Friday 8 May 2015

संस्मरण - मुझे उस डांट के सिवा कुछ याद नहीं

डॉ अशोक कुमार प्रियदर्शी
       मैं अपने जीवन का 45 वसंत पूरा कर चुका हूं। लेकिन मां को जब स्मरण करता हूं तो उनकी सिर्फ एक डांट ठीक से याद आती है। तब मैं कोई छह साल का था। मां मुझे भूंजा खाने को दी थी। उसे मैं खा चुका था। दोबारा भूंजा लेने की जिद कर रहा था। भूंजा कम था। यह बात मां मुझे बता चुकी थी। मां को मेरे चार भाइयों के लिए भी भूंजा बचाना था। फिर भी मैं भंूजा लेने की जिद कर रहा था। मां परेशान हो गईं। उसने भूंजा दी। लेकिन डांटते हुए मां बोली थी-यह ठीक आदत नही है। सिर्फ अपने पेट के बारे में सोचता है। पढ़ने में मन नही लगाता है। दिन भर सिर्फ खाय खाय अर्थात खाना खाना करते रहता है। 
       तब मां की उस डांट का मुझपर तनिक भी असर नही पड़ा था। मैं अपनी मर्जी पर चलता रहा। कोई दो साल बाद सड़क दुर्घटना में मां की मौत हो गई। तब मैं अपने गांव घोसतावां में था। मां की लाश गांव पहुंची। पूरा परिवार में कोहराम मचा था। लोग मुझे सांत्वना दे रहे थे कि इस बेचारे का क्या होगा! पर मेरी आंखों से आंसू नही आ रहे थे। लेकिन मां की मौत का असर कुछ माह बाद दिखने लगा। मेरे सिर के 90 फीसदी बाल उड़ गए थे। जैसे जैसे समय समय बीतता गया। मां की याद जोर से सताने लगा।
        तब वही डांट मां के स्वरूप के रूप में सामने आने लगा। कालांतर में यह मां का आकार ले लिया। हालांकि मुझे भूंजा खाने की आदत गई नही। लेकिन पढ़ने की आदत स्वभाविक रूप से जुड़ गया। क्योंकि मुझे जब भी मां की याद आती वह डांट के रूप में सामने आती। मुझे उस डांट में अपना अपराधबोध अहसास होने लगा। पहला कि मैं कितना खुदगर्ज था कि दूसरे की चिंता छोड़कर अपनी बात के लिए मां को परेशान कर रहा था। दूसरा कि पढ़ाई नही करता था, जिसके चलते मां मुझसे दुखी थी। 
       यह अपराध बोध मेरे जिंदगी के लिए सबक बन गया। परिस्थितियां ऐसी बनती गई कि पढ़ने के सिवा दूसरा कोई सहारा नही दिखने लगा। क्योंकि 18 साल की आयु में मेेरे पिताजी की भी आकस्मिक मौत हो गई थी। ऐसे में उपलब्ध सुविधाओं के बीच पढ़ाई की। एमए, पीएचडी, एलएलबी और डिपलोमा इन जर्नलिज्म की डिग्री ली। आकाशवाणी और दूरदर्शन केन्द्र पटना के संवाददाता के रूप में जुड़े। इसके अलावा कई पत्र और आउटलुक और इंडिया टुडे जैसे पत्रिका के लिए बिहार से लिखता रहा हूं। यही नहीं, एसकेएम कॉलेज नवादा में हिस्ट्री डिपार्टमेंट में बतौर प्राध्यापक भी हूं। 
      मैं मानता हूं कि यह बदलाव मां की उस डांट की वजह से संभव हो पाया है, जो अक्सर मुझे पढ़ने के लिए प्रेरित करता रहा। यही नहीं, एक और आदत कम चीजों में भी मिल बांटकर खाने की प्रवृति विकसित हुई है। इसका अहसास मेरे बच्चे और पत्नी टोक कर कराते रही है। सोचता हूं कि मां की एक डांट मेरे जीवन के लिए इतना महत्वपूर्ण बन गया। जब वह जीवित होती। मेरी हरकतों पर डांटा करती तो मेरी कितनी खामियां दूर हो जाती और मेरा खाली जीवन को भर देती।

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