Saturday 30 January 2016

जिद करो दुनिया बदलो-जिन्हें दो बार दाखिला के लिए लौटा दिया, उन्होंने बनाई दुनिया में पहचान

 अशोक प्रियदर्शी
          बात तीन दशक पुरानी है। बिहार के नवादा जिले के पकरीबरावां प्रखंड के कोननपुर गांव के नरेंद्रपाल सिंह आइएससी पास किया था। वह बैचलर आॅफ फाइन आर्ट इन पेंटिग में दाखिला के लिए पटना यूनिवर्सिटी के काॅलेज आॅफ आर्ट एंड क्राफ्ट में आवेदन किया था। लेकिन तत्कालीन प्राचार्य ने साइंस का विधार्थी रहने के कारण उन्हें दाखिला लेने से इंकार कर दिया था। प्राचार्य का तर्क था कि साइंस के विधार्थी आर्ट के क्षेत्र में ज्यादा दिनों तक नही टिक सकते। आर्टिटस्ट का एक सीट बेकार चला जाएगा। अगला साल फिर नरेंद्रपाल प्रयास किया। लेकिन निराशा हाथ लगी। नरेंद्रपाल कहते हैं कि तीसरे प्रयास मेें उनका दाखिला तब हुआ जब वह जानबुझकर केमिस्ट्री में फेल कर गए। नरेंद्रपाल कहते हैं कि उनका बचपन से चित्रकार बनने का सपना था।  

नरेंद्रपाल का जिद ही था कि आज वह देश के प्रमुख चित्रकारों में हैं। उनके चित्रों भारत के अलावा पांच देशों में प्रदर्शित हो चुकी है। नरेंद्रपाल के चित्रों का प्रदर्शन शिकागो (अमेरिका), बर्लिन (जर्मनी),वार्सिलोना (स्पेन), साउथ कोरिया, इटली में हुआ। पिछले साल चेक गणराज्य के प्राॅग नेशनल गैलरी में ‘ओरिएंटल एंड टेमपररी- दि आर्ट आॅफ एशिया’ की प्रदर्शनी में उनका चित्र शामिल हुआ।  प्राॅग के नेशनल गैलरी में किसी भारतीय के लिए पहला अवसर है। खास कि जिन देशों में नरेंद्रपाल के चित्रों की प्रदर्शनी हुई, उसका खर्च भी आयोजक देशों ने उठाया। नरेंद्रपाल के मुताबिक, मार्च- अप्रैल में इटली में प्रदर्शनी की जाएगी।
         यही नहीं, नरेंद्रपाल की जिद ने प्राचार्य के अवधारणा को बदल दिया। प्राचार्य पांडेय सुरेंद्र जी के रिटायरमेंट के बाद लखनउ में जब नरेंद्रपाल से मुलाकात हुई तब उन्होंने गले लगाकर आर्शीवाद दिया। नरेंद्रपाल कहते हैं कि शिक्षक और अभिभावक के नजरिया भी बदल गया। बचपन में चित्रकारी में लीन रहने के कारण डांट सुननी पड़ती थी।

नरेंद्रपाल के चित्रकारी की खासियत
        नरेंद्रपाल अमूर्तन चित्रशैली की अमिट छाप छोड़ी है। इसमेें संकेत के जरिए चित्रित किया गया है। इसका दृष्टिकोण नाम दिया गया। नरेंद्रपाल ने सर्कस, नायिका, लुकिंग ग्लास जैसे दर्जनों सीरिज के जरिए देश दुनिया में पहचान बनाई। इटली के फ्रेड्रिको फैलिनी पर आधारित ला-डोक्चे-बिटा यानि स्वीट लाइफ पर उनकी चित्रकारी काफी ख्याति दिलाई।
        बहरहाल, नरेंद्रपाल दी रिमेंस आॅफ ऐस्टरडे (कल का अवशेष) सीरिज पर काम कर रहे हैं। नरेंद्रपाल कहते हैं कि देश और दुनिया की विस्मृत हो रही चीजों को चित्र के जरिए बनाये रखने की कोशिश की जा रही है। इटली और मिश्र जैसे देश इस दिशा में प्रयास करती रही है। लेकिन भारत पुरानी चीजों को भूलती जा रही है। ऐसे में उनका प्रयास चित्रकारी के जरिए उसे जीवित रखना है। बैलगाड़ी की विदाई, वट सावित्री पूजा, हैंडमील (जाता), निर्वाण और प्रकृति, मूर्तिकला, बाइस्कोप, नौटंकी जैसे चित्रकारी शामिल है।

सम्मानित
     

पिछले साल बिहार के खेल, युवा और संस्कृति मंत्रालय ने नरेंद्रपाल को वरिष्ठ चित्रकार राधामोहन प्रसाद आवाॅर्ड  से सम्मानित किया है। उन्हें एकरीलिक पेंिटग के लिए नार्थन रिजन अवार्ड मिल चुका है। उन्हें बिहार यंग जर्नलिस्ट एसोसिएशन ने बिहार श्री का अवार्ड दिया। वह आॅल इंडिया पेंटिंग जज कमेटी के मेंबर रहे हैं। ऐसे सम्मानों की सूची लंबी है।



जिस चित्रकारी के लिए सुनते थे डांट आज वही बनी पहचान

अशोक प्रियदर्शी
          बात तीन दशक पहले की है। बिहार के नवादा जिले के पकरीबरावां प्रखंड के कोननपुर निवासी नरेंद्रपाल सिंह आइएससी पास किया था। वह बैचलर आॅफ फाइन आर्ट इन पेंटिग की पढ़ाई के लिए पटना यूनिवर्सिटी के काॅलेज आॅफ आर्ट एंड क्राफ्ट में दाखिला के लिए आवेदन किया था। तब प्राचार्य उन्हें साइंस का विधार्थी रहने के कारण दाखिला नही लिया।  अगले साल भी नरेंद्रपाल को निराशा हाथ लगी। तीसरे प्रयास में दाखिला तब हुआ जब वह जानबुझकर रसायण में फेल कर गए थे। दरअसल, प्राचार्य को आशंका थी कि दूसरे क्षेत्र में अवसर मिल जाने के बाद नरेंद्र बीच में आर्ट की पढ़ाई छोड़ देगा। लिहाजा, यह  सीट खाली रह जाएगी।
         लेकिन नरेंद्रपाल ने अपने भीतर के चित्रकारी को देश और दुनिया के समक्ष प्रस्तुत कर प्राचार्य के आशंका को भ्रम करार दे दिया। रिटायरमेंट के बाद लखनउ में जब प्राचार्य पांडेय सुरेंद्र से नरेंद्रपाल की मुलाकात हुई तब गला लगाकर आशीर्वाद दिया। नरेंद्रपाल के लिए यह पहला अवसर नही था। मैट्रिक के पहले भी वह चित्रकला के कारण शिक्षक और अभिभावक से डांट सुनते थे।  लेकिन नरेंद्रपाल अडिग नही हुआ। यही वजह है कि आज चेक गणराज्य के प्राॅग नेशनल गैलरी में ‘ओरिएंटल एंड टेमपररी- दि आर्ट आॅफ एशिया’ की प्रदर्शनी में उनकी पेटिंग्स को प्रदर्शित किया गया है। यह प्रदर्शनी पहली अप्रैल से लगी है जो सितंबर तक रहेगी। खास कि प्राॅग के नेशनल गैलरी में किसी भारतीय के लिए पहला अवसर है। 
       नरेंद्रपाल की पांच पेटिंग्स- बैलगाड़ी की विदाई, वट सावित्री पूजा, हैंडमील (जाता), निर्वाण और प्रकृति को शामिल किया गया है। चीन और जापान की तरफ से पुराने मूर्तिकला और पंेटिग्स को प्रदर्शित किया गया है। इतना ही नही, नेशनल गैलरी के कलेक्शन में नरेंद्रपाल के पेंिटग को शामिल किया गया है। इसके पहले भारत के एमएस हुसैन, चित प्रसाद और गायटोंडे के पेटिंग्स शामिल था। 
 विनोद भारद्धाज इस प्रदर्शनी के क्यूरेटर हैं।  
नरेंद्रपाल मानते हैं कि लटुस्का की मैनेजिंग डायरेक्टर सरका लिटनोवा जी के योगदान के कारण यह संभव हुआ है। देखें तो, इसके पहले नरेंद्रपाल अमेरिका के सिकागो, जर्मनी के बर्लिन, स्पेन के वार्सिलोना, साउथ कोरिया के भूसान में प्रदर्शनी लगा चुके हैं। चेक गणराज्य के बाद जापान के ओसाका और क्योटो में प्रदर्शनी लगाने की योजना है।




नरेंद्रपाल की खासियत
       नरेंद्रपाल अमूर्तन चित्रशैली की अमिट छाप छोड़ी है। इसमें सिंबल यानि संकेत के जरिए चित्रित किया गया है। इसका दृष्टिकोण नाम दिया गया। नरेंद्रपाल ने सर्कस, नायिका, लुकिंग ग्लास जैसे दर्जनों सीरिज के जरिए देश दुनिया में अपनी पहचान बनाई है। इटली के फ्रेड्रिको फैलिनी पर आधारित ला-डोक्चे-बिटा यानि स्वीट लाइफ पर उनकी चित्रकारी काफी ख्याति दिलाई। 
       बहरहाल, नरेंद्रपाल दी रिमेंस आॅफ ऐस्टरडे (कल का अवशेष) नाम से सीरिज पर काम कर रहे हैं। नरेंद्रपाल कहते हैं कि देश और दुनिया की विस्मृत हो रही चीजों को चित्र के जरिए बनाने रखने की कोशिश की जा रही है। बदले समय में स्वरूप बदला है लेकिन नींव नही। 

सम्मानित
      नरेंद्रपाल को बिहार के खेल, युवा और संस्कृति मंत्रालय ने वरिष्ठ चित्रकार राधामोहन प्रसाद आवाॅर्ड से सम्मानित करने की घोषणा की है। 2005 में एकरीलिक पेंिटग के लिए नार्थन रिजन अवार्ड मिला। बिहार यंग जर्नलिस्ट एसोसिएशन ने बिहार श्री का अवार्ड दिया। वह आॅल इंडिया पेंटिंग जज कमेटी के मेंबर रहे हैं। ऐसे सम्मानों की सूची लंबी है।

 


Saturday 23 January 2016

रूकमिनी साड़ी में छिपाकर बचा ली थी नेता जी का जारी नोट, रूकमिनी परिवार के लिए है बड़ी थाती

अशोक प्रियदर्शी
          
      नेताजी सुभाष चंद्र बोस का सहयोग करने के कारण नवादा जिले के प्रयाग सिंह के कैंटीन को बंद करा दिया गया था। प्रयाग के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कर दिया गया था। प्रयाग परिवार को कोलकाता छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया था। यही नहीं, प्रयाग परिवार के साथ अत्याचार किया गया था। धरों की तलाशी ली गई थी। तलाशी में नेताजी द्वारा जारी नोट मिले थे। लिहाजा, प्रयाग दंपति के साथ मारपीट की गई थी। ताज्जुब कि प्रयाग की पत्नी राधा रूकमिनी ने एक हजार रूपए का नोट साड़ी में छिपाकर बचा लीं थी। बांके सिंह दादा प्रयाग सिंह से जुड़ी यादों को साझा कर रहे थे।

          बांके सिंह मानते हैं कि यह नोट देश की आजादी में उनके पुरखों के संघर्ष को दिखाता है। यह उनके परिवार के लिए सबसे बड़ी थाती है। इसे किसी कीमत पर खोना नही चाहते। यह नोट नेताजी के प्रमुख सहयोगी से दादाजी को मिला था। तब यह नोट गुलाम भारत में आजाद भारत की निशानी थी। इसे नेताजी ने जारी किया था। 
दरअसल, प्रयाग सिंह के परिवार पर कोलकाता के सीसीएफ आॅफिस परिसर में ब्रिट्रिश सैनिकों पर बम विस्फोट कराने के लिए जासूसी का आरोप था। आरोप था कि कैंटीन में बम विस्फोट की साजिश रची गई थी। इसमें प्रयाग और उनके भाई महावीर की भूमिका ने अदा की थी। हालांकि बम फेंका गया था, लेकिन विस्फोट नही हो सका। लेकिन ब्रिट्रिश सैनिक बौखला गए। क्योंकि ब्रिट्रिश सेना को आजाद हिंद फौज के हमले से बचाने के लिए फोर्ट बिलियम से हटाकर कोयला घाट स्थित सीसीएफ परिसर में ठिकाना बनाया गया था।

दरअसल, बिहार के नवादा जिले के नरहट प्रखंड के कुशा गांव निवासी प्रयाग सिंह और महावीर सिंह गुड़ का कारोबार करते थे। कारोबार मे मुनाफा नही था। इसलिए कोलकाता चले गए थे। कोलकाता मंे रेलवे मंत्रालय के कोयला घाट में कैंटीन खोला था। प्रयाग सिंह कैंटीन संभालते थे। जबकि महावीर सिंह समुद्री जहाज में चाय पिलाया करते थे। 

        तभी महावीर को रंगून में नेताजी की एक सभा में शामिल होने का अवसर मिला था। उसके बाद से महावीर आजाद हिंद फौज का सक्रिय सेनानी बन गए थे। महावीर अपने भाई के जरिए खुफियागिरी कराते थे। आजाद हिंद फौज के लोग कैंटीन में बैठा करते थे। बाद में महावीर सिंह की लड़ाई के दौरान मौत हो गई थी। लेकिन प्रयाग सिंह जुड़े थे।

        बांके सिंह के मुताबिक, दादा बताया करते थे कि उनपर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कर दिया गया था। हालांकि आजाद हिंद फौज बचाओ समिति के अध्यक्ष असरफ अली के नेतृत्व में उग्र विरोध हुआ था। तब मुकदमा उठा लिया गया था। बांके सिंह के पुत्र जीवनलाल चंद्रवंशी कहते हैं कि उनके दादा दादी का यह योगदान उन्हें आज भी साहस प्रदान करता है।
 

Thursday 21 January 2016

सास जब बहू बनकर सोचती हैं, तब बेटी के रूप में दिखती है बहू



डाॅ.अशोक कुमार प्रियदर्शी
बात एक हफ्ते पहले की है। बहू खाना बना रही थी। सास को स्नान करना था। पानी गरम करने में देर हो गई। सास ने किचन से गुथा हुआ आटा उठाकर पड़ोसी के घर में फेंक दिया। उधर पड़ोसी चिल्लाते हुए निकलती है। प्रतिक्रिया में बहु हाथ जोड़ती हुई निकलती है। पड़ोसी महिला से सासू मां की गलती के लिए बहू माफी मांगती है। शेखपुरा जिले के बरवीघा प्रखंड के तेउस निवासी बीपी सिंह की पुत्रवधू सोनी के लिए किसी एक दिन की घटना नही है। उनकी सास अक्सर कोई न कोई ऐसा हरकत कर दिया करती हैं। लेकिन सासू की गलतियों को उनकी बहु नजरअंदाज कर दिया करती है। उनकी सास विमला कभी शौचालय का नल खुला छोड़ देती हैं। कभी गैस खुला छोड़ देती हैं। कभी पानी की जगह दूध फेंक देती है। 
           दरअसल, विमला की मानसिक हालात अक्सर असंतुलित हो जाया करता है। वह लंबे समय से अस्वस्थ्य हैं। इलाजरत हैं। लेकिन सास की गलतियों को कभी गंभीरता से नही लेती। सोनी सास की हर जरूरतों का ख्याल रखती हैं। लिहाजा, इस अवस्था में भी सास बहू  की जिदंगी खुशहाल तरीके से कट रहा है। बता दें कि सोनी लव मैरेज शादी की थी। लेकिन उनका संस्कार अरेंज मैरेज से कम नही। दुखद कि दो साल पहले सोनी के पति की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई है। लेकिन प्रतिकूल परिस्थिति में भी सोनी अपना कर्तव्य नही भूली है। सोनी कहती है कि उनकी मां अस्वस्थ्य रहती तो क्या उन्हें छोड़ देती। उन्हें भी बेटे और बेटी है। ऐसे में मैं सास के साथ अच्छा बर्ताव नही रखूंगी तो अगली पीढ़ी क्या सिखेगी।


बिजनौर में बहू के हाथों पिटते हुए सास का वीडियो लोगों को झकझोर दिया था। खासकर बहुओं को काफी लज्जित कर दिया था। लेकिन बिहार के सोनी की कहानी उतरप्रदेश के बिजनौर में घटित घटना के प्रतिकूल है। बिजनौर की घटना से इतर भी सास बहू की तस्वीर है। इसे नकारा नही जा सकता। नवादा नगर के नवीननगर निवासी सास धुरोपति देवी और बहू बबीता देवी के मधुर संबंध अनुकरणीय है। बबीता सास को खाना खिलाने के बाद खाना खाती है। वह इसलिए नही कि यह परंपरा है। धुरोपति देवी कहती हैं कि पति की मौत के बाद वह अपनी सेहत का ख्याल रखना छोड़ दी थीं। उनकी तबियत खराब हो गई थी। लेकिन तब से बहू उनका ख्याल रख रही हैं। बहू उन्हें खाना खिलाकर या फिर साथ खाती हैं। यह सिलसिला सालों से चल रहा है। 
           बहू का प्यार एकतरफा नही है। सास भी बहू का काफी ख्याल रखती हंै। बहू को जब बाजार निकलना होता है तब उनके पर्स में पैसे का ख्याल सास रखती हैं। बबीता मानती हैं कि ऐसी सास किस्मतवालों को मिलती है। बता दें कि धुरोपति देवी स्व नागेन्द्र विधार्थी की पत्नी हैं। धुरोपति देवी के तीन बेटे हैं। उन्हें तीन बेटे हैं। बेटी नही है। लेकिन धुरोपति पुत्रवधूओं को बेटियां मानती हैं। उनकी दो पुत्रवधूएं बाहर रहती हैं। बबीता उनके साथ रहती हैं। बबीता के पति मुकेश विधार्थी सामाजिक कार्यकर्ता हैं।
        
एक टाॅफी के होते हैं तीन टुकड़े-
नवादा जिले के पकरीबरावां प्रखंड के कवला गांव निवासी कपिलदेव प्रसाद के दो पुत्र हैं। बड़े पुत्र नवनीत टीचर हैं। जबकि छोटा पुत्र अंटज बिजनेसमैन। पूरा परिवार एक छत के नीचे नवादा में रहते हैं। जहां सास-बहुएं के बीच की कहानी मिसाल है। जयरानी देवी कहती हैं कि उनके किसी बहू को कोई एक टाॅफी देता है तो बहुएं का प्रयास होती है कि उस टाॅफी का एक एक टुकड़ा सभी के मुंह में चला जाय। श्वेता कहती हैं कि उनकी सास उन्हें मां से भी ज्यादा प्यार करती हैं। हर खुशी का ख्याल रखती हैं। उन्हें भी लगता है कि सास को कष्ट नही पहुंचे। तीज में बहुएं को साड़ी का गिफ्ट देते हैं तो जितिया में वेलोग गिफ्त करती हैं।

बहु के बिना नही देखती सिरियल्स 
ये बहू कहां हो! काला टीका सिरियल शुरू हो गया है। आ रही हूं मां। उसके बाद सास और बहू साथ बैठकर सिरियल देखती हैं। राजेन्द्र नगर की गिरिजा देवी और उनकी बहू रेणु देवी की यह रोज की कहानी है। दोनों के बीच उम्र का फासला है। लेकिन काफी सामंजस्य है। सिरियल की कहानी जब टीवी पर नही समझ पाती तो उसे बहू समझाती हैं। खास कि गिरजा और रेणु के बीच यह मधुर रिश्ता टीवी सिरियल्स तक सीमित नही है। गृहस्थ जीवन में भी मिसाल दिया जाता है। शायद ही कोई दिन ऐसा हो जब सास को बहू तेल नही लगाती। यही नहीं, बहू जब बीमार पड़ती है तब सास भी नही चुकती है। 
           बता दें कि गिरिजा के पति  किशोरी प्रसाद बीसीइओ पद से रिटायर हैं। 80 साल के हैं। उनके एक पुत्र चंद्रशेखर प्रसाद यूपी के गुरसहायगंज एसबीआई ब्रांच के मैनेजर हैं, जबकि दूसरे शशिभूषण प्रसाद निजी कंपनी में कार्यरत हैं। गिरिजा कहती हैं कि मैं भी कभी बहु थी। इसलिए बहु को उसी नजर से देखती हूं। उनकी बहु भी उन्हें मां से ज्यादा सम्मान करती हैं। रेणु मानती हैं कि धर में दो सदस्य का परिवार है। इसमें तालमेल नही रखूंगी तो एक पल बिताना भी मुश्किल हो जाएगा।

क्या कहती हैं डॉ मीता-
          पटना इगनू की सहायक क्षेेत्रीय निदेशक डाॅ मीता कहती हैं कि सास बहू के बीच कड़वाहट की वजह जेनरेशन गैप है। दरअसल, विवाद की वजह ट्रेडिशनल और प्रैक्टिल विचारधारा होता है। सास ट्रेडिशनल जबकि बहुएं प्रैक्टिकल। लिहाजा, वैचारिक गतिरोध उत्पन्न होता है। लेकिन जो लोग इन चीजों को एडजस्ट कर लेते हैं उनके घरों में यह परेशानी नही होती। हालांकि किसी एक के बदलाव से यह संभव नही है। दोनों पक्ष को थोड़ा थोड़ा बदलने की जरूरत है। जिन घरों में यह बदलाव आ जाता है उन घरों में सास बहू के रिश्ते मिसाल बन जाते हैं।


Wednesday 20 January 2016

शिव मंदिर निर्माण नही करा पाने का पश्चाताप , साइकिल से बारह ज्योतिर्लिंग का दर्शन से पूरा कर रहे उदय


अशोक प्रियदर्शी
बात आठ साल पहले की है। बिहार के नवादा जिले के सिरदला प्रखंड के रवियो गांव में खुदाई के दौरान एक शिवलिंग निकला था। ग्रामीणों ने उस स्थल पर मंदिर निर्माण कराने का निर्णय लिया था। इसकी अगुआई के लिए ग्रामीण उदय प्रसाद को चुना गया। ग्रामीणों ने उदय को मंदिर निर्माण में सहयोग करने का आश्वासन दिया था। उदय प्रसाद पूरी निष्ठा और आस्था से मंदिर निर्माण में जुड़ गए थे।
लेकिन कालांतर में ग्रामीण पीछे हटते चले गए। उदय की आर्थिक हैसियत ऐसी नही थी कि वह मंदिर निर्माण का खर्च स्वयं वहन कर सकें। क्योंकि वह साधारण किसान हंै। फिर भी जरूरी खर्च में कटौती कर उदय मंदिर का निचला ढांचा का निर्माण करा सके। लंबे इंतजार के बाद उदय को जब महसूस हो गया कि मंदिर निर्माण कराना अब उनके बस की बात नही।
तब डेढ़ माह पहले उदय ने देश के बारह ज्योर्तिलिंग का दर्शन करने का निर्णय लिया। विगत साल 25 नवंबर को साइकिल से ज्योतिर्लिंग दर्शन के लिए रवाना हुआ। शुरूआत झारखंड के बैजनाथधाम से किया। फिर आंध्रप्रदेश के श्रीशैल पर्वत पर स्थित मलिकार्जुन, तमिलनाडु के रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग का दर्शन किया। 17 जनवरी को उदय महाराष्ट्र के भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग का दर्शन किया है।


कौन है उदय प्रसाद
      45 वर्षीय उदय प्रसाद नवादा जिले के सिरदला प्रखंड के रवियो गांव निवासी राजेन्द्र यादव के पुत्र हैं। वह चार भाई है। उनके संयुक्त परिवार में छह विगहा जमीन है। उनके परिवार में कुल 25 सदस्य हैं। उदय के दो पुत्र और एक पुत्री है। सबसे बड़ी बेटी है जिसका उम्र 13 साल है।

कैसे संभव हो रहा ज्योतिर्लिंग दर्शन-
      उदय प्रसाद के मात्र 8500 रूपए है। उदय का सफर में कोई खर्च नही है। वह साइकिल से सफर कर रहे हैं। उदय का खर्च सिर्फ खाने में है। ज्यादातर मठ मंदिर में ठहर जाते हैं। हालांकि बीच बीच में गांववाले भी उदय को ठहरने और खाने का बंदोवस्त कर दिया करते हैं।

बारह ज्योतिर्लिंग कौन है-
             हिन्दू धर्म पुराणों के अनुसार शिवजी जहाँ-जहाँ स्वयं प्रगट हुए उन बारह स्थानों पर स्थित शिवलिंगों को ज्योतिर्लिंगों के रूप में पूजा जाता है। सौराष्ट्र प्रदेश (काठियावाड़) में श्रीसोमनाथ, श्रीशैल पर श्रीमल्लिकार्जुन, उज्जयिनी (उज्जैन) में श्रीमहाकाल, ओंकारेश्वर अथवा अमलेश्वर, वैद्यनाथ, डाकिनी नामक स्थान में श्रीभीमशङ्कर, सेतुबंध पर श्रीरामेश्वरम, दारुकावन में श्रीनागेश्वर, वाराणसी में श्रीविश्वनाथ, गौतमी (गोदावरी) के तट पर श्री त्र्यम्बकेश्वर, केदारखंड में श्रीकेदारनाथ और शिवालय में श्रीघुश्मेश्वर। धार्मिक मान्यता है कि जो मनुष्य प्रतिदिन इन बारह ज्योतिर्लिंगों का नाम लेता है उनके सातों जन्म का पाप मिट जाता है।

कहा कहते हैं 
  उदय कहते हैं कि द्वाद्वश ज्योतिर्लिंग के दर्शन के बाद वह गांव लौटेंगे। मंदिर नही बना पाने का पश्चाताप ज्योतिर्लिंग के दर्शन से पूरा करना चाहते हैं।

Saturday 16 January 2016

हर 32 घंटे में मनहूस खबर लेकर आ रही खूनी सड़क

 

अशोक प्रियदर्शी
         विगत 11 जनवरी को बिहार के नवादा जिले के रजौली थाना के सिमरकोल मोड़ के समीप बस से मोटरसाइकिल की टक्कर हो गई। इस घटना में काजीचक निवासी मुन्द्रिका यादव के पुत्र नीतीश कुमार की मौत हो गई। जबकि लक्ष्मी विगहा निवासी रामस्वरूप यादव घायल हो गया। वहीं सिमरकोल निवासी साइकिल सवार हैदर मियां भी दुर्घटनाग्रस्त हो गया। 
         बिहार के नवादा जिले में सड़क दुर्घटना की यह पहली घटना नही है। इसे आखिरी घटना भी नही कहा जा सकता है। जिले में मौत का यह सिलसिला सालों से जारी है। इसकी तादाद दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। अकेले 2015 में करीब 280 लोगों की मौत सड़क दुर्घटनाओं के कारण हुई है। देखें तो, हर चार दिन में तीन लोगों की मौत सड़क दुर्घटनाओं के चलते हो रही है। यानि हर 32 घंटे में एक व्यक्ति की जान जा रही है। 
         2014 के आकड़े को भी 2015 पार कर गया है। 2014 में करीब 260 लोगों की मौत सड़क दुर्घटनाओं के कारण हुई थी। उससे पहले यह आकड़ा 200 के आसपास रहा है। लेकिन दिनोंदिन सड़क दुर्घटनाओं की तादाद बढ़ती ही जा रही है। हर रोज किसी न किसी परिवार के लिए सड़क दुर्घटना मनहूस खबर लेकर आ रही है। घायलों को जोड़ दें तो स्थिति और भी भयावह है।
          ताज्जुब कि इन घटनाओं से भी लोेग सबक नही ले रहे हैं। हर तरफ लापरवाही देखी जा रही है। आमतौर पर इसे प्रकृति की नियति मानकर लोग भुगतने को विवश हैं। वाहन चालकों की लापरवाही भी कम नही हो रही है। बाइक चालक भी ऐसी घटनाओं से सबक नही ले रहे हैं। सड़क सुरक्षा सप्ताह 10 जनवरी-16 जनवरी के दौरान लोगों को जागरूक किया जाना है। लेकिन यह रैली, सेमिनार और बैठकों तक सिमट कर रह गई है। यही वजह है कि घटनाओं की फेहरिस्त कम नही हो रही है। सरकार, प्रशासन और विभाग औपचारिकताएं निभा रही है।

2015 की प्रमुख घटनाएं
      2015 में एनएच- 31 पर नवादा जिले के मुफसिल थाना के केंदुआ गांव के समीप स्कार्पियों गाड़ी के पलट जाने से एक ही परिवार के आठ बारातियों की मौत हो गई। जबकि तीन अन्य बाराती घायल हो गए। इसी तरह, एनएच-82 पर नारदीगंज थाना के महादेवविगहा गांव के समीप सवारी गाड़ी और ट्रक के बीच टक्कर में चार बारातियों की मौत हो गई, जबकि 11 गंभीर रूप से घायल हो गए। काशीचक के खखरी गांव निवासी किसान संजीत कुमार और कृष्णमोहन सिंह की ट्रेक्टर पलट जाने से मौत हो गई। सिरदला में बाराती बस के पलट जाने से चार की मौत हो गई। यही नहीं, बिहार- झारखंड की सीमा पर नौवामाइल के समीप हुए एक सड़क दुर्घटना में पांच कांवरिये की मौत हो गई , जबकि 15 कांवरिये घायल हो गए। 

बिहार में कुख्यात नवादा
नवादा जिले का अधिकांश पथ दुर्घटनाओं के कारण खूनी हो गया है। खासकर एनएच-31 पटना-रांची , एनएच-82 बोधगया-राजगीर और नवादा-देवघर पथ काफी कुख्यात है। सड़क दुर्घटनाओें के कारण नवादा का इलाका बिहार में कुख्यात हो गया है।

ट्रामा सेंटर नही
सड़क दुर्घटनाओं के लिए कुख्यात नवादा में पीड़ितों के इलाज के लिए एक भी ट्रामा सेंटर नही है। रजौली और हिसुआ में ट्रामा सेंटर बनाए जाने की मांग काफी समय से की जाती रही है। लेकिन इस दिशा में कोई पहल नही किया जा सका है।

कोट-
समाजसेवी डाॅ बुद्धसेन कहते हैं कि विभाग बगैर कोई जांच पड़ताल के लोगों को घड़ल्ले से लाइसेंस जारी करती रही है। यह एक बड़ा कारण है। यही नहीं, लोग यातायात नियमों का भी पालन नही करते। लोगों को जागरूक करने के लिए सरकार भी प्रयत्यनशील नही दिखती। सरकार के लिए ऐसी घटनाएं महज हादसा भर है।

      जिलाधिकारी मनोज कुमार कहते हैं कि चालकों को यातायात नियमों का अनुपालन कराने के लिए अभियान चलाया जाएगा। इसके लिए अधिकारियों को निर्देश दिए गए हैं। यातायात नियमों के पालन से यात्रा सुखद और सुरक्षित होगी। आमलोगों को भी पूरी तरह जागरूक रहने की जरूरत है। 

Tuesday 12 January 2016

लाचार हुई आनंदी तो परिवार ने छोड़ा, योगा बना सहारा, अब औरों की बनी मददगार

अशोक प्रियदर्शी
         
 आठ साल पहले की बात है। नवादा नगर के गोला रोड की 65 वर्षीया आनंदी देवी शरीर से लाचार हो गई थी। वह गठिया-वाता, कमर दर्द, टयूमर, कब्जियत और पेट फेंकने जैसी कई गंभीर शारीरिक व्याधियों से घिर गई थी। चिकित्सक का नुस्खा भी काम नही आ रहा था। 85 किलोग्राम वजन था। चलना फिरना दुश्वार था। परिवार ने भी लाचार आनंदी से मुंह मोड़ लिया था। तिरस्कृत आनंदी परेशानियों से उबरने के लिए समीप के आर्य समाज मंदिर में जाने लगी थी। 
         तभी उन्हें पटना में आयोजित योग शिविर की जानकारी मिली। पति दीपनारायण प्रसाद के सहयोग से पटना में हफ्ते भर प्राणायाम और योगासन सीखी। उसे वह घर आकर भी बरकरार रखी। 27 मई 2010 में मुहल्ले में निःशुल्क योग शिविर शुरू हुआ। यह शिविर आनंदी के लिए काफी उपयोगी साबित हुआ। वह उस शिविर में 2 अक्तूबर से जाने लगी। आनंदी कहती हैं कि योगाभ्यास के कारण उनके जीवन की दशा और दिशा बदल दी। योगासन और प्राणायाम से 33 किलोग्राम वजन घट गया। बीमारियों से राहत मिली। चलने फिरने लगी। सबसे महत्वपूर्ण कि परिवार ने भी उन्हें अपना लिया।
         बहरहाल, आनंदी अब दूसरों की प्रेरणास्त्रोत बनी है। जो लोग आनंदी को मरनासन्न हाल में देखे थे, उनसबांे के सामने उनका स्वस्थ्य होना लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया। मुहल्ले की मंजू देवी कहती हैं कि आनंदी देवी की हालत देखकर वह सिहर उठती थी। लेकिन अब वह उनकी योग गुरू हैं। उन्हें भी योगासन से काफी लाभ हुआ है। मंजू अकेली महिला नही हैं, जिन्हें योगासन लाभ हुआ है। उर्मिला देवी कहती हैं कि वह योग और प्राणायाम को बेकार की चीजें मानती थी लेकिन आनंदी की प्रेरणा से जब वह योगा से जुड़ी तो पुराना एलर्जी दूर हो गई है।

        मुहल्ले की वीणा देवी, सरिता आर्या, मणिमाला देवी, चंपा देवी, पुष्पा देवी, सविता आर्या, ज्योति देवी, स्टेशन रोड की द्रोपदी देवी, विधा देवी, सकुन्तला देवी जैसी कई महिलाएं हैं, जो आनंदी की प्रेरणा से योगाभ्यास से जुड़ीं। अब उन महिलाओं के लिए आनंदी मददगार बनी है। स्टेशन रोड निवासी गोपालजी कहते हैं कि आनंदी देवी उनके लिए भी प्रेरणास्त्रोत रही हैं। शिविर के संचालक कन्हैया सिंह कहते हैं कि आनंदी जब आयी थी तब वह लाचार थी। लेकिन अब वह लाचार लोगों की मददगार बनी हुई है। वह कहती हैं कि जिन परिस्थितियों से वह गुजरी उन परिस्थितियों से औरों को नही गुजरना पड़े इसलिए दूसरों को योगाभ्यास के लिए प्रेरित करती रहती हूं।

अपनों के विरोध के बावजूद मोइन कराया था बीमा, दस दिन बाद मौत हो गई, अब वही बीमा बना परिवार का सहारा

अशोक प्रियदर्शी
   

एक पखवारा पहले की बात है। प्रधानमंत्री बीमा सुरक्षा योजना से ग्रामीणों को जोड़ने के लिए नवादा जिले के केनासराय के अल्पसंख्यक टोला में शिविर आयोजित किया था। तब मुहल्लावासियों ने यह कहते हुए शिविर में हिस्सा नही लिया कि वेलोग लाश के पैसे नही खाते। फिर भी 53 वर्षीय मोइन उददीन खान ने मुहल्लेवासियों के निर्णय का साथ नही दिया। ब्रांच मैनेजर प्रशांत सिन्हा ने बताया कि अगले ही दिन 27 मई को मोइन बैंक पहुंचे और उनसे फाॅर्म लेकर 12 रूपए वार्षिक किस्त का बीमा कराया।
      दुःखद कि 7 जून को नवादा प्रखंड के केनासराय से गया जिले के वजीरगंज के डुमरावां बारात गई थी। लेकिन अगले दिन वापसी के समय बारात से भरी स्कार्पियों ने केंदुआ गांव के समीप खड़े ट्रक में टक्कर मार दिया। इस घटना में आठ बाराती की मौत हो गई। दो घायल हो गए, जो पीएमसीएच में इलाजरत है। कई परिवारों की आखिरी उम्मीदें भी खत्म हो गई। लेकिन मोइन के बीमा कराने के फैसले ने उनके आश्रितों को थोड़ी राहत दे गई।

         ब्रांच मैनेजर ने बताया कि मोइन के आश्रितों को भी बीमा की जानकारी नही थी। मुखिया के जरिए बीमा की जानकारी दी गई। औपचारिकताएं पूरे किए जा रहे हैं। जल्द ही नइम के आश्रितों को दो लाख रूपए बीमा की राशि प्रदान किए जाएंगे। मुखिया बिदेंश्वर प्रसाद बताते हैं कि सड़क दुर्घटना में शिकार मोइन अकेला शख्स थे, जिन्होंने प्रधानमंत्री बीमा सुरक्षा योजना कराया था। सरकारी स्तर सिर्फ 20 हजार रूपए सामाजिक सुरक्षा और 1500 रूपए कबीर अंत्येष्टि योजना का लाभ दिया जा सका है। 
नवादा अग्रणी बैंक के प्रबंधक जी प्रधान ने कहा कि मोइन पहला ऐसे शख्स हैं जिनके परिवार को प्रधानमंत्री बीमा योजना का लाभ मिल सकेगा। यह बीमा ऐसे दुखद समय के लिए उपयोगी है। जिले में करीब 3 लाख 26 हजार लोगों का जनधन योजना के तहत खाता खोला गया है। इनमें एक लाख 12 हजार लोगों का बीमा किया गया है। ऐसा माना जा रहा है कि बिहार में संभवतः मोइन अकेला शख्स हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री बीमा योजना का यह लाभ मिल सकेगा।
गौरतलब हो कि मोइन की मौत के बाद उनके परिवार में पत्नी शहजादी खातून, दो बेटे और पांच बेटियां हैं। एक पुत्र बाहर में काम करते हैं। जबकि मोइन फोटो फ्रेम और बाइंडिंग का काम करते थे। लेकिन उनकी मौत के बाद पूरा परिवार अकेला महसूस कर रहा है।

गया सेंट्रल यूनिवर्सिटी के अबोध को राष्ट्रपति ने किया सम्मानित, अबोध ने कहा यह उनके जीवन का सबसे अहम पल

अशोक प्रियदर्शी
नवादा जिले के सदर प्रखंड के न्यू एरिया निवासी गौरीशंकर सिंह के पुत्र डाॅ. अबोध कुमार प्रेरक टीचर के रूप में सम्मानित हुए हैं। डाॅ. अबोध को राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा सम्मानित किया गया है। वह दक्षिण बिहार के गया सेंट्रल यूनिवर्सिटी में इकोनोमिक्स के टीचर हैं। डाॅ अबोध कहते हैं कि यह उनके जीवन के लिए सबसे अहम पल है। इस तरह के सम्मान की उम्मीद सपने में भी नही थी।
         विगत 6 जून से 12 जून तक राष्ट्रपति भवन में आयोजित सात दिवसीय आवासी कार्यक्रम में देश भर के 31 सेंट्रल यूनिवर्सिटी से एक एक टीचर को शामिल होने का अवसर मिला था। इनमें अबोध बिहार से अकेला टीचर थे, जिन्हें सम्मानित किया गया। मौके पर राष्ट्रपति ने टीचर को सम्मानित करते हुए कहा कि उन्हें गर्व महसूस हो रहा है।
       दरअसल, साइंस, आटर्स आदि क्षेत्र में राष्ट्रपति भवन में आवासीय कार्यक्रम पहले से होते रहे हैं। लेकिन टीचर के इतिहास में यह पहला अवसर था, जब राष्ट्रपति भवन में सात दिवसीय कार्यक्रम आयोजित हुआ। इस दौरान टीचर को  देश के ख्याति प्राप्त दिग्गजों से रूबरू होने का अवसर मिला। इसका मकसद लोगों की मनःस्थिति को मजबूत करना है। 
       इस दौरान टीचर को राष्ट्रपति के अलावा, लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन, मुख्य सतर्कता आयोग, वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी, वित मंत्री अरूण जेटली, एचआरडी मिनिस्टर स्मृति इरानी, रेलमंत्री सुरेश प्रभु रिजर्व बैंक के गवर्नर से रूबरू होने के अलावा सुपरस्टार अमिताभ बच्चन और अभिषेक बच्चन के साथ पीकू फिल्म की खास प्रदर्शन में शामिल हुए। 
   


बता दें कि 5 फरवरी को राष्ट्रपति ने सेंट्रल यूनिवर्सिटी के कुलपतियों की बैठक में छात्रों द्वारा चुने गए प्रेरक टीचर के लिए राष्ट्रपति भवन में एक सप्ताह के आवासी कार्यक्रम तय किया गया था। गौरतलब हो कि अबोध की बुनियादी शिक्षा न्यू एरिया में हुुई है। उसके बाद उन्होेंने मुबंई और दिल्ली में पढ़ाई की। नेट क्वालिफाई करने के बाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में टीचर बनने का अवसर मिला।

परिवार मान लिया था कि अयूब जिंदा नही, 32 साल बाद अयूब की वापसी से ईद की खुशी हुई दोहरी, अयूब ने कहा कि मुकाम पाने में बीत गए 32 साल

अशोक प्रियदर्शी
 बात 32 साल पहले की है। रमजान का महीना था। नवादा के अकबरपुर प्रखंड के बरेव निवासी अयूब अंसारी अचानक गायब हो गए थे। तब अयूब की उम्र 28 साल थी। उनके तीन भाई और तीन बहन अयूब को ढूढ़ने में विफल रहे थे। अयूब के चेहरे से मेल खानेवाले हर शख्स को उनके माता पिता अपना पुत्र समझ लेते थे। इसके चलते कई दफा फटकार भी सुननी पड़ी थी। लिहाजा, लंबे समय से ईद आकर भी परिवार को खुशियां नही दे पाती थी।
       विगत 28 जून को अयूब की घर वापसी ने 32 सालों बाद ईद की खुशी लेकर आयी है। मो युसुफ कहते हैं कि अयूब के जिंदा रहने की उम्मीद खत्म हो चुकी थी। लेकिन उसके दीदार ने सालों के गम को दूर कर दिया। वह बताते हैं कि अयूब दुबला पतला था। लेकिन हेल्दी हो जाने के बाद भी पहचानने में मुश्किल नही हुई। छोटे भाई खुर्शीद कहते हैं कि भाई के चेहरे की भी याद नही थी, लेकिन दिल की आवाज और बचपन की दास्तां के कारण पहचानने में देर नही हुई। शुभचिंतक एजाज कैसर ने बताया कि भाइयों की आंसू बिछूड़े दिनों की परेशानियां बयां कर रही थी।

क्या है गायब की कहानी
मो अयूब की आर्थिक स्थिति दयनीय थी। वह प्रसाद विगहा में मौलवी चाचा की दुकान में गाड़ियों के सीट बनाने का काम करता था। मजदूरी कम थी। अयूब को मजनू और फैजान दो बच्चे थे। एक अपने ने आर्थिक तंगी पर टिप्पणी कर दिया था। प्रतिक्रिया मंे घर छोड़ दिया। कई शहरों में खाक छानी। तभी यूपी के रायबरेली में एक ठौर मिला। मजदूरी की राशि बचाकर अयूब सीट बनाने का कारोबार खड़ा किया। यह अब बड़ा आकार ले लिया। 

कैसे हुई घर वापसी
दरअसल, ईद के बाद अयूब हज के लिए जानेवाले थे। वह मां कदिरन बानो और पिता अशरफ अंसारी से इजाजत लेने आए थे। लेकिन 27 जून को अयूब जब बरेव गांव पहुुंचे तो उन्हें पता चला कि पांच साल पहले मौत हो चुकी है। लिहाजा, वह कब्रिस्तान और मस्जिद में दर्शन के बाद वापस नवादा लौट आए। अगले दिन रायबरेली वापस जानेवाले थे। इसके पहले वह मौलवी चाचा की दुकान पर गए थे। लेकिन उनकी दुकान खत्म हो चुकी थी। तभी पड़ोसी छोटन से मुलाकात हुई। छोटन ने अयूब के परिजनों को बताया। तब भाइयों ने अयूब को गांव ले गया। अयूब की पत्नी अपने भाइयों के साथ कोलकाता में हैं। बेटे सउदी अरब में है।

क्या कहते हैं अयूब
-परिवार की खूब याद आती थी। लेकिन आर्थिक तंगहाली रोकती थी। मैंने तय किया था कि मुकाम तय किए बिना वापस नही जाउंगा। लेकिन मंजिल तय करने में 32 साल बीत गए। आया था कि मां और पिता को खुशियां दूंगा, लेकिन उन्हें खो दिया।

सहयोगी दलों की कुर्बानी से बनेगी बात

अशोक प्रियदर्शी
 बात पांच साल पहले की है। नवादा विधानसभा के चुनाव में राजद और लोजपा गठबंधन से पूर्व श्रममंत्री राजबल्लभ प्रसाद तथा कांग्रेस से निवेदिता सिंह चुनाव मैदान में थीं। दूसरी तरफ भाजपा-जदयू गठबंधन से पूर्णिमा यादव मैदान में थी। पूर्णिमा यादव निर्वाचित हुई थी। मौजूदा चुनाव में समीकरण बदल गए हैं। राजद, जदयू और कांग्रेस महागठबंधन का हिस्सा बन गए हैं। एनडीए में भाजपा, लोजपा और रालोसपा शामिल है।
       देखें तो, पिछले तीन चुनावों से राजबल्लभ प्रसाद और पूर्णिमा यादव आमने सामने रहे हैं। मौजूदा परिस्थिति में राजद, जदयू और कांग्रेस से किसी एक दल से अधिकृत प्रत्याशी होंगे। ऐसे में बाकी के दो सहयोगी दलों के नेताओं को चुनाव से हटना होगा। फिलहाल तीन दलों के नेता टिकट पाने की कोशिश में हैं। सबके अपने अपने दावे और तर्क है। दूसरी तरफ, यह सीट भाजपा का बताया जा रहा है। लेकिन भाजपा से भी दर्जनभर उम्मीदवार हैं।
       महागठबंधन की यह समस्या नवादा तक सीमित नही है। रजौली सुरक्षित विधानसभा की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही हैं। फिलहाल इस सीट पर भाजपा के कन्हैया कुमार निर्वाचित हैं। दूसरी तरफ, महागठबंधन के उम्मीदवार का नाम स्पष्ट नही है। लिहाजा, राजद, जदयू और कांग्रेस उम्मीदवारों की फेहरिस्त लंबी है। पिछली दफा कांग्रेस से बसंती देवी चुनाव लड़ी थी। राजद-लोजपा गठबंधन से प्रकाशवीर थे। फिलहाल, तीनों दल के प्रत्याशी उम्मीदवारी पेश कर रहे हैं। 
       देखें तो, पिछले चुनावों में खड़े प्रत्याशियों के अलावा पिंकी भारती, प्रेमा चैधरी, राकेश कुमार, वनवारी राम, राजाराम पासवान जैसे कई लीडर हैं जो महागठबंधन के उम्मीदवार गिनाए जा रहे हैं। इधर, हिसुआ में बीजेपी से अनिल सिंह निर्वाचित हैं। जबकि महागठबंधन में उम्मीदवारों को लेकर कई नाम गिनाए जा रहे हैं। पिछले चुनाव में लोजपा से अनिल मेहता, जबकि कांग्रेस से नीतु कुमारी चुनाव मैदान में थी। इस बार महागठबंधन से नरेंद्र कुमार, आभा सिन्हा, मसीह उदद्ीन, चिकित्सक डाॅ शत्रुधन प्रसाद सिंह के नाम भी गिनाए जा रहे हैं।
       वारिसलीगंज का मामला दिलचस्प है। वारिसलीगंज में प्रदीप कुमार जदयू से निर्वाचित हैं। राजद और कांग्रेस की दावेदारी नही दिख रही। दूसरी तरफ, एनडीए की ओर से अरूणा देवी का नाम गिनाया जा रहा है। कहा जा रहा है कि दल चाहे कोई भी हो लेकिन उम्मीदवार अरूणा देवी होगी। देखें तो, अरूणा का दल बदलने का रिकाॅर्ड भी रहा है। वह निर्दलीय, कांग्रेस और लोजपा का सफर तय कर चुकी है। हालांकि पिछले चुनाव में अंजनी कुमार लोजपा के उम्मीदवार थे। उनकी दावेदारी भी माना जा रहा है।
        गोविंदपुर से कौशल यादव जदयू से निर्वाचित होते रहे हैं। यहां एनडीए में टिकट को लेकर होड़ मची है। लोजपा, रालोसपा और भाजपा दावे कर रही है। इंद्रदेव कुशवाहा, कामरान, अजीत यादव, रंजीत यादव, केबी यादव, संजय प्रभात जैसे कई उम्मीदवारों के नाम गिनाए जा रहे हैं। देखें तो, पिछले चुनाव में लोजपा से केवी यादव और कांग्रेस से असदुल्ला खान चुनाव मैदान में थे।

तीसरे विकल्प की कवायद

अशोक प्रियदर्शी
     बात 48 साल पहले की है. 1967 में भाकपा 24 सीटें जीती थी. कांग्रेस से अलग हुए लोकतांत्रिक कांग्रेस को बिहार में सरकार बनाने के लिए संख्या कम थी. तब भाकपा के सहयोग से महामाया प्रसाद सिन्हा की अगुआई में संविद सरकार बनी थी. चंद्रशेखर सिंह, इंद्रदीप समेत चार भाकपा विधायक कैबिनेट का हिस्सा थे. नौ माह बाद यह सरकार गिर गयी. 
      1969 के मध्यावधि चुनाव में किसी दल को बहुमत नही मिला. भाकपा 25 और भारतीय जनसंघ 34 सीटें जीती थी. इनमें किसी एक दल के बिना कांग्रेस की सरकार बनना संभव नही था. तब भाकपा ने कांग्रेस का समर्थन किया. दारोगा प्रसाद राय के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार गठित हुयी. तब से भाकपा कांग्रेस का सहयोगी बन गयी. 
      1975 में आपातकाल के समय भी भाकपा कांग्रेस का साथ नही छोड़ी. 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी की लहर में भाकपा का सुपड़ा साफ हो गया.हालांकि विधानसभा चुनाव में भाकपा 21 सीटें जीती. 1980 के चुनाव में भाकपा की स्थिति सुधरी. भाकपा 31 सीटें जीती. परंतु 1985 में 12 सीटें पर आ गयी.
      1990 में भाकपा जनता दल का समर्थन दिया। तब 23 सीटें जीती. 1995 में 26 सीटें जीती. भाकपा की यह आखिरी उभार था. उसके बाद भाकपा तीन से अधिक नही गयी. 2010 के चुनाव में एक सीटें मिली. फिलहाल जदयू सरकार का समर्थन कर रही है. यह उस भाकपा की स्थिति है जिसकी जड़े बिहार में गहरी रही है. 1972 में भाकपा विपक्षी पार्टी के रूप में थी.
      लेकिन अदूरदर्शी नीति, पिछल्लगू राजनीति, जातीय आधार पर उभरे क्षेत्रीय दलों का साथ और वामदल की जमीन पर ही गैर संसदीय संघर्ष पर यकीन रखनेवालों के विस्तार से भाकपा की स्थिति कमजोर हुयी. भाकपा के वरिष्ठ नेता यूएन मिश्रा मानते हैं कि यह पार्टी की बड़ी भूल थी. हम जिन मुददों का चैम्पियन हुआ करते थे, उन मुददों को सहयोगी दलों ने उड़ा लिया. 
      यूएन मिश्रा कहते हैं कि जातीय आधार पर क्षेत्रीय दलों के उदय से जातीय राजनीति हाॅवी हो गयी. जनता के सवाल गौण होते गये. जातीय राजनीति का ही परिणाम है कि जिन्हें मुश्किल परिस्थिति में पार्टी संबल प्रदान करती है, वह भी मतदान के समय जातीय दलों के हिमायती बन जाते हैं.
       ऐसी स्थिति भाकपा तक सीमित नही है. माकपा की स्थिति भी कुछ ऐसी ही रही है. हालांकि माकपा कभी कांग्रेस के साथ गठबंधन नही किया. लेकिन 1990 में जनता दल के साथ सीटों के तालमेल कर माकपा चुनाव लड़ी. 1990 और 1995 में छह-छह सीटें जीती. लेकिन इसके बार माकपा का भी क्षरण होने लगी. 2000 में दो जबकि फरवरी 05 और अक्तूबर 05 में एक-एक सीट जीती. 2010 में माकपा का सुपड़ा साफ हो गया.
      दूसरी तरफ, भाकपा माले ने संघर्ष का रास्ता अख्तियार किया. इसका परिणाम रहा कि भाकपा माले की स्थिति सुदृढ़ हुयी. 1990 में सात, 1995 में 6, 2000 में 5, फरवरी 05 में सात, अक्तूबर 2005 में 5 सीटें जीती. जबकि 2000 से भाकपा और माकपा की सीटें घटती गयी. 
आश्चर्य कि भाकपा और माकपा सता का साथ देकर कमजोर हुयी जबकि भाकपा माले संघर्ष के रास्ते पर चलने के बावजूद हाशिये पर पहंुच गयी।
      2010 में माले का सुपड़ा भी साफ हो गया. भाकपा माले के राज्य सचिव कुणाल कहते हैं कि जातिवाद और मंडलवाद की राजनीति का असर से माले भी अछूता नही रहा. इससे गरीबों में फूट हुयी. इसका लाभ सताधारी लाभ उठाते रहे. इस राजनीति को सरकार का संरक्षण मिलता रहा. लेकिन यह गरीबों के साथ धोखा हुआ.
       देखें तो, भूमिगत तरीके से काम करनेवाली भाकपा माले (लिबरेशन) ने एक नया मोर्चा इंडियन पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ) बनाया. 1985 में 85 सीटों पर चुनाव लड़ी. हालांकि कोई सीट नही जीती. 1989 के लोकसभा चुनाव में आइपीएफ आरा संसदीय सीट पर रामेश्वर प्रसाद निर्वाचित हुये.
      1990 में आइपीएफ सात सीटें जीती थी. तब भाकपा, माकपा के अलावा आइपीएफ ने तब राजद प्रमुख लालू प्रसाद को बाहर से समर्थन दिया था.बाद में लालू प्रसाद ने आइपीएफ के चार विधायकों को तोड़ लिया था. फिर आइपीएफ ने दूरी बना लिया। उसके बाद आइपीएफ (अब भाकपा माले) संघर्ष का रास्ता अपनाया. 1995 में समता पार्टी और माले साथ चुनाव लड़ी. माले छह सीटें जीती. लेकिन विचारधारा में फर्क के कारण माले अलग रास्ता अपना लिया.
       देखें तों, बिहार में हाशिये पर हैं. लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव में वामदलों ने एनडीए और महागठबंधन से अलग तीसरे विकल्प की रणनीति बना रही है। ‘न मोदी न नीतीश कुमार, वामपंथ की है दरकार.’ के नारे के साथ वामदल तीसरा कोना बनाने की रणनीति बना रही है. इसके लिए नयी दिल्ली में छह वाम दलों-माकपा, भाकपा, माले, आरएसपी, फाॅरवर्ड ब्लाॅक और एसयूसीआई एक मंच पर आने का फैसला लिया है. सात सितंबर को वामदलों के राष्ट्रीय महासचिव बिहार में साझा चुनाव अभियान की शुरूआत करेेंगे.

        माकपा के राज्य सचिव अवधेश कुमार कहते हैं कि वामदलों ने अपनी गलतियों को पहचान लिया है. पिछली गलतियों से सबक लिया है. वामदल अपनी उपलब्धि संसदीय प्रतिनिधि से नही आंकती. वामदल संघर्ष का रास्ता अख्तियार करेगी। जनता के बीच वैकल्पिक नीति लेकर जाएंगे. भूमि सुधार, खाद्य सुरक्षा, राशन, समान काम का समान वेतन, शिक्षा, रोजगार के अलावा केन्द्र और राज्य की नीतियों जैसे अहम सवाल हैं. नव उदारवादी नीतियों को रोकना है.
       हालांकि यह पहला अवसर नही है जब वामदल एक मंच पर आने की बाते कर रही है. 2014 और 2009 लोकसभा चुनाव में भी वामदल एक मंच पर आये थे। 2014 में माले अलग थी. अच्छा परिणाम नही रहा। 2010 के विधानसभा चुनाव में 173 सीटों पर माकपा, भाकपा और माले सीटों का तालमेल कर चुनाव लड़ी थी. इसमें भाकपा एक सीट जीती. मौजूदा समय में एक मंच पर आए छह दलों में आरएसपी के सिवा बाकी सभी दल 2010 के विधानसभा चुनाव में शामिल थे.
अवधेश कुमार कहते हैं कि वामदलों की अपनी अपनी नीतियां और विचारधारायें हैं. एकता की कमी, दृष्टिकोण का अभाव के कारण वामदल बेहतर प्रदर्शन नही कर सकी. वामदल इन अनुभवों से सबक ली है. दूसरी तरफ, यूएन मिश्रा कहते हैं कि पहले झोपड़ी में रहनेवाले लोग भी निर्वाचित हो जाते थे. लेकिन अब चुनाव में बाहुबल और धनबल का प्रभाव बढ़ा है. इसके चलते वामदल बेहतर प्रदर्शन नही कर पाती. 
       इनसबों से अलग वामदलों के खराब प्रदर्शन की एक बड़ी वजह नयी पीढ़ियांे का अभाव है. वामदलों में नेताओं की नयी पीढ़ी नही जुड़ पा रहे हैं. देखें तो, वामदलों खासकर भाकपा और माकपा के राज्य कमेटी में ज्यादातर पचास उम्र पार लोग हैं. नयी पीढ़ियों के अभाव में पार्टी की विचारधारा व्यापक आकार नही ले पा रहा. बाकी दल नयी पीढ़ियों को जोड़ने के लिए हर कदम उठा रही है. वामदलों के नेता भी नयी पीढ़ियों की कमी को स्वीकारते हैं. हालांकि नेता दावा करते हैं कि नयी पीढ़ियों के जोड़ने के प्रयास तेज किये गये हैं.
      अवधेश कुमार कहते हैं कि नवउदारवादी नीतियों का असर है कि युवा वामदलों से दूर हैं. महंगाई और भ्रष्ट्राचार के कारण नयी पीढ़ी संघर्ष के रास्ते से अलग हैं. लेकिन उन युवाओं की आखिरी मदद वामदलों के जरिये ही संभव है. देखें तो, बिहार में वामदल की स्थिति संघर्षपूर्ण रही है. वामदल के कमजोर होने की शुरूआत पांच दशक पहले से हो गयी.
       20 अक्तूबर 1939 को मुंगेर में भाकपा की स्थापना हुयी थी. सुनील मुखर्जी इसके पहले राज्य सचिव थे. 1964 में भाकपा से अलग माकपा का गठन हुआ. 1967 में सीपीएम से एक गुट अलग होकर भाकपा माले बना. बाद में माले भी कई टुकड़े में बंट गये.
       मौजूदा विधानसभा चुनाव में वामदल अपनी गलतियों से सबक लेकर एक मंच पर आने की बात कर रही है. माले के राष्ट्रीय महासचिव दीपंकर भटट्ाचार्य ने कहा कि राज्य के सभी 243 सीटों पर सभी सीटों पर तालमेल कर चुनाव में जायेंगे. वामदलों में आपस में कहीं भी फ्रेंडली फाइट नही होगी. बहरहाल, वामदल की ताजा एकता क्या रंग लायेगी देखनेवाली बात होगी.


वामदलों का प्रदर्शन
साल     भाकपा        माकपा        भाकपा माले
1951 0      ........            ....
1957 7       .........           .......
1962 12       .........           .......
1967 24        4            .......
1969 25        3            ........
1972 35        0            ........
1977 21        4            ........
1980 31        6            .......
1985 12        1             0
1990 23        6           7 (आइपीएफ)
1995 26        6           6
2000 2        2            5
फरवरी 2005- 3 1            7
अक्तूबर 2005- 3 1            5
2010       - 1 0            0

जवाहिर और एतवा को दिए गए अंग्रेजों के दाग नही धुल पाए, जिन्होंने अंग्रेजों को पिलाया था पानी, उन्हें लोग याद भी नही करते

अशोक प्रियदर्शी
      भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन में नवादा जिलेे के पसई निवासी जवाहिर रजवार और कर्णपुर निवासी एतवा रजवार की उल्लेखनीय भूमिका रही है। नवादा और नालंदा के इलाका में होनेवाले विद्रोह की घटनाओं में जवाहिर और एतवा ने अंगे्रजों को पानी पिला दिया था। लेकिन इन दोनों नायकों को लोग स्मरण भी नही करते। दुर्भाग्य कि आजादी के छह दशक बाद भी अंग्रेजों के दिए नाम का दाग भी नही धुल पाया है।
      इतिहास गवाह है कि जवाहिर और एतवा ने अंग्रेजों और जमींदारों को विद्रोही आंदोलन से परेशान कर दिया था। जवाहिर और एतवा के पक्ष में लोग गोलबंद हो रहे थे। ब्रिटिश हुकुमत के लिए यह मुसीबत साबित होने लगा था। ऐसे में अंग्रेजों ने जवाहिर और एतवा के अभियान को लूट पाट का नाम दे दिया था। लिहाजा, गांव के लोग धीरे धीरे अलग होने लगे थे। ग्रामीणों के बीच में चोर के रूप में प्रचारित किया गया। दुर्भाग्य कि ग्रामीण अब भी इस नाम से जानते हैं। यह स्वतंत्रता आंदोलन के बाद गुलामी की याद कराता है।
       विद्रोह के दौरान जवाहिर और एतवा ने अंग्रेंजों को नाकोदम कर दिया था। सरकारी कचहरी, बंगले, जमींदार और उसके कारिंदे की सम्पति विद्रोहियों के निशाने पर था। विद्रोहियों को जब मौका मिलता घटना को अंजाम देने से नही चूकते थे। कई जमींदारों ने भी विद्रोहियों को समर्थन करना शुरू कर दिया था। तब अंग्रेज अधिकारियों ने विद्रोह पर काबू पाने के लिए विद्रोहियों को चोर और डकैत जैसा नाम देने लगे थे, ताकि विद्रोहियों से लगाव के बजाय लोगों में नफरत पैदा हो। अंग्रेज अपनी इस कुटनीति में काफी हद तक सफल भी रहे।

जवाहिर और एतवा का  अतीत 
       27 सितंबर 1857 को जवाहिर करीब 300 आदमियों के साथ विद्रोह की रणनीति बना रहे थे। तभी अंग्रेज सैनिकों ने घेर लिया और गोलियां बरसानी शुरू कर दी थी। इस घटना में जवाहिर के चाचा फागू रजवार की मौत हो गई थी। कई जख्मी हो गए थे। फिर जवाहिर की मौत हो गई थी। लेकिन 29 सितंबर को तत्कालीन डिप्टी मजिस्ट्रेट वर्सली ने लिखा कि जवाहिर डकैती में मारा गया।
       इसके पूर्व 12 सितंबर को एतवा की गिरफ्तारी के लिए अंग्रंेज और जमींदारों की सेना एतवा के गांव कर्णपूर जा रहे थे, तभी सकरी नदी के किनारे भिड़ंत हो गई। इस घटना में एतवा बच निकले, लेकिन 10-12 साथी शहीद हो गए। तब एतवा की गिरफ्तारी के लिए 200 रूपए का इनाम घोषित किया था। कई साल बाद 8 अप्रैल 1863 को करीब दस हजार पुलिस, मिलिट्ी और जमींदार की फौज का अभियान चला, लेकिन एतवा बच निकला था।

मौजूदा हालात
      दस्तावेज बताते हैं कि एतवा के नेतृत्व में 10 सालों तक छिटपुट विद्रोह चला था। बाद में विद्रोही नेताओं का क्या हुआ कुछ पता नही। लेकिन दुख कि ग्रामीणों के बीच जब एतवा और जवाहिर की चर्चा होती है तब उनकी जुबां से अंग्रेजों का दिया नाम निकलता है। उनकी अदद मूर्ति भी नही स्थापित किया जा सका है। इन दिनों कुछ लोग जातीय आधार पर उन्हें याद करते हैं। यह एतवा और जवाहिर के योगदान के लिए काफी नही है।  सरकार और प्रशासन को इस दिशा में पहल करनी चाहिए।

महिला राजनीति-साधारण परिवार की महिलाओं के लिए राजनीति की राह आसान नही


अशोक प्रियदर्शी
बात पिछले विधानसभा चुनाव की है। जिले के पांच विधानसभा क्षेत्रों से कुल 68 उम्मीदवार मैदान में थे। इनमें महिलाओं की तादाद दस थी। यह नवादा के राजनैतिक इतिहास में सर्वाधिक आकड़े हैं जब करीब 15 फीसदी महिलाओं को चुनाव लड़ने का अवसर दिया गया। खास बात कि जिले के पांच में से एक सीट नवादा से पूर्णिमा यादव निर्वाचित हुईं थी। पिछले चुनाव में सबसे ज्यादा कांग्रेस ने पांच में से चार महिलाओं को अवसर दिया था। 
         कांग्रेस ने नवादा में निवेदिता सिंह, हिसुआ में नीतु कुमारी, वारिसलीगंज में अरूणा देवी और रजौली में बसंती देवी को उम्मीदवार बनाया है। जबकि भाकपा माले ने रजौली में सुदामा देवी और नवादा में सावित्री देवी को अवसर दिया था। वहीं जदयू ने पूर्णिमा यादव को नवादा से और जेएमएम ने सुशीला देवी को गोविंदपुर से उम्मीदवार बनाया था। वारिसलीगंज में जनता दल सेक्यूलर ने जूली कुमारी और इंडिया जननायक कांची ने तनुजा कुमारी को मौका दिया था।
गौर करें तो कांग्रेस ने महिलाओं को सर्वाधिक अवसर दिया। चार महिलाओं को यह अवसर दिया। कांग्रेस का पिछला रिकॉर्ड ऐसा नही रहा है।
       सामाजिक कार्यकर्ता संगीता कुमारी कहती हैं कि कांग्रेस ने महिलाओं के प्रति यह दरियादिली तब दिखाई जब उनकी राजनीतिक हैसियत कमजोर पड़ गई। लेकिन उस परिस्थिति में भी साधारण परिवार की महिलाओं को अवसर नही दिया। अपवाद को छोड़ दें तो ज्यादातर धनबली, बाहुबली और प्रभावशाली नेताओं के परिजनों अवसर दिया गया।
        देंखें तो, नीतु कुमारी कांग्रेस के दिग्गज नेता और पूर्वमंत्री आदित्य सिंह की पुत्रवधू हैं। निवेदिता सिंह आयकर अधिकारी की पत्नी हैं। जबकि अरूणा देवी बाहुबली अखिलेश सिंह की पत्नी हैं। बसंती देवी को इसलिए उम्मीदवार बनाया गया कि रजौली सीट एससी के लिए सुरक्षित है। वहां से मजबूत दावेदार नही था। जदयू की पूर्णिमा देवी की राजनैतिक विरासत रही हैं। पति कौशल यादव, सास गायत्री देवी और ससुर युगलकिशोर का का राजनैतिक पृष्ठभूमि रही है।
        हालांकि भाकपा माले ने आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित तबके की महिलाओं को अवसर दिया। सुदामा देवी और सावित्री देवी साधारण परिवार से आती हैं। हालांकि कई और साधारण महिलाओं को मौका मिला। लेकिन उन्हें उन दलों ने अवसर दिया जिनके लिए उम्मीदवार जुटाना भी मुश्किल रहा है। अधिकांश राजनैतिक दल आबादी के हिसाब से महिलाओं को कभी अवसर नही दिया। पार्टी जब हाशिये पर रही है तब हाशिये पर रही महिलाओं को बतौर उम्मीदवार उतारा है। 

महिलाओं की स्थिति
नवादा जिले में आठ लाख 16 हजार 11 पुरूष मतदाता हैं। जबकि 7 लाख 30 हजार 617 महिला मतदाता हैं। औसतन एक हजार पुरूष के विरूद्ध 895 महिला मतदाता हैं। 2010 के विधानसभा चुनाव में जिले के पांच विधानसभा क्षेत्रों में 45.66 फीसदी मतदान हुआ था। इसमें 44.66 फीसदी पुरूष मतदान किया था। जबकि 46.24 फीसदी महिला मतदाताओं ने मतदान किया था। 

नवादा में पांच महिलाएं एमएलए बनी
नवादा जिले के राजनैतिक इतिहास का आकलन करे तो पिछले 15 चुनावों में जिले के पांच विधानसभा क्षेत्र से 75 नेताओं को क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला। इनमें महिलाओं की संख्या सिर्फ बारह है। खासबात कि सात बार गायत्री देवी और उनकी पुत्रवधू पूर्णिमा यादव निर्वांचित हुईं। महिलाओं की संख्या के हिसाब से देखें तो सिर्फ पांच महिलाएं को राजनीति में अवसर मिला। 
        गायत्री देवी तीन बार गोविंदपुर और एक बार नवादा से निर्वाचित हुई था। जबकि पुत्रवधू पूर्णिमा यादव तीन बार नवादा से निर्वाचित हुई हैं। अरूणा देवी दो बार वारिसलीगंज क्षेत्र से निर्वाचित हुई। शांति देवी एक बार रजौली से निर्वाचित हुईं। हिसुआ में राजकुमारी देवी दो बार निर्वाचित हुई। 1962 के बाद किसी महिला को हिसुआ में प्रतिनिधित्व का अवसर नही मिला। जबकि हिसुआ का अतीत गौरवशाली रहा है।

क्या कहतीं हैं महिला कार्यकर्ता
सामाजिक कार्यकर्ता पुष्पा कहती हैं कि वामदलांे को छोड़ दें तो ज्यादातर दल महिला विरोधी हैं। महिलाओं के प्रतिनिधित्व के सवाल पर दलों की नियत साफ नही है। महिलाओं पर बंदिश लगाना चाहती है। बुर्जुआ दलों में ज्यादातर उन महिलाओं को मौका दिया जाता है जिनके पति और परिवार आपराधिक या फिर आर्थिक अपराध में आरोपित होने के कारण चुनाव नही लड़ सकते हैं। राजनैतिक दल ऐसे आरोपियों को संपोषित करने के लिए उनके परिजनों को उम्मीदवार बनाती है। जबकि सक्रिय महिला कार्यकर्ता को हाशिये पर रखा जाता है।
प्रो प्रमिला कुमारी कहती हैं कि 21वीं सदी में भी राजनीतिक दल और परिवार में पुरूष सता हॉवी है। लिहाजा, पुरूष समाज महिलाओं को घर की देहरी से बाहर नही देखना चाहता। पुरूषों को लगता है कि घर से बाहर महिलाएं सुरक्षित नही है। वह कहती हैं कि जिन महिलाओं को पुरूषों ने अवसर दिया भी है उन्हें स्वतंत्र रूप से काम करने की आजादी नही है। उनपर दबाव बनाया जाता है। इनसबके बावजूद जो महिलाएं राजनीति में सक्रिय रहती हैं, उन्हें दल तवज्जों नही देती।  दल भी प्रभावशाली महिलाओं को अवसर उपलब्ध कराती है। इसलिए साधारण महिलाओं की राह आसान नही है।