Saturday 21 November 2015

बिहार में काम न आया मोदी का चक्रव्यूह

अशोक प्रियदर्शी
  सोलह माह पहले की कहानी है। लोकसभा चुनाव में पार्टी की खराब प्रदर्शन के कारण जदयू नेता नीतीश कुमार मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिये थे। उनकी जगह तत्कालीन एससीएसटी कल्याण मंत्री जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया गया। संदेश स्पष्ट था कि 2015 के विधानसभा चुनाव में दलित मतों का धु्रवीकरण जदयू के पक्ष में हो सके। मुख्यमंत्री बनने के माह भर के अंतराल में 21 जून को मांझी की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से दिल्ली में मुलाकात हुई। इसे शिष्ट्राचार मुलाकात बताया गया। मांझी ने कहा कि बिहार के विकास के मसले पर प्रधानमंत्री का रूख सकारात्मक है। जदयू और भाजपा के विरोधाभासी बयानों के बीच मांझी की यह टिप्पणी जदयू को हैरान कर दिया।
      चूंिक मांझी की प्रतिक्रिया पार्टी की रणनीति से अलग थी। क्योंकि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को पीएम उम्मीदवार घोषित किए जाने की प्रतिक्रिया में जदयू नेता नीतीश कुमार ने भाजपा से 17 साल पुराने संबंध तोड़ लिये थे। 2014 का लोकसभा चुनाव वामदल के साथ जदयू लड़ी थी। जदयू 38 में से सिर्फ दो सीटें जीती थी। इस चुनाव में भाजपा को बहुमत मिली थी। लिहाजा, नीतीश मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिये थे। लेकिन नरेंद्र मोदी से मुलाकात के बाद मांझी की टिप्पणी पार्टी जनों को हजम नही हो रही थी। पार्टी के अंदर से मांझी की आलोचना की जाने लगी। इसके जवाब में मांझी कहते रहे कि उन्हें मोहरा के रूप में इस्तेमाल किया जाना पसंद नही
      मांझी पार्टीजनों के आलोचनाओं से पीछे मुड़ने के बजाय आगे बढ़ते गए। प्रधानमंत्री और केन्द्रीय मंत्रियों के साथ मांझी सहज दिखने लगे। भाजपा नेताआंे से बढ़ती नजदीकियों का पटाक्षेप करीब साल भर बाद 11 जून 2015 को हुआ, जब मांझी ने भाजपा के साथ मिलकर 2015 का विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा किये। मांझी की नवगठित हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा 20 सीटों पर महागठबंधन (जदयू, राजद और कांग्रेस ) के खिलाफ चुनावी समर में हैं। मांझी खुद मखदुमपुर के अलावा विधानसभा अध्यक्ष उदयनारायण चैधरी के खिलाफ इमामगंज से चुनाव मैदान में हैं। मांझी कहते हैं- नीतीश कुमार को सता से बेदखल करना उनका मुख्य मकसद है।
       दरअसल, नीतीश कुमार के खिलाफ मांझी के मुखर होने के पीछे भाजपा की राजनैतिक चाल रही है। इसके लिए भाजपा एक साल से योजनाबद्ध तरीके से काम कर रही थी। मिसाल के तौर पर 3 फरवरी 2015 को बिहार दौरे के क्रम में केन्द्रीय मंत्री उमा भारती ने कहा कि केन्द्र और राज्य के साथ मिलकर काम करने में मांझी एक आदर्श उदाहरण हैं। जबाव में मांझी ने कहा कि विकास के प्रति उमा भारती का रूख सकारात्मक है। हालांकि जदयू नेताओं के आरोप रहे हैं कि मांझी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के स्क्रिप्ट पर काम कर रहे हैं। लेकिन विरोधाभाषी ब्यानों के कारण दूरियां इस कदर बढ़ गयी कि जदयू ने मांझी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव ला दिया। तब मांझी के पक्ष में जदयू के बागी सदस्यों के अलावा भाजपा खड़ी दिखी। 
        दरअसल, 16 जून 2013 को भाजपा से जदयू के अलग होने के बाद से ही भाजपा नीतीश कुमार को घेरने की योजना पर काम कर रही थी। 2014 लोकसभा चुनाव के पहले लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान और रालोसपा प्रमुख उपेन्द्र कुशवाहा से गठबंधन किया। कुल 40 सीटों में भाजपा-30, लोजपा-7 और रालोसपा-3 सीटों पर चुनाव लड़ी। इसमें भाजपा 22, लोजपा 6 और रालोसपा 3 सीटें जीतीं। वहीं राजद चार, जदयू और कांग्रेस-दो-दो जबकि राकंपा-एक सीट जीती। लोकसभा चुनाव में नीतीश के विरोधियों को गले लगाने से हुये लाभ के बाद भाजपा ने अपने दायरे को बढ़ा लिया।जैसा कि जानते हैं नीतीश से गतिरोध के बाद कुशवाहा ने रालोसपा का गठन किया था।जबकि 15 सालों से पासवान नीतीश के विरोध की राजनीति करते रहे हैं।             2010 में निर्वाचित लोजपा के तीन विधायकों को जदयू ने शामिल कर लिया था।भाजपा नीतीश के ऐसे दुश्मनों को साधकर नीतीश को घेरने की कोशिश की है। नीतीश को मात देने के लिए मांझी, पासवान और कुशवाहा को अपना गठबंधन में शामिल करने के अलावा भाजपा ने नीतीश के बागी विधायकों को भी गले लगाया है। भाजपा ने पार्टी के 14 विधायकों का टिकट काट दिया। जबकि दूसरे दलों के 11 विधायकों को अपनाया। मांझी भी ज्यादातर नीतीश के बागी विधायकों को उतारा। बिहार के 243 सीटों में भाजपा-160, लोजपा-40, रालोसपा-23 और हम 20 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। 
        ऐसा नही कि भाजपा की व्यूह रचना को नीतीश नही समझ पाये। भाजपा को इसका जवाब देने के लिए नीतीश 20 साल पुराने दुश्मनी को भूलाकर राजद प्रमुख लालू प्रसाद से हाथ मिला लिया। कांग्रेस को भी साझीदार बनाकर महागठबंधन बनाया। 2014 लोकसभा चुनाव के बाद हुये दस सीटों के विधानसभा उपचुनाव में इसका असर भी दिखा। महागठबंधन दस में से छह सीटें जीत गयीं। राजद-तीन, जदयू-दो और कांग्रेस-एक सीटें जीती। वहीं भाजपा अपने कब्जे वाली छह में से दो सीटें गंवा दी। 
      दरअसल, नीतीश और लालू को करीब आने की वजह लोकसभा चुनाव के परिणाम थे। लोकसभा चुनाव में एनडीए (भाजपा, लोजपा और रालोसपा) 38.8 फीसदी मत लाकर 31 सीटें जीत गयी थी। वहीं जदयू, राजद, कांग्रेस और राकंपा 46.28 फीसदी मत लाकर भी हार गये थे। क्योंकि सब अलग अलग चुनाव लड़े थे। जदयू को 16.04, राजद 20.46, कांग्रेस 8.56 और राकंपा को 1.22 फीसदी मत मिले थे। दूसरी तरफ, भाजपा को 29.86, लोजपा 6.50, रालोसपा को तीन फीसदी मत थे। 
      इस गणितीय आकड़े के आधार पर विधानसभा के उपचुनाव में मिली कामयाबी के बाद नीतीश और लालू राष्ट्रीय स्तर पर छह दलों के विलय का एलान कर दिये। समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव इसके अध्यक्ष बनाये गये। ताज्जुब कि 2015 विधानसभा चुनाव से पहले इस महागठबंधन से सपा और राकंपा अलग हो गयी। राकंपा नेता और सांसद तारिक अनवर ने कहा कि महागठबंधन को सिर्फ मुस्लिम मत चाहिए, मुस्लिम टिकट और चेहरा नही। अनवर कम से कम 12 सीटों का दावा कर रहे थे। लेकिन सीट बंटवारे में जदयू -100, राजद-100, कांग्रेस-40 और राकंपा को तीन सीटें दी गयी थी। 
       दूसरी तरफ, सपा ने नाता तोड़कर महागठबंधन को बड़ा झटका दिया है। सपा के महासचिव रामगोपाल यादव ने कहा कि जदयू, राजद और कांग्रेस के गठबंधन से सपा अलग चुनाव लड़ेगी। हम पार्टी के डेथ वारंट पर साइन नही करेंगे। इतना ही नहीं, राजद सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव भी महागठबंधन की मुश्किलें बढ़ायी। पप्पू यादव, तारिक अनवर और पूर्व केन्द्रीय मंत्री नागमणि ने सपा के साथ मिलकर समाजवादी धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बनाया है। 
        इस फ्रंट में सपा-85, जन अधिकार पार्टी-64,राकंपा-40, एनपीपी-3,  समरस समाज पार्टी- 28, समाजवादी जनता दल राष्ट्रीय- 23 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। यह फ्रंट भी ज्यादातर नीतीश और लालू के बागियों को तवज्जों दिया है। इस फ्रंट ने 4 विधायक, 32 पूर्व विधायक को जगह दिया है। बता दें कि कुल 70 विधायक बेटिकट कर दिये गये हैं। आल इंडिया मजलिस ए इतेहाज अल मुस्लिमीन (मीम) के सांसद असदुदीन ओवैसी ने सीमांचल में चुनाव लड़ने का फैसला कर महागठबंधन की मुश्किलें बढ़ा दी है।
        जदयू के प्रदेश प्रवक्ता डाॅ. अजय आलोक ने आरोप लगाया कि भाजपा को फायदा पहुंचाने के लिए औवैसी ने सीमांचल में चुनाव लड़ने का फैसला लिया है। इसके लिए औवैसी और भाजपा के बीच डील हुयी है। हालांकि ओवैसी ने आलोक के आरोप को कड़े शब्दों में खारिज करते हुए चेतावनी दिया कि आरोप लगाने के पहले प्रमाण जुटा लें वरना मामले को कोर्ट में ले जाएंगे। ओवैसी ने अपने तर्क में कहा कि क्या दिल्ली में अभाविप की जीत, झारखंड में बीजेेपी की सरकार उनकी वजह से बनी?
        फिलहाल, वजह जो भी रही हो लेकिन ओवैसी और समाजवादी धर्मनिरपेक्ष मोर्चा के आगतन से महागठबंधन की मुश्किलें बढ़ी है। ओवैसी सीमांचल के चार जिलों के 24 सीटों पर लड़ने का फैसला किया है। किशनगंज मंे 70, अररिया में 42, कटिहार में 41 और पूर्णिया में करीब 20 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं। 2010 के विधानसभा में कोसी और सीमांचल के अररिया, किशनगंज, पूर्णिमा, कटिहार, मधेपुरा, सहरसा, सुपौल के 37 सीटों में से 14 सीटें भाजपा जीती थी। 
       लेकिन जदयू के अलग हो जाने के बाद जब 2014 के लोकसभा चुनाव हुये तब भाजपा का प्रदर्शन नरेंद्र मोदी के लहर के बावजूद सीमांचल में खराब रहा। अररिया और मधेपुरा मंे राजद, किशनगंज और सुपौल में कांग्रेस जबकि पूर्णिया में जदयू और कटिहार में राकंपा जीती। पूर्णिया के अमौर में करीब 74.4 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं। इस सीट पर भाजपा प्रत्याशी इसलिए जीत गये थे कि मुस्लिम मतों का विभाजन हुआ। बताया जाता है कि भाजपा ऐसे ही मुस्लिम मतों के विभाजन की उम्मीद कर रही है। हालांकि राजद के उपाध्यक्ष डाॅ. रघुवंश प्रसाद सिंह ने कहा कि ओवैसी को महागठबंधन में आना चाहिए इससे धर्मनिरपेक्ष मतों का बिखराव रूकेगा। देखें तो, बिहार में 47 ऐसी सीटें हैं जहां मुस्लिम वोट निर्णायक अवस्था में है। इसमें भाजपा 25 सीटें जीती थी।
      बहरहाल, नीतीश को इस स्तर पर घेरने के पीछे भी भाजपा की सियासी चाल ठहरायी जा रही है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से पप्पू यादव की मुलाकातों को इन घटनाक्रमों से जोड़कर देखा जा रहा है। पप्पू कहते हैं कि सांप्रदायिकता से ज्यादा खतरनाक लालू और नीतीश हैं। ऐसा माना जा रहा है कि भाजपा पप्पू यादव के जरिये यादव वोट बैंक में विभाजन का फायदा उठाना चाह रही है।  दूसरी तरफ, सपा को महागठबंधन से अलग होने के पीछे की वजह ग्रेटर नोएडा के पूर्व चीफ इंजीनियर यादव सिंह का मामला बताया जा रहा है। मुलायम सिंह यादव के भतीजा सांसद अक्षय यादव को एक लाख में तीन करोड़ रूपये का शेयर दिये जाने का आरोप यादव सिंह पर है। यह मामला सीबीआई जांच के दायरे में है। 
        पिछला घटनाक्रम को देखें तो, 30 अगस्त को पटना गांधी मैदान में महागठबंधन की स्वाभिमान रैली हुयी थी। इस रैली में सपा के प्रतिनिधि भी शामिल थे। इसके पहले सीटों का बंटवारा हो गया था। राकंपा की छोड़ी गयी तीन सीटों के अलावा लालू प्रसाद दो और सीटें सपा को देने की बात कही थी। फिर भी आठ दिन बाद सपा ने महागठबंधन से अलग होने का एलान कर दिया। हालांकि महागठबंधन से अलग होने के पहले रामगोपाल यादव के भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और इसके पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलायम सिंह यादव की मुलाकातों के धटनाक्रम से जोड़कर देखा जा रहा है। हालांकि अक्षय ने ऐसे किसी आरोप को मनगढंत कहा है।
       हालांकि नीतीश कुमार ने कहा है कि सपा पहले भी लड़ते रहे हैं, इसबार भी लड़ें। उन्हें कौन रोक सकता है। सपा का पिछला रिकाॅर्ड देखें तो उत्साहजनक नही है। सपा 1995 में 176 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, जिसमें दो सीटें जीती। 2000 में 122 सीटों पर चुनाव लड़ी, एक भी सीट नही जीती। 118 पर जमानत जब्त हो गयी थी। फरवरी 2005 में 142 में चार सीटें जीती थी। इसमें 131 पर जमानत जब्त हो गयी थी। नवंबर 2005 में 158 सीटों में से दो सीटें जीती थी। जबकि 150 पर जमानत जब्त हो गयी थी। वहीं 2010 में 146 सीटों पर चुनाव लड़ी लेकिन एक भी सीट नही जीती। यही हाल राकंपा का है। 2010 में 171 सीटों पर चुनाव लड़ी लेकिन 168 पर जमानत जब्त हो गयी थी। एक भी सीट नही जीत सकी।
      यही नहीं, इस दफा छह वाम संगठन भी एक साथ उतरी है। सीपीआईएमएल-96, सीपीआई-91 और सीपीएम-38 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। बाकी सीटों पर तीन अन्य संगठन चुनाव लड़ रही है। बसपा भी 243 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। लेकिन पिछला चुनाव परिणाम को देखें तो यह दल नतीजा तक भले ही नहीं पहुंच पाती हो, लेकिन जीत हार के फासले को संघर्षपूर्ण बनाती रही है। मतों का विभाजन महागठबंधन और एनडीए प्रत्याशियों की जीत हार का कारण बन सकती है। 
         2010 के चुनाव में 34 सीटों पर जीत का अंतर 20 हजार से उपर हुआ। जबकि 44 सीटों पर 10 से 20 हजार मतों के बीच था। वहीं 17 सीटों पर 5-10 हजार के बीच, 15 सीटों पर पांच हजार से कम मतों से जीत दर्ज हुयी थी। जबकि सात सीटों पर दो हजार से कम मतों के अंतर से हार जीत हुयी थी। यही नहीं, भाजपा नीतीश कुमार को विशेष राज्य के दर्जे पर चुप करने की कोशिश की है। नरेंद्र मोदी ने सवा लाख करोड़ रूपये का आर्थिक मदद की घोषणा की है। इधर, नीतीश कुमार ने विततंत्री अरूण जेटली को पत्र लिखकर सवा लाख करोड़ के पैकेज को अस्पष्ट बताते हुए विशेष राज्य के दर्जे की मांग की है। जवाब में केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने विशेष दर्जे के नाम पर नीतीश पर सियासत करने का आरोप लगाया है।
       दरअसल, बिहार का चुनाव महागठबंधन और एनडीए के लिए प्रतिष्ठा का विषय बना है। महागठबंधन मंे नीतीश कुमार की पुनर्वापसी का सवाल है। वहीं एनडीए को बिहार की सता पर काबिज होने का सवाल है। यही वजह है कि चुनाव की घोषणा के पहले ही भाजपा की चार बड़ी रैलियां और महागठबंधन की एक बड़ी रैली हो चुकी है। नीतीश कुमार कहते हैं कि नरेंद्र मोदी बिहार को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिये हैं।  दरअसल, भाजपा दिल्ली में हुयी बुरी हार की भरपायी बिहार से करना चाह रही है। इसके अलावा बिहार की जीत में भाजपा की एक बड़ी रणनीति छिपी है। देखें तो, राज्यसभा के 245 सीटों में से 70 सदस्यों का कार्यकाल जुलाई 2016 तक पूरा होनेवाला है। इसमें कांग्रेस के 18 सदस्य हैं। बिहार से राज्यसभा में 16 हैं, इनमें भाजपा से सिर्फ चार हैं। 
         राज्यसभा का आकड़ें देखें तो, कांग्रेस-68, भाजपा-48, सपा-15, जदयू और तृणमूल-12-12, बसपा-10, एआइडीएमके-11, माकपा-9, बीएसपी और एनसीपी-6-6 और बाकी दो-एक सदस्य हैं। बिहार विधानपरिषद में भी भाजपा की स्थिति कमजोर है। 75 सीटों में से 34 जदयू के सदस्य है। भाजपा-22, राजद-5, कांग्रेस-5, माकपा-2, लोजपा-1 , निर्दलीय-4 और भाजपा-जदयू के अध्यक्ष उपाध्यक्ष हैं।
       दूसरी तरफ, नीतीश और लालू ने एनडीए खासकर भाजपा के चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए एमवाई कार्ड खेला है। महागठबंधन ने 243 में 97 सीटें एमवाई को दिया है। मुस्लिम को 33 जबकि यादव को 64 सीटें दी गयी है। रामविलास और मांझी को काटने के लिए 37 दलित महादलित को टिकट दिये गये हैं। अतिपिछड़ा को 25 सीटें दी गयी है। उपेंद्र कुशवाहा के हमले को कमजोर करने के लिए कोइरी कुरमी को 38 सीटें दी गयी है। इसके अलावा वैश्य-6 और सवर्ण जाति के 38 उम्मीदवार बनाये गये हैं.   
         जबकि एनडीए एमवाई समीकरण को सवर्णाें के जरिये काटने की कोशिश की है। सर्वाधिक 85 सीटें सवर्णों को दिये गये हैं। हालांकि एनडीए के 29 उम्मीदवार के नाम घोषित नही किए गए हैं। फिर भी एनडीए ने 25 यादव, 23 कोइरी कुर्मी, 18 वैश्य, 32 दलित महादलित, 20 अतिपिछड़ा और 9 अल्पसंख्यक को उम्मीदवार बनाया है। जगजीवन राम शोध संस्थान के जातीय आकड़े के मुताबिक, यादव-14, कोइरी-5, कुर्मी-4, अत्यंत पिछड़ा वर्ग-30, मुस्लिम-16.5, महादलित-10, दलित-6, भूमिहार-6, ब्राहम्ण-5, राजपूत-3, कायस्थ की एक प्रतिशत आबादी है। इस चुनाव में जदयू-101, राजद-101 और कांग्रेस-41 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। 
        देखें तो, सहयोगी राजद से भी नीतीश की मुश्किलें कम नही है। राजद शासन के कथित जंगलराज से तालमेल के जवाब को लेकर नीतीश बार बार विरोधियों के निशाने पर हैं। इन सबके बावजूद महागठबंधन में राजद को ज्यादा सीटंे मिलने की स्थिति में राजद का रवैया क्या रहेगा यह भी नीतीश के लिए चुनौती है। हालांकि लालू ने कहा कि अब नीतीश से कोई डर की बात नही है। नीतीश से भाई भाई का रिश्ता है। बहरहाल, यह देखना काफी दिलचस्प होगा कि अपनों और विरोधियों के सियासी व्यूह से नीतीश निकल पाते हैं या नही!