एतवा के गांव कर्णपूर जा रहे थे, तभी सकरी नदी के किनारे भिड़ंत हो गई। इस घटना में एतवा बच निकले, लेकिन उनके 10-12 साथी शहीद हो गए। तब एतवा की गिरफ्तारी के लिए 200 रूपए का इनाम घोषित किया था। कई साल बाद 8 अप्रैल 1863 को करीब 10000 पुलिस, मिलिट्ी और जमींदार की फौज का अभियान चला, लेकिन एतवा बच निकला था।
            दस्तावेज बताते हैं कि एतवा के नेतृत्व में 10 सालों तक छिटपुट विद्रोह चला था। बाद में विद्रोही नेताओं का क्या हुआ कुछ पता नही। लेकिन दुख की बात यह कि ग्रामीणों के बीच जब एतवा और जवाहिर की चर्चा होती है तब उनकी जुबां से अंग्रेजों का दिया नाम निकलता है। गणतंत्र के मौके पर सोचने की जरूरत है कि यह है कि अंग्रेज गए लेकिन उनकी नीति अब भी जिंदा है। यही वजह है एतवा और जवाहिर को सेनानी का दर्जा नही मिल पा रहा है। अब इसकी थोड़ा बहुत चर्चा भी होती है तो वह बहुत छोटे दायरे में राजवंशी समाज के बीच।






अपसढ़ में है नालंदा से प्राचीन विश्वविधालय के अवशेष, लेकिन उसमें बांधे जाते हैं मवेशी

डाॅ. अशोक कुमार प्रियदर्शी
          बिहार के नवादा जिले के वारिसलीगंज प्रखंड के अपसढ़ गांव में नालंदा से भी प्राचीन विश्वविधालय के अवशेष मिल चुके हैं। लेकिन इसकी सुरक्षा भगवान भरोसे हैं। वैसे, मार्च 2011 में बिहार के कला संस्कृति विभाग ने 2.18 एकड़ गढ़, 74. 20 एकड़ तालाब और तीन डिसमील वराह मूर्ति के लिए भूमि को संरक्षित कर दिया है। लेकिन जमीन पर इस दिशा में कोई पहल नही किया जा सका है। लिहाजा, ऐतिहासिक महत्व के पुरातात्विक साक्ष्य का नुकसान हो रहा है।

गढ़ और तालाब का अतिक्रमण हो रहा है। वराह की मूर्ति क्षतिग्रस्त हो रहा है। गांव में सैकड़ों मूर्तियां बिखरी पड़ी है। मूर्तियों में मवेशी बांधे जा रहे हैं। दर्जनों कीमती मूर्तियां गायब कर दी गई है। यही नहीं, गढ़ की भीतियों में रामायण के प्रसंगों का आकर्षक चित्र था, जो संरक्षण के अभाव में नष्ट हो गया है। यही नहीं, सरकारी स्तर पर संरक्षित क्षेत्र को अतिक्रमण किया जा रहा है। अपसढ़ सरोवर के किनारे मनरेगा भवन, आंगनबाड़ी केन्द्र और शौचालय निर्माण करा दिए गए हैं। कई भूमिहीनों को संरक्षित क्षेत्र में जमीन का परचा दे दिया गया है। संरक्षित सरोवर पर मत्स्य विभाग का कब्जा है।

      अपसढ़ विरासत समिति के संयोजक युगल किशोर सिंह ने कहा कि कई दफा जिला प्रशासन से इसकी शिकायत की गई है। कला संस्कृति और युवा विभाग के निदेशक अतुल कुमार वर्मा ने जिला प्रशासन को संरक्षित घोषित अपसढ़ को अतिक्रमण मुक्त करने का पत्र लिखा है। हालांकि जिलाधिकारी ललनजी के मुताबिक, अधिकारी को आवश्यक कार्रवाई के लिए निर्देश दिया जा चुका है। गौरतलब हो कि राज्य सरकार ने अपसढ़ के विकास के लिए एक करोड़ रूपए राशि का प्रावधान भी किया है। लेकिन इस दिशा में पहल नही किया जा सका है।

क्या है अपसढ़ का इतिहास
1970-80  के दशक में कला संस्कृति विभाग के तत्कालीन निदेशक डाॅ प्रकाश शरण प्रसाद के नेतृत्व में की गई खुदाई मंे नालंदा से प्राचीन यूनिवर्सिटी का अवशेष मिला था। इसे धार्मिक महाविहार का अवशेष करार दिया। शाहपुर में प्राप्त मूर्ति में ‘अग्रहार’ का जिक्र मिला था। डाॅ. प्रकाश के मुताबिक, ‘अग्रहार’ शब्द के मुताबिक यह तक्षशिला के समकालीन था। तक्षशिला का जिक्र भी अग्रहार के रूप में मिलता है। मेजर कीटो, कनिंघम, एएम ब्रोडले, बिहार डिस्ट्रिक्ट गजेटियर और एंटीक्यूरीयन रीमेंस इन बिहार में अपसढ़ की चर्चा है। वराह की मूर्ति है, जिसकी तुलना मध्यप्रदेश के एरन में स्थापित मूर्ति से की जाती है।