Saturday 21 November 2015

बिहार में काम न आया मोदी का चक्रव्यूह

अशोक प्रियदर्शी
  सोलह माह पहले की कहानी है। लोकसभा चुनाव में पार्टी की खराब प्रदर्शन के कारण जदयू नेता नीतीश कुमार मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिये थे। उनकी जगह तत्कालीन एससीएसटी कल्याण मंत्री जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया गया। संदेश स्पष्ट था कि 2015 के विधानसभा चुनाव में दलित मतों का धु्रवीकरण जदयू के पक्ष में हो सके। मुख्यमंत्री बनने के माह भर के अंतराल में 21 जून को मांझी की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से दिल्ली में मुलाकात हुई। इसे शिष्ट्राचार मुलाकात बताया गया। मांझी ने कहा कि बिहार के विकास के मसले पर प्रधानमंत्री का रूख सकारात्मक है। जदयू और भाजपा के विरोधाभासी बयानों के बीच मांझी की यह टिप्पणी जदयू को हैरान कर दिया।
      चूंिक मांझी की प्रतिक्रिया पार्टी की रणनीति से अलग थी। क्योंकि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को पीएम उम्मीदवार घोषित किए जाने की प्रतिक्रिया में जदयू नेता नीतीश कुमार ने भाजपा से 17 साल पुराने संबंध तोड़ लिये थे। 2014 का लोकसभा चुनाव वामदल के साथ जदयू लड़ी थी। जदयू 38 में से सिर्फ दो सीटें जीती थी। इस चुनाव में भाजपा को बहुमत मिली थी। लिहाजा, नीतीश मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिये थे। लेकिन नरेंद्र मोदी से मुलाकात के बाद मांझी की टिप्पणी पार्टी जनों को हजम नही हो रही थी। पार्टी के अंदर से मांझी की आलोचना की जाने लगी। इसके जवाब में मांझी कहते रहे कि उन्हें मोहरा के रूप में इस्तेमाल किया जाना पसंद नही
      मांझी पार्टीजनों के आलोचनाओं से पीछे मुड़ने के बजाय आगे बढ़ते गए। प्रधानमंत्री और केन्द्रीय मंत्रियों के साथ मांझी सहज दिखने लगे। भाजपा नेताआंे से बढ़ती नजदीकियों का पटाक्षेप करीब साल भर बाद 11 जून 2015 को हुआ, जब मांझी ने भाजपा के साथ मिलकर 2015 का विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा किये। मांझी की नवगठित हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा 20 सीटों पर महागठबंधन (जदयू, राजद और कांग्रेस ) के खिलाफ चुनावी समर में हैं। मांझी खुद मखदुमपुर के अलावा विधानसभा अध्यक्ष उदयनारायण चैधरी के खिलाफ इमामगंज से चुनाव मैदान में हैं। मांझी कहते हैं- नीतीश कुमार को सता से बेदखल करना उनका मुख्य मकसद है।
       दरअसल, नीतीश कुमार के खिलाफ मांझी के मुखर होने के पीछे भाजपा की राजनैतिक चाल रही है। इसके लिए भाजपा एक साल से योजनाबद्ध तरीके से काम कर रही थी। मिसाल के तौर पर 3 फरवरी 2015 को बिहार दौरे के क्रम में केन्द्रीय मंत्री उमा भारती ने कहा कि केन्द्र और राज्य के साथ मिलकर काम करने में मांझी एक आदर्श उदाहरण हैं। जबाव में मांझी ने कहा कि विकास के प्रति उमा भारती का रूख सकारात्मक है। हालांकि जदयू नेताओं के आरोप रहे हैं कि मांझी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के स्क्रिप्ट पर काम कर रहे हैं। लेकिन विरोधाभाषी ब्यानों के कारण दूरियां इस कदर बढ़ गयी कि जदयू ने मांझी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव ला दिया। तब मांझी के पक्ष में जदयू के बागी सदस्यों के अलावा भाजपा खड़ी दिखी। 
        दरअसल, 16 जून 2013 को भाजपा से जदयू के अलग होने के बाद से ही भाजपा नीतीश कुमार को घेरने की योजना पर काम कर रही थी। 2014 लोकसभा चुनाव के पहले लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान और रालोसपा प्रमुख उपेन्द्र कुशवाहा से गठबंधन किया। कुल 40 सीटों में भाजपा-30, लोजपा-7 और रालोसपा-3 सीटों पर चुनाव लड़ी। इसमें भाजपा 22, लोजपा 6 और रालोसपा 3 सीटें जीतीं। वहीं राजद चार, जदयू और कांग्रेस-दो-दो जबकि राकंपा-एक सीट जीती। लोकसभा चुनाव में नीतीश के विरोधियों को गले लगाने से हुये लाभ के बाद भाजपा ने अपने दायरे को बढ़ा लिया।जैसा कि जानते हैं नीतीश से गतिरोध के बाद कुशवाहा ने रालोसपा का गठन किया था।जबकि 15 सालों से पासवान नीतीश के विरोध की राजनीति करते रहे हैं।             2010 में निर्वाचित लोजपा के तीन विधायकों को जदयू ने शामिल कर लिया था।भाजपा नीतीश के ऐसे दुश्मनों को साधकर नीतीश को घेरने की कोशिश की है। नीतीश को मात देने के लिए मांझी, पासवान और कुशवाहा को अपना गठबंधन में शामिल करने के अलावा भाजपा ने नीतीश के बागी विधायकों को भी गले लगाया है। भाजपा ने पार्टी के 14 विधायकों का टिकट काट दिया। जबकि दूसरे दलों के 11 विधायकों को अपनाया। मांझी भी ज्यादातर नीतीश के बागी विधायकों को उतारा। बिहार के 243 सीटों में भाजपा-160, लोजपा-40, रालोसपा-23 और हम 20 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। 
        ऐसा नही कि भाजपा की व्यूह रचना को नीतीश नही समझ पाये। भाजपा को इसका जवाब देने के लिए नीतीश 20 साल पुराने दुश्मनी को भूलाकर राजद प्रमुख लालू प्रसाद से हाथ मिला लिया। कांग्रेस को भी साझीदार बनाकर महागठबंधन बनाया। 2014 लोकसभा चुनाव के बाद हुये दस सीटों के विधानसभा उपचुनाव में इसका असर भी दिखा। महागठबंधन दस में से छह सीटें जीत गयीं। राजद-तीन, जदयू-दो और कांग्रेस-एक सीटें जीती। वहीं भाजपा अपने कब्जे वाली छह में से दो सीटें गंवा दी। 
      दरअसल, नीतीश और लालू को करीब आने की वजह लोकसभा चुनाव के परिणाम थे। लोकसभा चुनाव में एनडीए (भाजपा, लोजपा और रालोसपा) 38.8 फीसदी मत लाकर 31 सीटें जीत गयी थी। वहीं जदयू, राजद, कांग्रेस और राकंपा 46.28 फीसदी मत लाकर भी हार गये थे। क्योंकि सब अलग अलग चुनाव लड़े थे। जदयू को 16.04, राजद 20.46, कांग्रेस 8.56 और राकंपा को 1.22 फीसदी मत मिले थे। दूसरी तरफ, भाजपा को 29.86, लोजपा 6.50, रालोसपा को तीन फीसदी मत थे। 
      इस गणितीय आकड़े के आधार पर विधानसभा के उपचुनाव में मिली कामयाबी के बाद नीतीश और लालू राष्ट्रीय स्तर पर छह दलों के विलय का एलान कर दिये। समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव इसके अध्यक्ष बनाये गये। ताज्जुब कि 2015 विधानसभा चुनाव से पहले इस महागठबंधन से सपा और राकंपा अलग हो गयी। राकंपा नेता और सांसद तारिक अनवर ने कहा कि महागठबंधन को सिर्फ मुस्लिम मत चाहिए, मुस्लिम टिकट और चेहरा नही। अनवर कम से कम 12 सीटों का दावा कर रहे थे। लेकिन सीट बंटवारे में जदयू -100, राजद-100, कांग्रेस-40 और राकंपा को तीन सीटें दी गयी थी। 
       दूसरी तरफ, सपा ने नाता तोड़कर महागठबंधन को बड़ा झटका दिया है। सपा के महासचिव रामगोपाल यादव ने कहा कि जदयू, राजद और कांग्रेस के गठबंधन से सपा अलग चुनाव लड़ेगी। हम पार्टी के डेथ वारंट पर साइन नही करेंगे। इतना ही नहीं, राजद सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव भी महागठबंधन की मुश्किलें बढ़ायी। पप्पू यादव, तारिक अनवर और पूर्व केन्द्रीय मंत्री नागमणि ने सपा के साथ मिलकर समाजवादी धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बनाया है। 
        इस फ्रंट में सपा-85, जन अधिकार पार्टी-64,राकंपा-40, एनपीपी-3,  समरस समाज पार्टी- 28, समाजवादी जनता दल राष्ट्रीय- 23 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। यह फ्रंट भी ज्यादातर नीतीश और लालू के बागियों को तवज्जों दिया है। इस फ्रंट ने 4 विधायक, 32 पूर्व विधायक को जगह दिया है। बता दें कि कुल 70 विधायक बेटिकट कर दिये गये हैं। आल इंडिया मजलिस ए इतेहाज अल मुस्लिमीन (मीम) के सांसद असदुदीन ओवैसी ने सीमांचल में चुनाव लड़ने का फैसला कर महागठबंधन की मुश्किलें बढ़ा दी है।
        जदयू के प्रदेश प्रवक्ता डाॅ. अजय आलोक ने आरोप लगाया कि भाजपा को फायदा पहुंचाने के लिए औवैसी ने सीमांचल में चुनाव लड़ने का फैसला लिया है। इसके लिए औवैसी और भाजपा के बीच डील हुयी है। हालांकि ओवैसी ने आलोक के आरोप को कड़े शब्दों में खारिज करते हुए चेतावनी दिया कि आरोप लगाने के पहले प्रमाण जुटा लें वरना मामले को कोर्ट में ले जाएंगे। ओवैसी ने अपने तर्क में कहा कि क्या दिल्ली में अभाविप की जीत, झारखंड में बीजेेपी की सरकार उनकी वजह से बनी?
        फिलहाल, वजह जो भी रही हो लेकिन ओवैसी और समाजवादी धर्मनिरपेक्ष मोर्चा के आगतन से महागठबंधन की मुश्किलें बढ़ी है। ओवैसी सीमांचल के चार जिलों के 24 सीटों पर लड़ने का फैसला किया है। किशनगंज मंे 70, अररिया में 42, कटिहार में 41 और पूर्णिया में करीब 20 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं। 2010 के विधानसभा में कोसी और सीमांचल के अररिया, किशनगंज, पूर्णिमा, कटिहार, मधेपुरा, सहरसा, सुपौल के 37 सीटों में से 14 सीटें भाजपा जीती थी। 
       लेकिन जदयू के अलग हो जाने के बाद जब 2014 के लोकसभा चुनाव हुये तब भाजपा का प्रदर्शन नरेंद्र मोदी के लहर के बावजूद सीमांचल में खराब रहा। अररिया और मधेपुरा मंे राजद, किशनगंज और सुपौल में कांग्रेस जबकि पूर्णिया में जदयू और कटिहार में राकंपा जीती। पूर्णिया के अमौर में करीब 74.4 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं। इस सीट पर भाजपा प्रत्याशी इसलिए जीत गये थे कि मुस्लिम मतों का विभाजन हुआ। बताया जाता है कि भाजपा ऐसे ही मुस्लिम मतों के विभाजन की उम्मीद कर रही है। हालांकि राजद के उपाध्यक्ष डाॅ. रघुवंश प्रसाद सिंह ने कहा कि ओवैसी को महागठबंधन में आना चाहिए इससे धर्मनिरपेक्ष मतों का बिखराव रूकेगा। देखें तो, बिहार में 47 ऐसी सीटें हैं जहां मुस्लिम वोट निर्णायक अवस्था में है। इसमें भाजपा 25 सीटें जीती थी।
      बहरहाल, नीतीश को इस स्तर पर घेरने के पीछे भी भाजपा की सियासी चाल ठहरायी जा रही है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से पप्पू यादव की मुलाकातों को इन घटनाक्रमों से जोड़कर देखा जा रहा है। पप्पू कहते हैं कि सांप्रदायिकता से ज्यादा खतरनाक लालू और नीतीश हैं। ऐसा माना जा रहा है कि भाजपा पप्पू यादव के जरिये यादव वोट बैंक में विभाजन का फायदा उठाना चाह रही है।  दूसरी तरफ, सपा को महागठबंधन से अलग होने के पीछे की वजह ग्रेटर नोएडा के पूर्व चीफ इंजीनियर यादव सिंह का मामला बताया जा रहा है। मुलायम सिंह यादव के भतीजा सांसद अक्षय यादव को एक लाख में तीन करोड़ रूपये का शेयर दिये जाने का आरोप यादव सिंह पर है। यह मामला सीबीआई जांच के दायरे में है। 
        पिछला घटनाक्रम को देखें तो, 30 अगस्त को पटना गांधी मैदान में महागठबंधन की स्वाभिमान रैली हुयी थी। इस रैली में सपा के प्रतिनिधि भी शामिल थे। इसके पहले सीटों का बंटवारा हो गया था। राकंपा की छोड़ी गयी तीन सीटों के अलावा लालू प्रसाद दो और सीटें सपा को देने की बात कही थी। फिर भी आठ दिन बाद सपा ने महागठबंधन से अलग होने का एलान कर दिया। हालांकि महागठबंधन से अलग होने के पहले रामगोपाल यादव के भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और इसके पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलायम सिंह यादव की मुलाकातों के धटनाक्रम से जोड़कर देखा जा रहा है। हालांकि अक्षय ने ऐसे किसी आरोप को मनगढंत कहा है।
       हालांकि नीतीश कुमार ने कहा है कि सपा पहले भी लड़ते रहे हैं, इसबार भी लड़ें। उन्हें कौन रोक सकता है। सपा का पिछला रिकाॅर्ड देखें तो उत्साहजनक नही है। सपा 1995 में 176 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, जिसमें दो सीटें जीती। 2000 में 122 सीटों पर चुनाव लड़ी, एक भी सीट नही जीती। 118 पर जमानत जब्त हो गयी थी। फरवरी 2005 में 142 में चार सीटें जीती थी। इसमें 131 पर जमानत जब्त हो गयी थी। नवंबर 2005 में 158 सीटों में से दो सीटें जीती थी। जबकि 150 पर जमानत जब्त हो गयी थी। वहीं 2010 में 146 सीटों पर चुनाव लड़ी लेकिन एक भी सीट नही जीती। यही हाल राकंपा का है। 2010 में 171 सीटों पर चुनाव लड़ी लेकिन 168 पर जमानत जब्त हो गयी थी। एक भी सीट नही जीत सकी।
      यही नहीं, इस दफा छह वाम संगठन भी एक साथ उतरी है। सीपीआईएमएल-96, सीपीआई-91 और सीपीएम-38 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। बाकी सीटों पर तीन अन्य संगठन चुनाव लड़ रही है। बसपा भी 243 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। लेकिन पिछला चुनाव परिणाम को देखें तो यह दल नतीजा तक भले ही नहीं पहुंच पाती हो, लेकिन जीत हार के फासले को संघर्षपूर्ण बनाती रही है। मतों का विभाजन महागठबंधन और एनडीए प्रत्याशियों की जीत हार का कारण बन सकती है। 
         2010 के चुनाव में 34 सीटों पर जीत का अंतर 20 हजार से उपर हुआ। जबकि 44 सीटों पर 10 से 20 हजार मतों के बीच था। वहीं 17 सीटों पर 5-10 हजार के बीच, 15 सीटों पर पांच हजार से कम मतों से जीत दर्ज हुयी थी। जबकि सात सीटों पर दो हजार से कम मतों के अंतर से हार जीत हुयी थी। यही नहीं, भाजपा नीतीश कुमार को विशेष राज्य के दर्जे पर चुप करने की कोशिश की है। नरेंद्र मोदी ने सवा लाख करोड़ रूपये का आर्थिक मदद की घोषणा की है। इधर, नीतीश कुमार ने विततंत्री अरूण जेटली को पत्र लिखकर सवा लाख करोड़ के पैकेज को अस्पष्ट बताते हुए विशेष राज्य के दर्जे की मांग की है। जवाब में केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने विशेष दर्जे के नाम पर नीतीश पर सियासत करने का आरोप लगाया है।
       दरअसल, बिहार का चुनाव महागठबंधन और एनडीए के लिए प्रतिष्ठा का विषय बना है। महागठबंधन मंे नीतीश कुमार की पुनर्वापसी का सवाल है। वहीं एनडीए को बिहार की सता पर काबिज होने का सवाल है। यही वजह है कि चुनाव की घोषणा के पहले ही भाजपा की चार बड़ी रैलियां और महागठबंधन की एक बड़ी रैली हो चुकी है। नीतीश कुमार कहते हैं कि नरेंद्र मोदी बिहार को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिये हैं।  दरअसल, भाजपा दिल्ली में हुयी बुरी हार की भरपायी बिहार से करना चाह रही है। इसके अलावा बिहार की जीत में भाजपा की एक बड़ी रणनीति छिपी है। देखें तो, राज्यसभा के 245 सीटों में से 70 सदस्यों का कार्यकाल जुलाई 2016 तक पूरा होनेवाला है। इसमें कांग्रेस के 18 सदस्य हैं। बिहार से राज्यसभा में 16 हैं, इनमें भाजपा से सिर्फ चार हैं। 
         राज्यसभा का आकड़ें देखें तो, कांग्रेस-68, भाजपा-48, सपा-15, जदयू और तृणमूल-12-12, बसपा-10, एआइडीएमके-11, माकपा-9, बीएसपी और एनसीपी-6-6 और बाकी दो-एक सदस्य हैं। बिहार विधानपरिषद में भी भाजपा की स्थिति कमजोर है। 75 सीटों में से 34 जदयू के सदस्य है। भाजपा-22, राजद-5, कांग्रेस-5, माकपा-2, लोजपा-1 , निर्दलीय-4 और भाजपा-जदयू के अध्यक्ष उपाध्यक्ष हैं।
       दूसरी तरफ, नीतीश और लालू ने एनडीए खासकर भाजपा के चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए एमवाई कार्ड खेला है। महागठबंधन ने 243 में 97 सीटें एमवाई को दिया है। मुस्लिम को 33 जबकि यादव को 64 सीटें दी गयी है। रामविलास और मांझी को काटने के लिए 37 दलित महादलित को टिकट दिये गये हैं। अतिपिछड़ा को 25 सीटें दी गयी है। उपेंद्र कुशवाहा के हमले को कमजोर करने के लिए कोइरी कुरमी को 38 सीटें दी गयी है। इसके अलावा वैश्य-6 और सवर्ण जाति के 38 उम्मीदवार बनाये गये हैं.   
         जबकि एनडीए एमवाई समीकरण को सवर्णाें के जरिये काटने की कोशिश की है। सर्वाधिक 85 सीटें सवर्णों को दिये गये हैं। हालांकि एनडीए के 29 उम्मीदवार के नाम घोषित नही किए गए हैं। फिर भी एनडीए ने 25 यादव, 23 कोइरी कुर्मी, 18 वैश्य, 32 दलित महादलित, 20 अतिपिछड़ा और 9 अल्पसंख्यक को उम्मीदवार बनाया है। जगजीवन राम शोध संस्थान के जातीय आकड़े के मुताबिक, यादव-14, कोइरी-5, कुर्मी-4, अत्यंत पिछड़ा वर्ग-30, मुस्लिम-16.5, महादलित-10, दलित-6, भूमिहार-6, ब्राहम्ण-5, राजपूत-3, कायस्थ की एक प्रतिशत आबादी है। इस चुनाव में जदयू-101, राजद-101 और कांग्रेस-41 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। 
        देखें तो, सहयोगी राजद से भी नीतीश की मुश्किलें कम नही है। राजद शासन के कथित जंगलराज से तालमेल के जवाब को लेकर नीतीश बार बार विरोधियों के निशाने पर हैं। इन सबके बावजूद महागठबंधन में राजद को ज्यादा सीटंे मिलने की स्थिति में राजद का रवैया क्या रहेगा यह भी नीतीश के लिए चुनौती है। हालांकि लालू ने कहा कि अब नीतीश से कोई डर की बात नही है। नीतीश से भाई भाई का रिश्ता है। बहरहाल, यह देखना काफी दिलचस्प होगा कि अपनों और विरोधियों के सियासी व्यूह से नीतीश निकल पाते हैं या नही!

Friday 8 May 2015

संस्मरण - मुझे उस डांट के सिवा कुछ याद नहीं

डॉ अशोक कुमार प्रियदर्शी
       मैं अपने जीवन का 45 वसंत पूरा कर चुका हूं। लेकिन मां को जब स्मरण करता हूं तो उनकी सिर्फ एक डांट ठीक से याद आती है। तब मैं कोई छह साल का था। मां मुझे भूंजा खाने को दी थी। उसे मैं खा चुका था। दोबारा भूंजा लेने की जिद कर रहा था। भूंजा कम था। यह बात मां मुझे बता चुकी थी। मां को मेरे चार भाइयों के लिए भी भूंजा बचाना था। फिर भी मैं भंूजा लेने की जिद कर रहा था। मां परेशान हो गईं। उसने भूंजा दी। लेकिन डांटते हुए मां बोली थी-यह ठीक आदत नही है। सिर्फ अपने पेट के बारे में सोचता है। पढ़ने में मन नही लगाता है। दिन भर सिर्फ खाय खाय अर्थात खाना खाना करते रहता है। 
       तब मां की उस डांट का मुझपर तनिक भी असर नही पड़ा था। मैं अपनी मर्जी पर चलता रहा। कोई दो साल बाद सड़क दुर्घटना में मां की मौत हो गई। तब मैं अपने गांव घोसतावां में था। मां की लाश गांव पहुंची। पूरा परिवार में कोहराम मचा था। लोग मुझे सांत्वना दे रहे थे कि इस बेचारे का क्या होगा! पर मेरी आंखों से आंसू नही आ रहे थे। लेकिन मां की मौत का असर कुछ माह बाद दिखने लगा। मेरे सिर के 90 फीसदी बाल उड़ गए थे। जैसे जैसे समय समय बीतता गया। मां की याद जोर से सताने लगा।
        तब वही डांट मां के स्वरूप के रूप में सामने आने लगा। कालांतर में यह मां का आकार ले लिया। हालांकि मुझे भूंजा खाने की आदत गई नही। लेकिन पढ़ने की आदत स्वभाविक रूप से जुड़ गया। क्योंकि मुझे जब भी मां की याद आती वह डांट के रूप में सामने आती। मुझे उस डांट में अपना अपराधबोध अहसास होने लगा। पहला कि मैं कितना खुदगर्ज था कि दूसरे की चिंता छोड़कर अपनी बात के लिए मां को परेशान कर रहा था। दूसरा कि पढ़ाई नही करता था, जिसके चलते मां मुझसे दुखी थी। 
       यह अपराध बोध मेरे जिंदगी के लिए सबक बन गया। परिस्थितियां ऐसी बनती गई कि पढ़ने के सिवा दूसरा कोई सहारा नही दिखने लगा। क्योंकि 18 साल की आयु में मेेरे पिताजी की भी आकस्मिक मौत हो गई थी। ऐसे में उपलब्ध सुविधाओं के बीच पढ़ाई की। एमए, पीएचडी, एलएलबी और डिपलोमा इन जर्नलिज्म की डिग्री ली। आकाशवाणी और दूरदर्शन केन्द्र पटना के संवाददाता के रूप में जुड़े। इसके अलावा कई पत्र और आउटलुक और इंडिया टुडे जैसे पत्रिका के लिए बिहार से लिखता रहा हूं। यही नहीं, एसकेएम कॉलेज नवादा में हिस्ट्री डिपार्टमेंट में बतौर प्राध्यापक भी हूं। 
      मैं मानता हूं कि यह बदलाव मां की उस डांट की वजह से संभव हो पाया है, जो अक्सर मुझे पढ़ने के लिए प्रेरित करता रहा। यही नहीं, एक और आदत कम चीजों में भी मिल बांटकर खाने की प्रवृति विकसित हुई है। इसका अहसास मेरे बच्चे और पत्नी टोक कर कराते रही है। सोचता हूं कि मां की एक डांट मेरे जीवन के लिए इतना महत्वपूर्ण बन गया। जब वह जीवित होती। मेरी हरकतों पर डांटा करती तो मेरी कितनी खामियां दूर हो जाती और मेरा खाली जीवन को भर देती।

मैं नहीं चाहता कि मेरा बेटा खेती करे

डॉ अशोक कुमार प्रियदर्शी 
बिहार के नवादा जिले के सदर प्रखंड के रामशरण यादव के दो पुत्र हैं। एक बेटी है। दो पुत्रवधू हैं। दो पोतियां है। रामशरण के एक पुत्र अविनाश बीए आॅनर्स कर लिया है, जबकि दूसरा पुत्र अभिषेक बीए में पढ़ाई कर रहा है। बेटी शालिनी इंटर तक पढ़ाई की है। रामशरण की पत्नी अनिता समेत परिवार में कुल आठ सदस्य हैं। मुश्किल कि आठ सदस्यीय रामशरण के परिवार के परवरिश के लिए एक विगहा जमीन है। उसमें भी सुखाड़ की स्थिति आने पर मुश्किलें बढ़ जाती है।
       हालांकि गांव के बीच से एक नहर गुजरी है। लेकिन ठेकेदार ने नहर की खुदाई में किसान के बजाय अपना हित देखा। जमीन से काफी नीचे खुदाई करा दिया जिसके चलते नहर का पानी खेतांे में नही पहुंच पाता है। गांव में बिजली पहंुची है। लेकिन विधुत विभाग की कथित मनमानी के कारण किसान पंपसेट के लिए बिजली का कनेक्शन लेने से परहेज करते हैं। रामशरण बताते हैं कि तीन माह एक बल्ब का 1180 रूपए का बिजली बिल दिया गया है। अब यह कनेक्शन भी कटवाने की सोच रहा हूं।
       रामशरण मानते हैं कि किसानों का कोई मददगार नही है। सरकार किसानों के लिए घोषणाएं करती रही है। योजनाएं भी चलाई जा रही है। लेकिन इसका लाभ किसानों को नही मिल पाता। वह कहते हैं कि किसानों को लोन के लिए किसान के्रडिट कार्ड की व्यवस्था की गई है। तीन साल पहले 50 हजार रूपए लोन के लिए आवेदन किया था। 45 हजार स्वीकृत हुआ। लेकिन उसमें से पांच हजार रूपए बिचैलिए ने ले लिया। लेकिन उन्हें 45 हजार रूपए ब्याज के साथ लोन की राशि किस्त में जमा करना पड़ा। इसलिए अब लोन लेने से भी परहेज करता हूं।
       किसानों के फसलों का बीमा भी नही होता। नही समय पर उचित कीमत पर खाद मिलता है। इससे भी मुश्किल कि उनकी उपज का उचित कीमत भी नही मिल पाता है। रामशरण बताते हैं कि सरकारी स्तर पर 1660 रूपए क्विंटल धान खरीद की जाती है, लेकिन उन्हें दुकानदार के यहां 1200 रूपए क्विंटल धान बेचना पड़ा। किसानों से धान खरीद में काफी अड़चन पैदा किया जाता है। लेकिन बिचैलिए के धान को आराम से खरीद लिया जाता है।
       रामशरण कहते हैं कि कोई भी सरकार अपनी भाषण में किसानों की बात करती है, लेकिन किसानों की परेशानी के निबटारे के लिए कोई ठोस कदम नही उठाता। वह कहते हैं कि किसानों को सिचाईं का साधन, बिजली की मुफत आपूर्ति, समय पर खाद बीज की उपलब्धता, किसानों के उपज की सही कीमत मिले तो कोई मुश्किल नही है। लेकिन यह परेशानी नही सरकार और नही अधिकारियों को दिखता है। हालांकि वह मुश्किल परिस्थितियों से निबटने के लिए शब्जी उगाते हैं, जिससे उन्हें कुछ राहत मिल जाती है। बेटे की पढ़ाई और बेटी की शादी में खेत बेचनी पड़ी है। वह कहते हैं कि मैं नहीं चाहता कि मेरा बेटा खेती करे .



जीवन के आखिरी दौर में पहुँच गए , लेकिन नहीं सुधरी सिचाई की समस्या


डॉ अशोक कुमार प्रियदर्शी


उनके पास तीन विगहा जमीन है। लेकिन उस जमीन से उनके पूरे परिवार का परवरिश नही हो पाता। क्योंकि पटवन की व्यवस्था नही रहने से उनकी फसल मारी जाती है। उन्हें किसी तरह का मदद भी नही मिल पाता। उनकेे परिवार में 18 सदस्य हैं। लिहाजा, 70 की उम्र में भी उन्हें खेती करने की मजबूरी है। हम बात कर रहे हैं बिहार के नवादा जिले के सदर प्रखंड के देदौर गांव निवासी डोमन पंडित की। पंडित कहते हैं कि सरकार उम्मीद जरूर जगाती है, लेकिन उनसबों के नसीब में हल और कुदाल ही है। सरकार की जो योजनाएं चलती भी है उसका ज्यादातर लाभ गैर किसान और अधिकारी को मिलता है।


डोमन पंडित मानते हैं कि किसानों की एकमात्र समस्या सिचाई की है। इसका समाधान हो जाय तो उनसबों की बदहाली दूर हो सकती है। अब जीवन के आखिरी पड़ाव में है, लेकिन समस्या जस की तस है। वैसे गांव में बिजली पहुंची है। लेकिन विभाग कभी फसल उत्पादन के समय बिजली नही देती। लेकिन बिल उनका चलता रहता है। लिहाजा, गांव में बिजली रहने के बावजूद ज्यादातर किसानों ने पंपसेट के लिए बिजली कनेक्शन नही लिया। खाद, बीज और कृषि उपकरण वितरित किए जाते हैं, लेकिन इसका लाभ उन किसानों को नही मिल पाता।


वह कहते हैं कि सुखाड़ की स्थिति में भूखमरी की नौबत आ जाती है। ऐसे में खेती छोड़कर मजदूरी करनी पड़ती है। खेती से बचे समय में उनके दो बेटे राजमिस्त्री का काम करते है। इससे परिवार का गुजारा हो रहा है। सरकार से लोन लेने में भी काफी परेशानी है। इसलिए जरूरत पड़ने पर महाजन से तीन रूपए प्रति सैकड़ा प्रति माह की दर से ब्याज पर लेकर काम चलाते हैं। दो बेटियों की शादी महाजन से लोन लेकर किया। बाद में मजदूरी कर उस लोन की भरपाई की।

Sunday 19 April 2015

हमें नही चाहिए अपमान का सम्मान

डॉ अशोक कुमार प्रियदर्शी
         बात पिछले हफ्ते की है। बिहार सरकार की ओर से मुजफफ्रपुर के मुसहरी प्रखंड के मनिका गांव स्थित चमेला कुटीर में सच्चिदानंद सिन्हा के नाम एक चिटठी पहुंची। उस चिटठ्ी में सच्चिदानंद सिन्हा को राजभाषा विभाग की ओर से दी जाने वाली 50 हजार रूपए के डॉ फादर कामिल बुल्के पुरस्कार की सूचना थी। लेकिन 87 वर्षीय सिन्हा इस सूचना से खुश होने के बजाय दुखी हुए। लिहाजा, उन्होंने चिटठी का जवाब भी नही दिया। उन्होंने कहा कि- मैं उस पुरस्कार के लायक नही हूं। मेरे लिए यह पुरस्कार अपमानजक है। किसी साहित्यकार को मिलना चाहिए था। मैं शौकिया तौर पर लिखता हूं। साहित्यकार कब हो गया।
         सरकार उन्हें पुरस्कार ही देना चाहती थी तो किसी अन्य क्षेत्र में सम्मानित कर सकती थी। पुरस्कार की प्रक्रिया पर भी सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि जबतक नौकरशाह साहित्यकारों के भाग्यविधाता रहेंगे तब तक इस प्रकार की पुरस्कार की सूची स्वीकृत होती रहेगी। पुरस्कार पानेवाले के साथ नौकरशाह चपरासी और बाबू जैसा सलूक करते हैं। सरकार का काम नौकरशाह करता है। और सरकार नौकरशाहों का शाह है। 
         वैसे सिन्हा पुरस्कार को कभी महत्व नही दिया। केन्द्रीय हिंदी संस्थान से एक लाख रूपए के पुरस्कार की घोषणा हुई थी, तब भी इंकार कर दिया था। देखें तो, पुरस्कार का पैमाना यदि राशि है तो पुरस्कारों की सूची में सिन्हा का नाम अपमानजनक है। आखिरी केटेगरी में उनको रखा गया है। उन्हें मुजफफ्रपुर के प्रो नंदकिशोर नंदन से कम और प्रो रश्मि रेखा की केटेगरी में रखा गया है। प्रो नंदन को दो लाख रूपए का बीपी मंडल और प्रो रश्मि को 50 हजार रूपए का महादेवी वर्मा पुरस्कार के लिए चुना गया है।
          पुरस्कार के लिए सिन्हा की ओर से कोई आवेदन भी नही दिया गया था। देखें तो, मुख्यमंत्री के अधीन मंत्रिमंडल सचिवालय (राजभाषा विभाग) द्वारा विज्ञापन प्रकाशित किया गया था। इसमें 15 जुलाई 2014 तक पुरस्कारों की प्रकृति के अनुरूप पुरस्कारवार सुयोग्य साहित्यकारों और संस्थाओं के जरिए व्यक्तित्व और उनके कृतित्व के संबंध में प्रमाणिक दस्तावेज के साथ अनुशंसाएं आमंत्रित किया गया था। बताया जाता है कि अनुशंसा की प्रक्रिया भी ज्यादातर प्रायोजित होते हैं। एक साहित्यकार के मुताबिक, निजी फैसलों को अमलीजामा पहुंचाने के लिए कुछ बड़े नामों को शामिल कर लेते हैं।        
         राजभाषा द्वारा 19.50 लाख के कुल 14 साहित्यकारों और संगठनों के नाम पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी सहमति दे चुके हैं। सबसे बड़ा सम्मान गया के डॉ रामनिरंजन परिमेंदू को तीन लाख रूपए का डॉ राजेन्द्र प्रसाद शिखर सम्मान दिया गया है। अतीत को देखें तो यह शिखर सम्मान से उपन्यासकार अमृतलाल नागर, धर्मवीर भारती, बाबा नागार्जुन और जानकीवल्लभ शास्त्री सरीखे लोग सम्मानित किए गए हैं। ऐसे में परिमेंदू सरीखे कथित कम चर्चित व्यक्ति को यह पुरस्कार दिए जाने पर सवाल उठाए जा रहे हैं। कई और नाम पर विवाद है।
         हालांकि निर्णायक मंडल के अध्यक्ष नामवर सिंह ने कहा है कि साहित्यिक उपलब्धियों के आधार पर पुरस्कार के लिए नामांें का चयन किया गया है। चयन में किसी तरह का पक्षपात नही किया गया है। लेकिन सिन्हा अकेला ऐसा शख्स नही हैं, जिन्होंने पुरस्कार को ठुकरा दिया है। प्रो. कर्मेंदु शिशिर को 50 हजार रूपए का भिखारी ठाकुर पुरस्कार के लिए चुना गया। उन्होंने भी यह सम्मान लेने से इंकार कर दिया। उन्होंने सरकार से भाषा, साहित्य और संस्थाओं को लेकर एक नीति बनाए जाने की मांग है। हिन्दी भवन, राष्ट्रभाषा परिषद और तमाम साहित्यिक कार्यों को नौकरशाही से मुक्त कर योग्य साहित्यकारों को सीमिति सौंपने की मांग की है। जबतक सरकार ऐसा नही करती तबतक पुरस्कार बंद करे।
विधानपरिषद के पूर्व सभापति प्रो जाबिर हुसैन के लिए भी यह सम्मान अपमानजनक है। वह 50000 रूपए का गंगा शरण सिंह पुरस्कार की सूची में हैं। प्रो जाबिर राष्ट्रीय स्तर के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हैं। दूसरी तरफ, राजभाषा निदेशक रामविलास पासवान की टिप्पणी सरकार की मुश्किलें बढ़ा दी। पासवान ने कह दिया कि हमलोग पत्र भेजेंगे। जिनको पुरस्कार लेना है वे लेंगे, और जो नही लेंगे तब पैसा बचेगा। वह पैसा जनहित के काम में आएगा। इसपर विधान परिषद में भाकपा के केदारनाथ पांडेय ने आपति जताया। बीजेपी के हरेंद्र प्रताप और किरण घई ने कहा कि हैरतवाली बात है कि निर्णायक मंडल के लोगों को भी नही पता कि किसे पुरस्कार दिया जा रहा है। उपसभापति सलीम परवेज ने सरकार को जवाब देने को कहा है। 
          निर्णायक मंडल के कई सदस्यों के पुरस्कार के निर्णय से अनभिज्ञता जाहिर करने से विवाद और गहरा गया। पद्मश्री साहित्यकार उषा किरण खान ने कहा कि मापदंड का पालन नही किया गया। पुरस्कार के लिए दिल्ली में बैठक आयोजित की गई। तब पटना में भारतीय कविता समारोह चल रहा था। मैंने तारीख बढ़ाने के लिए आग्रह किया था लेकिन नही तारीख बढ़ाई गई और नही निर्णय की सूचना दी गई। वैसे सदस्य रवींद्र राजहंस ने कहा है कि 21 नवंबर 2014 को नामवर सिंह की अध्यक्षता में बैठक हुई थी। पुरस्कार देने के लिए एक-एक सदस्यों ने अपनी राय रखी थी। लेकिन अंतिम सूची तैयार कर सदस्यों और अध्यक्ष के हस्ताक्षर नही लिए गए थे। उम्मीद थी कि बाद में फाइनल सूची सदस्यों को दिखाई जाएगी लेकिन ऐसा कुछ नही हुआ।
           विवाद की एक बड़ी वजह राशि भी है। रंगकर्मी अनीश अंकुर कहते हैं कि पुरस्कार की नीतियों में संशोधन की जरूरत है। राशि के आधार पर पुरस्कारों की केटेगरी तय की गई है। इस राशि में काफी असमानता है। यह राशि साहित्यकारों के बीच बड़ा अंतर दर्शाता है। मसलन, नागार्जुन के लिए दो लाख और भिखारी ठाकुर के लिए 50 हजार रूपए का पुरस्कार है। वैसे 2010 में 7 लाख 69 हजार रूपए पुरस्कार की राशि बांटी गई थी, जिसे बढ़ाकर 19.50 लाख किया गया है। लेकिन बीच का अंतर डेढ़ लाख का है।
         श्रषिकेश सुलभ का मानना है कि बिहार सरकार के पास साहित्य, संस्कति और भाषा को लेकर कोई दृष्टि नही है। यही वजह है कि पुरस्कार पर विवाद होते रहे हैं। यह पहला अवसर नही है। 2010 में नामवर सिंह के छोटे भाई काशीनाथ सिंह को बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर पुरस्कार दिए जाने को लेकर काफी विवाद हुआ था। तब भी नामवर सिंह अध्यक्ष थे। गिरिराज किशोर, देवेंद्र चौबे, डॉ कुमार विमल और जियालाल आर्य सदस्य थे। नामवर सिंह की अध्यक्षतावाली कमेटी से भाई को पुरस्कार दिए जाने से सवाल उठे थे। 
          वैसे विभागीय सचिव ने निर्णायक मंडल से जवाब मांगा था कि पुरस्कार के लिए नामित व्यक्तियों से मेरा कोई रिश्ता नही है। बताया जाता है कि नामवर सिंह को छोड़ तमाम सदस्यों ने जवाब दे दिया था। लंबे समय तक पुरस्कार नही बंटा। चेक के जरिए राशि उपलब्ध करा दी गई। उस फजीहत के बाद पुरस्कार की घोषणा की गई तो विवाद साथ नही छोड़ा। संयोग कि इस बार भी नामवर सिंह निर्णायक मंडल के अध्यक्ष हैं। जबकि मैनेजर पांडेय, देवेन्द्र चौबे, अशोक वाजपेयी, उषाकिरण खान और रवींद्र राजहंस सदस्य हैं। 
  एक वरिष्ठ साहित्यकार बताते हैं कि पुरस्कार के फैसले में निर्णायक मंडल के कुछ सदस्य सुनियोजित प्रणाली अपनाते हैं। पिछली दफा नामवर सिंह ने नंदकिशोर नवल का नाम शिखर सम्मान के लिए रखा। उसके बाद के सम्मान के लिए नामवर सिंह को कुछ देर के लिए कमरे से बाहर जाने को कहा गया। तब एक सदस्य ने उनके भाई काशीनाथ का नाम बाबा साहब भीमराव आंबेडकर पुरस्कार के लिए पेश किया गया। उसके बाद अध्यक्ष की मौजूदगी में कुछ सदस्य अपनों को पुरस्कार दिलाने का काम आसान कर लिया। तब मैनेजर पांडेय, जो अब निर्णायक मंडल में है के अलावा महेश कटारे, बद्री नारायण, अनामिका, गौरीनाथ, रामनिरंजन परिमलेंदु, लखनपाल सिंह आरोही, जगदीश पांडेय और रंजन सूरीदेव को नामित किया गया था। उस समय रामधारी सिंह दिवाकर समेत कई के नाम अनुशंसित था।
           फिलहाल नामांे के चयन के सवाल पर जितनी मुंह उतनी बातें की जा रही है। आरोप है कि निर्णायक मंडल के कुछ सदस्यों ने अपनों को पुरस्कार देने के लिए बाकी साहित्यकारों की प्रतिष्ठा का ख्याल नही रखा गया। साहित्यकारों का एक तबका मान रहे हैं कि एक दो बड़े नामों को शामिल कर अपने फैसले लागू कराने में कामयाब हो गए। नामवर सिंह के शुरूआती बयान में अनभिज्ञता जाहिर करने की बात को उसी कड़ी से जोड़कर देखा जा रहा है। अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष डॉ खगेन्द्र ठाकुर कहते हैं कि सरकार परस्त बनाने के लिए पुरस्कार दिए जाते हैं। निर्णायक मंडल सरकार परस्त होते हैं और निर्णायक मंडल साहित्यकारों को अपना परस्त बनाना चाहते हैं।
         बिहार मगही मंडप के अध्यक्ष राम रतन प्रसाद सिंह रत्नाकर कहते हैं कि वेतन और पेंशन पानेवालों को अतिरिक्त आर्थिक लाभ देने के लिए यह पुरस्कार दिया गया है। पटना दूरदर्शन के समाचार संपादक संजय कुमार ने कस्बाई और योग्य लेखकों को वंचित किए जाने का आरोप लगाया है। ज्यादातर सम्मान गिने चुने लोगों तक सीमित होकर रह गया है। दलित चिंतक डॉ. मुसाफिर बैठा की शिकायत है कि अपवाद को छोड़ दे ंतो बिहार के दलित समुदाय ऐसे पुरस्कार से अभिताज्य है। इस दफा यूपी के दलित लेखक प्रो तुलसी राम को यह सम्मान दिया गया है, लेकिन मरणोपरांत। बैठा के मुताबिक, पांच दफा अपनी पांडूलिपियां विभाग को दिया, लेकिन कभी स्वीकृत नही हुआ।  
          विवाद की कहानी यहीं खत्म नही होती। राजभाषा विभाग ने शिखर सम्मान के लिए भीष्म साहनी और प्रो जाबिर हुसैन का नाम संयुक्त रूप से किया था। तब भी जाबिर हुसैन ने आपति दर्ज कराई थी। साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता साहित्यकार अरूण कमल कहते हैं कि साहित्यकारों का असली पुरस्कार संस्थान और सरकार से नही मिलता बल्कि पाठकों से मिलती है। बहरहाल, नामवर सिंह ने पुरस्कार को लेकर उत्पन्न विवाद को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है। उन्होंने इस बात का भी खंडन किया कि उन्होंने सूची नही देखी। छह माह पहले बैठक हुई थी। निर्णय में किस स्तर पर गड़बड़ी हुई। यह अध्यक्ष जानें। लेकिन ऐसे फैसले से आलोचक नामवर सिंह खुद आलोचना के पात्र बन गए हैं।

Monday 30 March 2015

कचहरिया-पहले मां-बाप हुए, फिर बेटे और अब बछड़ा हुआ विकलांग

डॉ. अशोक कुमार प्रियदर्शी
 बात 15 दिन पहले की है। नवादा जिले के रजौली के कचहरियाडीह निवासी कारू राजवंशी के गाय ने एक बछड़े को जन्म दिया। लेकिन वह बछड़ा विकलांग पैदा हुआ। दूषित जल के सेवन की भयावहता का यह ताजा कड़ी है। दूषित जल के सेवन से डेढ़ दशक पहले कारू और उसकी पत्नी विकलांग हो गई थी। उनके दो स्वस्थ्य पुत्र पैदा हुए। लेकिन दस साल की उम्र में ही उन्के पुत्र शिवबालक(16 वर्ष) और गोवर्धन (14 वर्ष) विकलांग हो गए। तीन साल पहले कारू ने एक गाय खरीदी थी। लेकिन अब जब गाय ने बछड़े को जन्म दिया तो वह विकलांग पैदा हुआ।
दरअसल, विकलांगता की यह समस्या सिर्फ कारू परिवार तक सीमित नही है। कचहरियाडीह के शत प्रतिशत लोगों की कहानी है, जो विकलांगता का अभिशाप झेल रहे हैं। किसुन भूइयां का 20 वर्षीय पुत्र संतोष विकलांगता के शिकार का मिसाल है। उसका पूरा शरीर टेड़ा और चौकोर हो गया है। उसकी हालत बुढ़ापे जैसी हो गई है। यही नहीं, कपिल राजवंशी, पंकज, विमला, ममता, नरेश, सरोज, पूजा, संगीता, सुशील जैसे दर्जनों ग्रामीण है, जिनका जीवन नारकीय बना है। भयावहता के कारण रामबालक राजवंशी, अमीरक राजवंशी जैसे कई ग्रामीणों ने गांव छोड़ दिया है। 

भयावहता का अंदाजा
तीन दशक पहले सोहदा गांव निवासी इश्वरी यादव कचहरियाडीह गांव में आकर बसे थे। लेकिन 55 वर्षीय ईश्वरी परिवार के पूरे परिवार विकलांगता के शिकार हो गए हैं। ईश्वरी के पिता बुलक यादव, मां सरिता देवी, पत्नी अकली देवी, बेटे राजेश, रूपेश और बेटी सीमा विकलांगता की शिकार हैं। रूपेश की हालत दयनीय हो गई है। वह खाट पर से भी नही उठ पाता है। ईश्वरी कहते हैं कि पटना में इलाज कराया लेकिन स्वस्थ्य नही हो पाया। वह कहते हैं कि बाहर नही जा सकते। दूसरा कोई चारा नही है। विकलांग परिवार का परवरिश बाहर कर पाना संभव नही है।

क्या है वजह
प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ शत्रुधन प्रसाद सिंह कहते हैं कि आमतौर पर पानी में डेढ. फीसदी फलोराइड की मात्रा पाई जाती है। लेकिन जांच में कचहरियाडीह गांव में आठ फीसदी फलोराइड की मात्रा पाई गई है। लिहाजा, ग्रामीण फलोरोसिस नामक रोग के शिकार हो जाते हैं। इस रोग से बच्चों का अंग टेड़ा होने लगता है। हडिया चौकोर होने लगती है। 15-16 साल की अवस्था में ही लोग बुढ़ापा का अनुभव करने लगते हैं। कचहरियाडीह फुलवरिया जलाशय के समीप है। बताया जाता है कि जलाशय में एकत्रित जल के कारण कचहरियाडीह का भूजल स्तर दूषित हो गया है। इसका दूरगामी परिणाम के रूप में यह रोग सामने आया है।

क्या है बंदोवस्त
हालांकि इस रोग से बचाव के लिए हरदिया पंचाचत में पानी टंकी का निर्माण कराया गया है। प्रभावित ग्रामीणों को विस्थापित भी किया गया है। लेकिन गांववालों की परेशानी थमने का नाम नही ले रहा है। लोकस्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग के कार्यपालक अभियंता प्रदुम्न शर्मा कहते हैं कि ग्रामीणों को शुद्ध पानी की व्यवस्था कराई जा रही है। पानी की गुणवता की जांच की जाती है। जरूरत पड़ने पर मीडिया चेंज किया जाता है ताकि ग्रामीणों को नियमित रूप से शुद्ध जल उपलब्ध कराया जा सके।

Sunday 29 March 2015

सियासी सेहत का राज है कदाचार

डाॅ. अशोक कुमार प्रियदर्शी
मैट्रिक के एक विषय की परीक्षा रदद किए जाने को लेकर राजेश का परिवार काफी दुखी हैं। इस विषय की परीक्षा 9 अप्रैल को निर्धारित किया गया है। सरकार के इस फैसले को लेकर राजेश परिवार को चिंता है। और गुस्सा भी। चिंता इस बात की है कि राजेश की मैट्रिक की परीक्षा में पूरे परिवार ने मेहनत किया। वह बेकार हो गया। किसान पिता ने परीक्षा का खर्च उठाया। उसके भाई ने हफ्ते भर रिस्क लेकर भाई को चिट पहंुचाया था। उसके बहनोई ने एक शिक्षक की मदद से प्रश्नों का जबाव उपलब्ध कराया था। लेकिन एक विषय की परीक्षा रदद होने से राजेश को पास करने पर भी संदेह हो गया है।
गुस्सा मीडिया और सरकार की भूमिका को लेकर है। उनका सवाल है कि मीडिया ने कुछ परीक्षाकेन्द्र में कदाचार की तस्वीरें दिखाई। इसी आधार पर सरकार ने उन केन्द्रों की परीक्षा रदद कर दी। अभिभावकों की शिकायत है कि बिहार का शायद ही ऐसा कोई परीक्षा केन्द्र है, जो कदाचार से अछूता रहा। लेकिन सरकार महज औपचारिकता पूरी कर चंद परीक्षार्थियों की मुश्किलें बढ़ा दी है। सरकार और मीडिया को पठन पाठन की नीतियां और व्यवस्था पर सवाल उठानी चाहिए।
 बिहार के राजेश (बदला हुआ नाम) परिवार की कहानी अकेला नही है। राज्य मंे हजारों छात्र-छात्राओं के परिवारों के समक्ष कदाचार के बारे में ऐसी ही अवधारणा है। अभिभावकों की भूमिका गौर करने लायक है। जिनके बच्चे की परीक्षा नही होती, उनका तर्क होता कि कदाचार से बच्चों के कॅरियर खराब होता है। जिनके बच्चों की परीक्षा होती है वह इसे कॅरियर का सवाल बताते हैं। ठीक वैसे हीं, जैसे बेटी की शादी में दहेज को अभिशाप और बेटे की शादी में शिष्ट्राचार बताते हैं।
दरअसल, कदाचार ‘सामाजिक शिष्ट्राचार’ का स्वरूप ले लिया है। लेकिन सरकार इसपर सख्ती बरतने से परहेज करती रही है। खासकर जब चुनाव का साल हो। शिक्षा मंत्री प्रशांत कुमार शाही की प्रतिक्रिया ऐसा ही संदेश है। शाही ने कहा कि 14 लाख परीक्षार्थी, उनके 4-5 रिश्तेदार। सभी पर अंकुश सिर्फ सरकार नही लगा सकती। इसे रोकने के लिए समाज को आगे आने की जरूरत है। इसके चलते मंत्री को हाइकोर्ट से खरी खोटी सुननी पड़ी। सरकार की सक्रियता जरूर बढ़ी लेकिन कदाचारियों के खिलाफ सख्त टिप्पणी से परहेज किया गया।
 जेडीयू सरकार के सहयोगी दल आरजेडी के प्रमुख लालू प्रसाद ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि उनका वश चले तो परीक्षार्थियों को किताब ले जाने की छूट दे दिया जाता। पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की टिप्पणी भी मंत्री को हटाने तक सिमित रही। विपक्षी दल बीजेपी भी यह कहकर औपचारिकता पूरी कर दी कि इससे बिहार का गलत संदेश जा रहा है। यह किसी एक सरकार की बात नही है। दरअसल, कदाचार मंे सरकारों के सियासत की सेहत का राज छिपा है। लिहाजा, कोई भी सरकार कदाचारियों के खिलाफ मोर्चा खोलकर जोखिम नही लेना चाहती।
ऐसा नही कि कदाचार पर अंकुश लगाना संभव नही है। 1972 में तत्कालीन मुख्यमंत्री केदार पांडे के सख्ती के बाद कदाचार थम गया था। लेकिन समय के साथ यह बड़ा आकार लेता चला गया। नब्बे के दशक में यह सिलसिला बढ़ गया। 1996 मंे पटना हाइकोर्ट जब सख्त हुई तब 12 फीसदी रिजल्ट हुआ था। इसके बाद पठन पाठन का सिलसिला तेज हुआ था। लेकिन धीरे धीरे कदाचार फिर आकार लेने लगा।
लिहाजा, 1997 में 40, 1998 में 45, 1999 में 52 फीसदी लोगों ने पास किया। जबकि बिहार विधानसभा के चुनावी साल 2000 में पास करनेवालों की तादाद 57 फीसदी पहुंच गया। 2005 और 2010 में 70-70 फीसदी परीक्षार्थी उतीर्ण हुए। 2005-10 के बीच 70 फीसदी से नीचे का रिजल्ट रहा। 2015 की परीक्षा में जारी कदाचार को नवंबर में होनेवाले विधान सभा चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा है।
दरअसल, कदाचार के लिए सरकार की नीतियां काफी हद जिम्मेवार रही है। अंक के आधार पर नौकरी में प्राथमिकता, प्रथम श्रेणी के विधार्थियों को आर्थिक मदद और वितरहित संस्थानों में छात्रों की संख्या और श्रेणी के हिसाब से अनुदान जैसी नीतियों से कदाचार को बढ़ावा मिला है। पठन की चरमाई स्थिति, कुशल शिक्षकों का अभाव, बुनियादी सुविधाओं की कमी जैसे कई वजह है। राज्य के बजट में शिक्षा के लिए सर्वाधिक 22 हजार करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है। लेकिन बजट की बड़ी राशि अनुदान आदि में खर्च कर दिए जाते हैं।
दूसरे प्रदेशों में भी कदाचार सियासी सेहत बना हुआ है। 1992 मंे यूपी की तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह और शिक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने नकल विरोधी अध्यादेश लाया था। तब 15 फीसदी रिजल्ट हुआ था। परिणामस्वरूप बीजेपी की सरकार चली गई थी। उसके बाद समाजवादी और बहुजन समाजपार्टी ने इस कानून को निरस्त कर दिया था। हालांकि 1998 में राजनाथ सिंह के अगुआई में जब बीजेपी की सरकार बनी तब उस कानून में संसोधन कर थोड़ी ढ़ील दी गई। कुछ ऐसे ही वजह है जिसके कारण कोई भी सरकार कदाचार के खिलाफ सख्त फैसले लेने से परहेज करती रही है।

Thursday 12 February 2015

जिन्होंने अंग्रेजों को छक्का छुड़ाया, अंग्रेजों ने उन्हें डकैत का नाम देकर चला गया

डाॅ. अशोक कुमार प्रियदर्शी
जवाहिर और एतवा राजवंशी ने  अंग्रेजों को  पसीना छुड़ाया था।  लेकिन अंग्रेजों ने  उन्हें दिया था डकैत का नाम। ब्रिटिश नीति के कारण गुमनाम रहे नायकों के नाम

         
          भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन में नवादा जिलेे के पसई निवासी जवाहिर रजवार और कर्णपुर निवासी एतवा रजवार की उल्लेखनीय भूमिका रही है। नवादा-नालंदा इलाका मंे होनेवाले विद्रोह की हर घटनाओं में दोनों के नाम आ रहे थे। जैसा कि 1857ः भारत की स्वातंत्रता आंदोलन में बिहार झारखण्ड किताब, बिहार सरकार की पत्रिका और जिला प्रशासन के स्मारिका में उल्लेख मिलता है। लेकिन अंग्रेजों की फूट डालों और शासन करो की नीति का खामियाजाना कि गणतंत्र के ये दोनों आजादी के छह दशक बाद भी गुमनाम रहे हैं।
         दरअसल, विद्रोह के दौरान जवाहिर और एतवा ने अंग्रेंजों को नाकोदम कर दिया था। सरकारी कचहरी, बंगले, जमींदार और उसके कारिंदे की सम्पति विद्रोहियों के निशाने पर था। विद्रोहियों को जब मौका मिलता घटना को अंजाम देने से नही चूकते थे। कई जमींदारों ने भी विद्रोहियों को समर्थन देना शुरू कर दिया था। तब अंग्रेज अधिकारियों ने विद्रोह पर काबू पाने के लिए विद्रोहियों को चोर और डकैत जैसा नाम देने लगे थे, ताकि विद्रोहियों से लगाव के बजाय नफरत पैदा हो।
अंग्रेज अपनी इस कुटनीति में काफी हद तक सफल भी रहे। 27 सितंबर 1857 को जवाहिर करीब 300 आदमियों के साथ विद्रोह की रणनीति बना रहे थे। तभी अंग्रेज सैनिकों ने घेर लिया और गोलियां बरसानी शुरू कर दी थी। इस घटना में जवाहिर के चाचा फागू रजवार की मौत हो गई थी। कई जख्मी हो गए थे। फिर जवाहिर की भी मौत हो गई थी। लेकिन 29 सितंबर को तत्कालीन डिप्टी मजिस्ट्रेट वर्सली ने लिखा कि जवाहिर डकैती में मारा गया।
इसके पूर्व 12 सितंबर को एतवा की गिरफ्तारी के लिए अंग्रंेज और जमींदारों की सेना एतवा के गांव कर्णपूर जा रहे थे, तभी सकरी नदी के किनारे भिड़ंत हो गई। इस घटना में एतवा बच निकले, लेकिन उनके 10-12 साथी शहीद हो गए। तब एतवा की गिरफ्तारी के लिए 200 रूपए का इनाम घोषित किया था। कई साल बाद 8 अप्रैल 1863 को करीब 10000 पुलिस, मिलिट्ी और जमींदार की फौज का अभियान चला, लेकिन एतवा बच निकला था।
            दस्तावेज बताते हैं कि एतवा के नेतृत्व में 10 सालों तक छिटपुट विद्रोह चला था। बाद में विद्रोही नेताओं का क्या हुआ कुछ पता नही। लेकिन दुख की बात यह कि ग्रामीणों के बीच जब एतवा और जवाहिर की चर्चा होती है तब उनकी जुबां से अंग्रेजों का दिया नाम निकलता है। गणतंत्र के मौके पर सोचने की जरूरत है कि यह है कि अंग्रेज गए लेकिन उनकी नीति अब भी जिंदा है। यही वजह है एतवा और जवाहिर को सेनानी का दर्जा नही मिल पा रहा है। अब इसकी थोड़ा बहुत चर्चा भी होती है तो वह बहुत छोटे दायरे में राजवंशी समाज के बीच।






अपसढ़ में है नालंदा से प्राचीन विश्वविधालय के अवशेष, लेकिन उसमें बांधे जाते हैं मवेशी

डाॅ. अशोक कुमार प्रियदर्शी
          बिहार के नवादा जिले के वारिसलीगंज प्रखंड के अपसढ़ गांव में नालंदा से भी प्राचीन विश्वविधालय के अवशेष मिल चुके हैं। लेकिन इसकी सुरक्षा भगवान भरोसे हैं। वैसे, मार्च 2011 में बिहार के कला संस्कृति विभाग ने 2.18 एकड़ गढ़, 74. 20 एकड़ तालाब और तीन डिसमील वराह मूर्ति के लिए भूमि को संरक्षित कर दिया है। लेकिन जमीन पर इस दिशा में कोई पहल नही किया जा सका है। लिहाजा, ऐतिहासिक महत्व के पुरातात्विक साक्ष्य का नुकसान हो रहा है।

गढ़ और तालाब का अतिक्रमण हो रहा है। वराह की मूर्ति क्षतिग्रस्त हो रहा है। गांव में सैकड़ों मूर्तियां बिखरी पड़ी है। मूर्तियों में मवेशी बांधे जा रहे हैं। दर्जनों कीमती मूर्तियां गायब कर दी गई है। यही नहीं, गढ़ की भीतियों में रामायण के प्रसंगों का आकर्षक चित्र था, जो संरक्षण के अभाव में नष्ट हो गया है। यही नहीं, सरकारी स्तर पर संरक्षित क्षेत्र को अतिक्रमण किया जा रहा है। अपसढ़ सरोवर के किनारे मनरेगा भवन, आंगनबाड़ी केन्द्र और शौचालय निर्माण करा दिए गए हैं। कई भूमिहीनों को संरक्षित क्षेत्र में जमीन का परचा दे दिया गया है। संरक्षित सरोवर पर मत्स्य विभाग का कब्जा है।

      अपसढ़ विरासत समिति के संयोजक युगल किशोर सिंह ने कहा कि कई दफा जिला प्रशासन से इसकी शिकायत की गई है। कला संस्कृति और युवा विभाग के निदेशक अतुल कुमार वर्मा ने जिला प्रशासन को संरक्षित घोषित अपसढ़ को अतिक्रमण मुक्त करने का पत्र लिखा है। हालांकि जिलाधिकारी ललनजी के मुताबिक, अधिकारी को आवश्यक कार्रवाई के लिए निर्देश दिया जा चुका है। गौरतलब हो कि राज्य सरकार ने अपसढ़ के विकास के लिए एक करोड़ रूपए राशि का प्रावधान भी किया है। लेकिन इस दिशा में पहल नही किया जा सका है।

क्या है अपसढ़ का इतिहास
1970-80  के दशक में कला संस्कृति विभाग के तत्कालीन निदेशक डाॅ प्रकाश शरण प्रसाद के नेतृत्व में की गई खुदाई मंे नालंदा से प्राचीन यूनिवर्सिटी का अवशेष मिला था। इसे धार्मिक महाविहार का अवशेष करार दिया। शाहपुर में प्राप्त मूर्ति में ‘अग्रहार’ का जिक्र मिला था। डाॅ. प्रकाश के मुताबिक, ‘अग्रहार’ शब्द के मुताबिक यह तक्षशिला के समकालीन था। तक्षशिला का जिक्र भी अग्रहार के रूप में मिलता है। मेजर कीटो, कनिंघम, एएम ब्रोडले, बिहार डिस्ट्रिक्ट गजेटियर और एंटीक्यूरीयन रीमेंस इन बिहार में अपसढ़ की चर्चा है। वराह की मूर्ति है, जिसकी तुलना मध्यप्रदेश के एरन में स्थापित मूर्ति से की जाती है।



Friday 16 January 2015

नालंदा से भी प्राचीन विश्वविद्यालय!

अशोक कुमार प्रियदर्शी | सौजन्‍य: इंडिया टुडे  12 जनवरी 2015 | अपडेटेड: 15:02 IST

      करीब पांच साल पहले तक यह जगह झडिय़ों से पटा हुआ एक बड़ा टीला थी. गंदगी इतनी होती थी कि इधर से गुजरना मुहाल. लेकिन दिसंबर, 2014 में बिहार के नालंदा जिले के एकंगरसराय प्रखंड में तेल्हाड़ा गांव के दक्षिण-पश्चिम में स्थित इस टीले की खुदाई में ऐसे कई अवशेष मिले हैं, जिससे भारतीय इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ गया है.
      इस खुदाई के बाद पुरातत्वविदों का दावा है कि तेल्हाड़ा में नालंदा और विक्रमशिला से भी प्राचीन विश्वविद्यालय के अवशेष हैं. इससे पहले तक इसे नालंदा यूनिवर्सिटी के बाद का महाविहार माना जा रहा था. यहां से मिले अवशेषों के कुषाणकालीन होने का दावा किया जा रहा है. यहां खुदाई से आंगन, बरामदा, साधना कक्ष, कुएं और नाले के साक्ष्य मिले हैं. बड़ी मात्रा में सील और सीलिंग मिली हैं. इसमें ज्यादातर टेराकोटा से बनी हैं. एक सील के ऊपर तप में लीन बुद्ध की अस्थिकाय दुर्लभ मूर्ति भी मिली है.

(तेल्हाहाड़ा में मिली बुद्ध की मूर्ति, बुद्ध के साथ मोगलायन और सरिपुत्र)
बिहार के कला संस्कृति और युवा विभाग के सचिव आनंद किशोर का दावा है, ''तेल्हाड़ा में 100 से ज्यादा ऐसी चीजें मिली हैं, जो साबित करती हैं कि तेल्हाड़ा में प्राचीन विश्वविद्यालय के अवशेष हैं. यहां कुषाणकालीन ईंट और मुहरें मिली हैं, जिनके पहली शताब्दी में बने होने का प्रमाण मिलता है. गौर तलब है कि नालंदा को चौथी और विक्रमशिला को आठवीं शताब्दी का विश्वविद्यालय माना जाता है." राज्य सरकार ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से इसकी खुदाई जारी रखने के लिए अनुमति मांगी है. 2007 में धन्यवाद यात्रा के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तेल्हाड़ा आए थे. तब यहां की  पंचायत के मुखिया डॉ. अवधेश गुप्ता ने इस पुरातत्व स्थल की खुदाई कराने का आग्रह किया था. 26 दिसंबर, 2009 को नीतीश ने खुद फावड़ा चलाकर यहां खुदाई की शुरुआत की थी.





बिहार पुरातत्व विभाग के निदेशक डॉ. अतुल कुमार वर्मा के नेतृत्व में खुदाई शुरू की गई थी. शुरू के दो-तीन साल यहां नालंदा विश्वविद्यालय काल के बाद के अवशेष मिले थे. लेकिन बाद में कुषाणकालीन चीजें मिलने लगीं. तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय का समय-समय पर जीर्णोद्धार होने के भी संकेत मिले हैं. यहां सबसे ऊपर पालकालीन ईंटें मिली हैं. इन ईंटों की लंबाई 32 सेमी, चौड़ाई 28 सेमी और ऊंचाई 5 सेमी है. उसके नीचे 36 सेमी लंबी, 28 सेमी चौड़ी और 5 सेमी ऊंची ईंटें मिली हैं, जो गुप्तकाल में प्रचलित थीं. इसके नीचे 42 सेमी लंबी, 32 सेमी चौड़ी और 6 सेमी ऊंची ईंटें मिली हैं, जो कुषाणकालीन संरचनाओं से मेल खाती हैं.

डॉ. वर्मा का मानना है, ''7वीं से 11वीं शताब्दी में नालंदा और आसपास का इलाका शिक्षा केंद्र के तौर पर मशहूर था. 35-40 किलोमीटर की परिधि में नालंदा और उदंतपुरी के बाद तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय का अस्तित्व इसका प्रमाण है. संभवत: तेल्हाड़ा इस इलाके में पहला विश्वविद्यालय था, जिसका विस्तार बाद में नालंदा विश्वविद्यालय के रूप में किया गया." तेल्हाड़ा को भी तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने नष्ट कर दिया था. खुदाई में अग्नि के साक्ष्य और राख की एक फुट मोटी परत मिली है.

बौद्ध धर्म की महायान शाखा की पढ़ाई के लिए तेल्हाड़ा बड़ा केंद्र माना जाता था. इसका उल्लेख ह्वेनसांग और इत्सिंग के यात्रा वृत्तांत में मिलता है. इसका जिक्र तीलाधक के रूप में मिलता है. चीनी यात्रियों ने इसे अपने समय का श्रेष्ठ और सुंदर महाविहार कहा है. महाविहार में तीन मंजिला मंडप के साथ-साथ अनेक तोरणद्वार, मीनार और घंटिया होती थीं. यहां के अवशेषों से भी इस बात की पुष्टि होती है.1980 के दशक में नवादा जिले के अपसढ़ में खुदाई में भी नालंदा से ज्यादा प्राचीन विश्वविद्यालय के अवशेष मिले थे. तब के पुरातत्व निदेशक डॉ. प्रकाशचरण ने अपसढ़ को तक्षशिक्षा का समकालीन विश्वविद्यालय बताया था.

बिहार विरासत समिति के सचिव डॉ. विजय कुमार चौधरी कहते हैं, ''बिहार में ऐसे पुरातात्विक साक्ष्य भरे पड़े हैं. राज्य में पुरातात्विक स्थलों के सर्वेक्षण में 6,500 साइटें मिली हैं. उनमें कई महत्वपूर्ण महाविहार हैं. तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय का अवशेष उसी कड़ी का हिस्सा है."

और भी... http://aajtak.intoday.in/story/artifact-older-than-nalanda-university-found-in-bihar-1-795020.html





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