अशोक कुमार प्रियदर्शी | सौजन्य: इंडिया टुडे | पटना, 1 मई 2012 | अपडेटेड: 19:57 IST
जमुई जिले के चननवर गांव की रीता सोशल वर्कर बनकर शिक्षा के क्षेत्र में लोगों की मदद करना चाहती है. लेकिन उसके इस अरमान के परवान चढ़ने से पहले ही 17 दिसंबर, 2011 की रात भाकपा माओवादियों (नक्सलियों) ने गांव के मिडल स्कूल को ध्वस्त कर उसके ख्वाबों में खलल डाल दिया. इससे उसकी पढ़ाई तो प्रभावित हुई ही, उसे भी अपने भाई-बहनों जैसा हश्र होने का डर सताने लगा है. उसकी दो बड़ी बहनों को इसलिए कम उम्र में ब्याह दिया गया क्योंकि वे निरक्षर थीं. उसके भाई ने पांचवीं के बाद इसलिए पढ़ाई छोड़ दी क्योंकि आगे की शिक्षा के लिए कोई संस्थान नहीं था.
अब रीता इस उम्मीद के साथ उस टूटी-फूटी इमारत में पढ़ाई कर रही है कि शायद हालात सुधर जाएं. वह सवालिया लहजे में कहती है, ''हमने किसी का क्या बिगाड़ा था जो हमारे अरमानों को मिट्टी में मिला दिया गया.''
रीता अकेली नहीं है, जिसके ख्वाब टूटे हैं. चननवर मिडल स्कूल में नेपाली, बबलू, छोटू और रेणु समेत 235 छात्र हैं, जिनके सामने कमोबेश ऐसे ही हालात हैं. छठी जमात की इंद्रा को ही लें. वह पढ़कर स्कूल टीचर बनना चाहती है मगर स्कूल की हालत ने उसे बेचैन कर दिया है.
ताज्जुब यह कि झारखंड के गिरिडीह और बिहार के नवादा जिले की सीमा पर जमुई जिले के इस गांव के बच्चों में शिक्षा हासिल करने की भूख कूट-कूट कर भरी हुई है. आठवीं की छात्रा रेणु कहती है, ''मेरी बड़ी बहन और भाई पढ़ाई नहीं कर सके. मैं इस कमी को टीचर बनकर पूरा करना चाहती हूं.'' गांव में लोग शिक्षा को लेकर जागरूक हुए हैं. मगर नक्सलियों की करतूतों से उनकी उम्मीदों को पलीता लगता नजर आ रहा है.
शिक्षक स्कूल जाने से कतराते नजर आते हैं. ऐसे ही एक शिक्षक विजय कुमार डेपुटेशन पर ब्लॉक में काम कर रहे हैं. खास बात यह है कि नक्सलियों ने ज्यादातर उन स्कूलों को उड़ा दिया है, जिनका इस्तेमाल पुलिस कैंप और मतदान केंद्र के रूप में किया गया. जैसा कि चननवर घटना के प्रत्यक्षदर्शी टीचर सुदामा भक्त बताते हैं, ''माओवादियों का आक्रोश स्कूल में पुलिस कैंप को लेकर था. उन लोगों ने गांववालों को यह चेतावनी देकर स्कूल को उड़ा दिया कि यहां दोबारा कैंप न लगे.'' यही नहीं, सुरक्षा कारणों से भी नक्सली दो-मंजिला स्कूल इमारतों को उड़ाते रहे हैं. आर्थिक संसाधनों पर हमले के इरादे से भी स्कूल उनके निशाने पर रहते हैं.
स्थानीय लोग अजीब कशमकश में फंसे हैं. उन्हें नक्सलियों के स्कूल इमारतों को नष्ट करने का विरोध करने पर जान का खतरा है तो पुलिस कैंप का विरोध करने पर नक्सली समर्थक होने का आरोप लगने का डर. इसके चलते वे मूकदर्शक बन सब कुछ होता देखने के लिए विवश हैं. दोनों ही हालात में असर बच्चों की शिक्षा पर पड़ रहा है. स्कूलों की टूटी-फूटी इमारतों के पुनर्निमाण में प्रशासनिक लाचारगी साफ झलकती है. इसी वजह से ध्वस्त हुई ज्यादातर इमारतें ज्यों की त्यों पड़ी हैं.
हालांकि सरकार ने स्कूलों में पुलिस कैंप स्थापित न करने का आदेश दे रखा है. मगर स्थानीय लोगों का कहना है कि जब भी नक्सलियों के खिलाफ अभियान चलाए जाते हैं तब व्यवहार में उस निर्देश का पालन नहीं हो पाता. बिहार के पुलिस महानिदेशक अभयानंद ने इंडिया टुडे को बताया, ''अब राज्य में कोई भी ऐसा स्कूल नहीं है, जहां पुलिस कैंप है. स्कूलों से पुलिस शिविरों को क्वार्टरों में शिफ्ट कर दिया गया है.''
वहीं वरिष्ठ नागरिक संघ स्कूलों पर हमले का अलग कारण मानता है. संघ के पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्रीनंदन शर्मा कहते हैं, ''अशिक्षा और गरीबी ही नक्सलियों का आधार रहे हैं. उन्हें डर है कि जब लोग पढ़-लिख जाएंगे तब क्षेत्र में उनकी पकड़ ढीली पड़ जाएगी. लिहाजा, यह पुलिस से रंजिश के नाम पर बच्चों को शिक्षा से वंचित रखने का कुचक्र है.'' जमीनी हकीकत यह है कि नक्सली हमलों में ज्यादा नुकसान उन लोगों का हो रहा है, जिनके वे हितैषी होने का दंभ भरते हैं. पिछले हफ्ते पटना में केंद्रीय गृह सचिव आर.के. सिंह ने भी यही बात कही, ''गरीबों और आदिवासियों की सुरक्षा के नाम पर नक्सलियों ने अब तक सबसे ज्यादा उन्हीं की हत्या की है और उन्हें हर तरह से क्षति पहुंचाई है.''
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने भी इस समस्या से निजात के लिए नक्सल प्रभावित नौ राज्यों में 400 एंटी नक्सल पुलिस स्टेशनों की मंजूरी दे दी है. इनमें 85 बिहार के लिए हैं जो दूसरे किसी भी राज्य की तुलना में सर्वाधिक है. हर थाने के निर्माण में दो करोड़ रु. खर्च होंगे.
चननवर जमुई का इकलौता ऐसा स्कूल नहीं है. जिले के खैरा ब्लॉक के गढ़ी, सोनो ब्लॉक के भलसुधियां, महेसरी, सरकंडा, चरका पत्थर, बरहट ब्लॉक के चोरमारा और गुरमाहा स्कूल नक्सलियों के हमले का शिकार हो रहे हैं. चननवर के हालात ध्वस्त स्कूलों के बच्चों की मुश्किलों को समझने की बानगी भर हैं. बिहार में पिछले छह साल में जमुई के अलावा बांका, मुंगेर, औरंगाबाद, गया, कैमूर, जहानाबाद, मुजफ्फरपुर, पश्चिमी चंपारण और पूर्वी चंपारण जैसे नक्सल प्रभावित जिलों के 46 स्कूल निशाना बने हैं.
देखा जाए तो औसतन डेढ़ महीने के अंतराल पर एक सरकारी स्कूल को ध्वस्त किया गया है. केंद्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक, 2006 से नवंबर 2011 तक देश के 258 स्कूलों को उड़ा दिया गया, जिसमें बिहार के 46 स्कूल शामिल हैं. नक्सलियों ने इस अवधि में सबसे ज्यादा छतीसगढ़ में 131, जबकि झारखंड में 63 और बिहार में 46 स्कूल ध्वस्त कर दिए, बिहार के स्कूलों की संख्या थोड़ी कम जरूर है. लेकिन खास यह कि राज्य देश के उन चार नक्सल प्रभावित राज्यों छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिसा की कतार में आ गया है, जिनमें इस तरह की घटनाओं में इजाफा हुआ है. ऐसी घटनाओं से उपजी परिस्थितियों से निपटने के लिए उपाय किए जा रहे हैं.
केंद्रीय जनजाति कल्याण कार्य मंत्रालय ने नक्सल प्रभावित और अति पिछड़ा क्षेत्र के अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के बच्चों की शिक्षा के लिए आश्रम स्कूल खोलने का फैसला किया है. इसके तहत राज्य के जमुई, रोहतास, भभुआ, मुंगेर, बांका, नवादा और गया में आवासीय सुविधायुक्त स्कूल खोले जाएंगे. लेकिन इसे एक लंबी प्रक्रिया माना जा रहा है, जिसमें समय लगेगा. बिहार पुलिस ने स्कूल से महरूम बच्चों को जोड़ने के लिए फिर से अभियान शुरू किया है, लेकिन उन्हें इमारत विहीन स्कूलों से जोड़ पाना अहम सवाल है.
बहरहाल, कारण जो भी हो, स्कूलों पर नक्सली हमलों की घटना, और उसके बाद की परिस्थितियां यह सोचने को मजबूर करती हैं कि क्या नन्हीं आंखों का सुनहरे ख्वाब देखना गुनाह है.
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Web Title : Bihar dream drown of children
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