डाॅ. अशोक कुमार प्रियदर्शी
जवाहिर और एतवा राजवंशी ने अंग्रेजों को पसीना छुड़ाया था। लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें दिया था डकैत का नाम। ब्रिटिश नीति के कारण गुमनाम रहे नायकों के नाम
भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन में नवादा जिलेे के पसई निवासी जवाहिर रजवार और कर्णपुर निवासी एतवा रजवार की उल्लेखनीय भूमिका रही है। नवादा-नालंदा इलाका मंे होनेवाले विद्रोह की हर घटनाओं में दोनों के नाम आ रहे थे। जैसा कि 1857ः भारत की स्वातंत्रता आंदोलन में बिहार झारखण्ड किताब, बिहार सरकार की पत्रिका और जिला प्रशासन के स्मारिका में उल्लेख मिलता है। लेकिन अंग्रेजों की फूट डालों और शासन करो की नीति का खामियाजाना कि गणतंत्र के ये दोनों आजादी के छह दशक बाद भी गुमनाम रहे हैं।
दरअसल, विद्रोह के दौरान जवाहिर और एतवा ने अंग्रेंजों को नाकोदम कर दिया था। सरकारी कचहरी, बंगले, जमींदार और उसके कारिंदे की सम्पति विद्रोहियों के निशाने पर था। विद्रोहियों को जब मौका मिलता घटना को अंजाम देने से नही चूकते थे। कई जमींदारों ने भी विद्रोहियों को समर्थन देना शुरू कर दिया था। तब अंग्रेज अधिकारियों ने विद्रोह पर काबू पाने के लिए विद्रोहियों को चोर और डकैत जैसा नाम देने लगे थे, ताकि विद्रोहियों से लगाव के बजाय नफरत पैदा हो।
अंग्रेज अपनी इस कुटनीति में काफी हद तक सफल भी रहे। 27 सितंबर 1857 को जवाहिर करीब 300 आदमियों के साथ विद्रोह की रणनीति बना रहे थे। तभी अंग्रेज सैनिकों ने घेर लिया और गोलियां बरसानी शुरू कर दी थी। इस घटना में जवाहिर के चाचा फागू रजवार की मौत हो गई थी। कई जख्मी हो गए थे। फिर जवाहिर की भी मौत हो गई थी। लेकिन 29 सितंबर को तत्कालीन डिप्टी मजिस्ट्रेट वर्सली ने लिखा कि जवाहिर डकैती में मारा गया।
इसके पूर्व 12 सितंबर को एतवा की गिरफ्तारी के लिए अंग्रंेज और जमींदारों की सेना एतवा के गांव कर्णपूर जा रहे थे, तभी सकरी नदी के किनारे भिड़ंत हो गई। इस घटना में एतवा बच निकले, लेकिन उनके 10-12 साथी शहीद हो गए। तब एतवा की गिरफ्तारी के लिए 200 रूपए का इनाम घोषित किया था। कई साल बाद 8 अप्रैल 1863 को करीब 10000 पुलिस, मिलिट्ी और जमींदार की फौज का अभियान चला, लेकिन एतवा बच निकला था।
दस्तावेज बताते हैं कि एतवा के नेतृत्व में 10 सालों तक छिटपुट विद्रोह चला था। बाद में विद्रोही नेताओं का क्या हुआ कुछ पता नही। लेकिन दुख की बात यह कि ग्रामीणों के बीच जब एतवा और जवाहिर की चर्चा होती है तब उनकी जुबां से अंग्रेजों का दिया नाम निकलता है। गणतंत्र के मौके पर सोचने की जरूरत है कि यह है कि अंग्रेज गए लेकिन उनकी नीति अब भी जिंदा है। यही वजह है एतवा और जवाहिर को सेनानी का दर्जा नही मिल पा रहा है। अब इसकी थोड़ा बहुत चर्चा भी होती है तो वह बहुत छोटे दायरे में राजवंशी समाज के बीच।
जवाहिर और एतवा राजवंशी ने अंग्रेजों को पसीना छुड़ाया था। लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें दिया था डकैत का नाम। ब्रिटिश नीति के कारण गुमनाम रहे नायकों के नाम
भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन में नवादा जिलेे के पसई निवासी जवाहिर रजवार और कर्णपुर निवासी एतवा रजवार की उल्लेखनीय भूमिका रही है। नवादा-नालंदा इलाका मंे होनेवाले विद्रोह की हर घटनाओं में दोनों के नाम आ रहे थे। जैसा कि 1857ः भारत की स्वातंत्रता आंदोलन में बिहार झारखण्ड किताब, बिहार सरकार की पत्रिका और जिला प्रशासन के स्मारिका में उल्लेख मिलता है। लेकिन अंग्रेजों की फूट डालों और शासन करो की नीति का खामियाजाना कि गणतंत्र के ये दोनों आजादी के छह दशक बाद भी गुमनाम रहे हैं।
दरअसल, विद्रोह के दौरान जवाहिर और एतवा ने अंग्रेंजों को नाकोदम कर दिया था। सरकारी कचहरी, बंगले, जमींदार और उसके कारिंदे की सम्पति विद्रोहियों के निशाने पर था। विद्रोहियों को जब मौका मिलता घटना को अंजाम देने से नही चूकते थे। कई जमींदारों ने भी विद्रोहियों को समर्थन देना शुरू कर दिया था। तब अंग्रेज अधिकारियों ने विद्रोह पर काबू पाने के लिए विद्रोहियों को चोर और डकैत जैसा नाम देने लगे थे, ताकि विद्रोहियों से लगाव के बजाय नफरत पैदा हो।
अंग्रेज अपनी इस कुटनीति में काफी हद तक सफल भी रहे। 27 सितंबर 1857 को जवाहिर करीब 300 आदमियों के साथ विद्रोह की रणनीति बना रहे थे। तभी अंग्रेज सैनिकों ने घेर लिया और गोलियां बरसानी शुरू कर दी थी। इस घटना में जवाहिर के चाचा फागू रजवार की मौत हो गई थी। कई जख्मी हो गए थे। फिर जवाहिर की भी मौत हो गई थी। लेकिन 29 सितंबर को तत्कालीन डिप्टी मजिस्ट्रेट वर्सली ने लिखा कि जवाहिर डकैती में मारा गया।
इसके पूर्व 12 सितंबर को एतवा की गिरफ्तारी के लिए अंग्रंेज और जमींदारों की सेना एतवा के गांव कर्णपूर जा रहे थे, तभी सकरी नदी के किनारे भिड़ंत हो गई। इस घटना में एतवा बच निकले, लेकिन उनके 10-12 साथी शहीद हो गए। तब एतवा की गिरफ्तारी के लिए 200 रूपए का इनाम घोषित किया था। कई साल बाद 8 अप्रैल 1863 को करीब 10000 पुलिस, मिलिट्ी और जमींदार की फौज का अभियान चला, लेकिन एतवा बच निकला था।
दस्तावेज बताते हैं कि एतवा के नेतृत्व में 10 सालों तक छिटपुट विद्रोह चला था। बाद में विद्रोही नेताओं का क्या हुआ कुछ पता नही। लेकिन दुख की बात यह कि ग्रामीणों के बीच जब एतवा और जवाहिर की चर्चा होती है तब उनकी जुबां से अंग्रेजों का दिया नाम निकलता है। गणतंत्र के मौके पर सोचने की जरूरत है कि यह है कि अंग्रेज गए लेकिन उनकी नीति अब भी जिंदा है। यही वजह है एतवा और जवाहिर को सेनानी का दर्जा नही मिल पा रहा है। अब इसकी थोड़ा बहुत चर्चा भी होती है तो वह बहुत छोटे दायरे में राजवंशी समाज के बीच।